nayaindia विपक्षी पार्टियों द्वारा असहयोग: एंकर्स के समर्थन में विवाद
अजीत द्विवेदी

अपने गिरेबान में झांकने का समय!

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विपक्षी पार्टियों

विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ की मीडिया कमेटी ने मुख्यधारा के खबरिया चैनलों से जुड़े 14 एंकर्स के साथ ‘असहयोग’ का ऐलान किया है। विपक्षी पार्टियां इन एंकर्स के कार्यक्रमों में अपने प्रवक्ताओं या टेलीविजन वक्ताओं को नहीं भेजेंगी क्योंकि विपक्ष को लग रहा है कि ये एंकर देश में नफरत फैलाने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। विपक्षी पार्टियों ने यह फैसला इन एंकर्स के कार्यक्रमों में बहस के लिए रखे जाने वाले विषयों, उसमें बुलाए जाने वाले मेहमानों, बहस की दिशा और इन एंकर्स के अपने आचरण के इतिहास के आधार पर किया है। इसलिए मानना चाहिए कि फैसला सोच-समझ कर किया गया होगा और विपक्षी पार्टियों को इसके असर का अंदाजा भी होगा।

इसके पक्ष और विपक्ष में खूब सारे तर्क दिए जा रहे हैं। विपक्ष के ‘असहयोग’ का निशाना बने एंकर्स अपने को शहीद बताते घूम रहे हैं और केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा खुल कर उनका समर्थन कर रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियां इस कदम का बचाव कर रही हैं। पत्रकारों के भी दो खेमे बने हैं और स्वतंत्र विचारकों, लेखकों, व्यंग्यकारों के भी दो खेमे बने हैं। दोनों तरफ से अच्छे-अच्छे रूपक गढ़े जा रहे हैं। फिल्मों की कहानी, गाने आदि लिखने वाले एक प्रतिबद्ध स्टैंड अप कॉमेडियन वरुण ग्रोवर ने बहुत अच्छा रूपक गढ़ा।

उन्होंने कहा कि ‘अगर मुझे पता चल जाए कि मेरे शहर का एक दुकानदार बहुत खराब तेल में बासी आलू के समोसे बनाता है और मैं उसके यहां से समोसे खरीदना बंद कर दूं तो यह मेरी सेहत की रक्षा के लिए उठाया गया कदम माना जाएगा या उस दुकानदार का हक मारने वाला कदम होगा’? यह बिल्कुल सही रूपक है। अगर विपक्षी पार्टियों को लग रहा है कि कुछ एंकर नफरत फैला रहे हैं या किसी ज्ञात-अज्ञात कारण से विपक्षी पार्टियों के हितों को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो उनके साथ असहयोग करना न तो प्रेस के ऊपर हमला है और न विपक्षी पार्टियों के भय को दिखाता है। यह अपने हितों का ध्यान रखते हुए किया गया सुविचारित फैसला है।

हैरानी की बात है कि स्वतंत्र व निष्पक्ष होने का दिखावा करने वाले कई पत्रकार भी कह रहे हैं कि विपक्षी पार्टियों ने अच्छा नहीं किया। एंकर्स के बहिष्कार, जिसे विपक्षी पार्टियां ‘असहयोग’ कह रही हैं, से अच्छी मिसाल कायम नहीं होती है। लेकिन ऐसा कहने या मानने का कोई आधार नहीं है। विशेष परिस्थितियों में इस तरह के उपाय कई जगह देखने को मिलते हैं।

मिसाल के तौर पर संसद में जब कोई सांसद ज्यादा शोर-गुल करता है या असंसदीय आचरण करता है तो स्पीकर या सभापति उसे चेतावनी देते हुए कहते हैं कि अगर वे शांत नहीं हुए तो उनका नाम लिया जाएगा। टेलीविजन के सीधे प्रसारण में या सदन में मौजूद सदस्यों को दिख रहा होता है कि कौन सांसद हंगामा कर रहा है। फिर भी एक सीमा तक शोर-गुल करने और कार्यवाही में बाधा डालने की इजाजत होती है क्योंकि वह संसदीय प्रक्रिया का हिस्सा है।

परंतु पानी सिर के ऊपर बहने लगे तो फिर नाम लेना पड़ता है। स्पीकर या सभापति सदस्य का नाम पढ़ते हैं। इसको अच्छा नहीं माना जाता है। यही काम विपक्षी पार्टियों ने एंकर्स के मामले में किया है। सबको दिख रहा था कि कौन एंकर किस तरह से खास एजेंडे के तहत विपक्ष को निशाना बना रहा है, विपक्षी नेताओं को अपमानित कर रहा है, झूठ फैला रहा है और समाज में नफरत और विभाजन को बढ़ावा दे रहा है। अगर विपक्षी पार्टियों ने ऐसे एंकर्स की पहचान की है और कुछ लोगों का नाम लिया है तो ऐसा करना उनका अधिकार भी है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा भी है।

ध्यान रहे विपक्षी पार्टियों ने सिर्फ एंकर्स के नाम लिए हैं। उनके कार्यक्रम में जाने से मना किया है। इसके अलावा किसी तरह की दमनकारी कार्रवाई नहीं की है, जबकि 11 राज्यों में उन पार्टियों की सरकार है, जो विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का हिस्सा हैं। अगर ये पार्टियां अपने अपने शासन वाले राज्यों से विज्ञापन देना बंद करें, मालिकों पर दबाव डलवा कर एंकर्स या किसी पत्रकार को नौकरी से निकलवाएं, उनको धमकी दें, पुलिस एफआईआर करे, गिरफ्तारी हो, रिपोर्ट रूकवाई जाए, चैनल बंद कराने की धमकी दी जाए तब तो इसे प्रेस की आवाज दबाना कहा जाएगा।

यहां तो उलटा है। यहां एंकर्स को नहीं रोका गया है और न कोई कार्रवाई की गई है। विपक्षी पार्टियों ने सिर्फ इतना कहा है कि वे उनके कार्यक्रम में अपने प्रवक्ताओं को नहीं भेजेंगे। इसे प्रेस की आजादी पर हमला करना नहीं कहा जा