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व्यापार संधि में कृषि व डेयरी सेक्टर की बाधा

भारत और अमेरिका के बीच व्यापार संधि की वार्ता काफी आगे बढ़ने के बाद थम सी गई है और इसका कारण कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए भारत का बाजार खोलने या आयात शुल्क कम करने का अमेरिका का दबाव है। एक तरफ अमेरिका अपने जेनेटिकली मोडिफाइड यानी जीएम फूड्स के लिए भारत का बाजार चाहता है तो दूसरी ओर भारत के कृषि संगठन और कृषि उत्पादों के कारोबारी पूरी ताकत से इसका विरोध कर रहे हैं। भारत सरकार को भी पता है कि अगर अमेरिकी कृषि व डेयरी उत्पादों के लिए भारत का बाजार पूरी तरह से खुला या उन पर  उत्पाद शुल्क कम किया गया तो भारत के किसानों और कारोबारियों दोनों को बड़ा नुकसान होगा। अमेरिका जीएम फूड्स का बड़े पैमाने पर उत्पादन करता है और वह अपने किसानों को बेहिसाब सब्सिडी भी देता है, जबकि भारत में ज्यादातर छोटे और सीमांत किसान हैं, जो संस्थागत उत्पादन नहीं करते हैं। प्रतिस्पर्धा में उनके लिए अमेरिकी उत्पादों का मुकाबला आसान नहीं होगा। इसलिए उनके हितों की रक्षा सरकार को ही करनी है।

तभी अमेरिकी प्रतिनिधियों के साथ व्यापार वार्ता आगे बढ़ने के बाद अटक गई है। अमेरिका मक्का और सोयाबीन से लेकर मीट व डेयरी उत्पाद और पेट्रोल में ब्लेंड होने वाले इथेनॉल के लिए भारतीय बाजार का निर्बाध एक्सेस चाहता है। वह इन उत्पादों पर शुल्क कम करने की मांग कर रहा है। भारत भी कुछ उत्पादों पर अमेरिका से शुल्क में राहत चाहता है। वह कई सेक्टर में टैरिफ कम करने की मांग कर रहा है लेकिन अमेरिका की ओर से किए जा रहे मोलभाव की वजह से बात आगे नहीं बढ़ रही है। भारत और अमेरिका के बीच व्यापार संधि नौ जुलाई तक हो जानी चाहिए अगर नौ जुलाई तक संधि नहीं होती है तो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से लगाया गया 26 फीसदी का शुल्क लागू हो जाएगा। गौरतलब है कि उन्होंने भारत सहित दुनिया के एक सौ देशों पर शुल्क लगाया था और उस पर 90 दिन की रोक लगा दी थी। रोक की वह सीमा नौ जुलाई को खत्म हो रही है। उससे पहले दोनों देशों के बीच व्यापार संधि पर दस्तखत के प्रयास हो रहे हैं। राष्ट्रपति ट्रंप बार बार भारत और पाकिस्तान संघर्ष में सीजफार कराने का श्रेय ले रहे हैं लेकिन साथ ही कह रहे हैं कि वे भारत के साथ कारोबार करेंगे।

वैसे तो चिंता समूचे कृषि, डेयरी और मीट व प्रोसेस्ड मीट इंडस्ट्री में है लेकिन अगर खासतौर पर जिक्र करें तो चीनी उद्योग और सोयाबीन उद्योग में सबसे ज्यादा चिंता है। सबसे पहले चीनी उद्योग की चिंता को समझते हैं। पिछले कुछ समय से भारत में पेट्रोल में इथेनॉल मिलाने का अभियान चल रहा है। केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने टोल टैक्स वसूलने के साथ साथ पेट्रोल में इथेनॉल ब्लेडिंग को अपने मंत्रालय का मूलमंत्र बनाया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि वित्त वर्ष 2023-24 में इथेनॉल ब्लेडिंग का औसत 14.6 फीसदी पहुंच गया, जो 10 साल पहले 2013-14 में सिर्फ डेढ़ फीसदी था। ताजा आंकड़ों के मुताबिक यह करीब 19 फीसदी पहुंच गया है और वित्त वर्ष 2025-26 में इसके 20 फीसदी पहुंच जाने का अनुमान है। सात-आठ साल पहले इथेनॉल पूरी तरह से चीनी मिलों से आता था। वहां चीनी बनने के बाद जो अवशेष बचता था उससे इथेनॉल बनाया जाता था और वह ऑयल मार्केटिंग कंपनियों को बेचा जाता था। लेकिन 2017-18 से स्थिति बदलने लगी। इथेनॉल का उत्पादन अनाज से होने लगा। मक्का उसका बड़ा स्रोत बना। उसके अलावा चावल के टुकड़ों से भी इथेनॉल बनने लगा। अब स्थिति यह है कि भारत में ऑयल मार्केटिंग कंपनियों को इथेनॉल की जो आपूर्ति हो रही है उसमें करीब 68 फीसदी हिस्सा अनाज से बने इथेनॉल का है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा मक्का का है। उसके बाद भारत खाद्य निगम यानी एफसीआई के पास बचे अतिरिक्त चावल से और उसके बाद टुकड़ा अनाज यानी जो इंसानों के खाने के लिए सप्लाई नहीं होता है उस अनाज का हिस्सा है। महज एक तिहाई या करीब 32 फीसदी हिस्सा ही चीनी मिलों से आ रहा है।

चीनी मिल उद्योग की चिंता है कि भारत में चीनी की खपत बढ़ नहीं रही है और ईंधन की खपत बढ़ रही है तो उसमें इथेनॉल ब्लेंडिंग में उनका हिस्सा कम होता जा रहा है। अगर भारत सरकार अमेरिका के साथ व्यापार संधि करती है और उसमें अमेरिका के जीएम मक्का पर आयात शुल्क कम करके भारत में बेचने की इजाजत दी जाती है तो इथेनॉल ब्लेंडिंग में चीन मिल उद्योग का जो भी बचा खुचा हिस्सा है वह भी खत्म होगा। आने वाले दिनों में डीजल में भी थोड़ा बहुत इथेनॉल ब्लेंडिंग की मंजूरी मिल सकती है। इससे मांग निश्चित रूप से बढ़ेगी। चीनी मिल उद्योग का कहना है कि चीनी के अवशेषों से इथेनॉल बनाने से खाद्य संकट की कोई संभावना नहीं है। लेकिन अनाज से बनाने पर ऐसा संकट हो सकता है। इंसानों के साथ साथ पॉल्ट्री उद्योग को समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन अगर अमेरिका से सस्ता मक्का आएगा तो फिर

क्या होगा?

दूसरी आपत्ति सोयाबीन प्रोसेसिंग उद्योग की ओर से है। सोयाबीन प्रोसेसर एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने सोयाबीन के आयात की मंजूरी देने का भारी विरोध किया है। ध्यान रहे ब्राजील के बाद अमेरिका दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सोयाबीन उत्पादक देश है। वह इसके लिए बाजार तलाश रहा है। वह जीएम सोयाबीन उत्पादित करता है, जिससे उसकी पैदावार बहुत ज्यादा होती है। भारत में अभी करीब 12 मिलियन टन सोयाबीन की पेराई होती है और उसमें से तेल निकाला जाता है और बचा हुई हिस्सा प्रोटीन सोर्स के तौर पर बेचा जाता है। इसी साल भारत सरकार ने सोयाबीन, पाम ऑयल और सनफ्लॉवर ऑयल पर आयात शुल्क साढ़े 27 फीसदी से कम करके साढ़े 16 फीसदी कर दिया है। अगर यह सेक्टर अमेरिकी आयात के लिए खुलता है या आयात शुल्क कम होता है तो भारत के करीब 70 लाख सोयाबीन किसानों और इससे जुड़ी इंडस्ट्री के लिए संकट होगा।

मुश्किल यह है कि भारत और अमेरिका दोनों देश एक दूसरे के सामान पर आयात शुल्क कम करके अपना व्यापार बढ़ाना चाहते हैं। भारत चाहता है कि उसके कपड़ा, चमड़ा, दवाइयां और कुछ इंजीनियरिंग उत्पादों पर अमेरिका में जीरो टैक्स लगे, जबकि अमेरिका अपने कृषि और औद्योगिक उत्पादों के लिए भारतीय बाजार का एक्सेस चाहता है। अमेरिका यह भी चाहता है कि भारत मक्का, सोयाबीन और अन्य जेनेटिकली मोडिफाइड कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क कम करे।

साथ ही, वह चिकित्सा उपकरणों पर भी शुल्क कम कराना चाहता है और तकनीक के मामले में डाटा भारत में ही सुरक्षित रखने यानी डेटा लोकलाइजेशन के नियमों में ढील चाहता है। अमेरिका अपने डेयरी व मीट उत्पादों, गाड़ियों, और व्हिस्की के लिए भी कम शुल्क की मांग कर रहा है। भारत बाकी चीजों पर बात करने को तैयार है लेकिन अभी तक कृषि और डेयरी बाजार खोलने से इनकार कर रहा है क्योंकि इससे भारत के लाखों गरीब किसानों को बड़ा नुकसान होगा। भारतीय किसान और छोटे उद्योग अमेरिकी उत्पादों से मुकाबला नहीं कर पाएंगे।

गौरतलब है कि अमेरिका ने भारत के स्टील और एल्यूमिनियम पर शुल्क लगाए है तो बदले में भारत कुछ उत्पादों पर जवाबी शुल्क लगाना चाहता है। कहा जा रहा है कि अगर व्यापार संधि नहीं होती है तो भारत स्टील और एल्यूमिनियम पर कर लगाने की शिकायत विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लुटीओ में कर सकता है। बहरहाल, भारत कुछ कृषि उत्पादों और गाड़ियों पर शुल्क कम करने पर विचार कर सकता है। लेकिन वह भी तब होगा, जब अमेरिका भारत के कपड़ा और चमडा उद्योग को बेसलाइन शुल्क यानी 10 फीसदी शुल्क पर बिक्री की इजाजत दे। भारत ने अमेरिकी गाड़ियों और शराब व कॉस्मेटिक्स उत्पादों पर पहले ही शुल्क कम कर दिया है। लेकिन कृषि और डेयरी व मीट उद्योग में भारत आयात शुल्क कम नहीं कर सकता है क्योंकि उससे भारतीय किसानों, पशुपालकों और कृषि आधारित उद्योगों पर बुरा असर होगा। फिर भी संभव है कि तीन चरण में व्यापार संधि हो। पहला चरण नौ जुलाई से पहले हो सकता है। उसमें कृषि व डेयरी उद्योग को छोड़ा जा सकता है। दूसरे चरण का समझौता भी इसी साल संभव है और तीसरा व आखिरी चरण अगले साल हो सकता है।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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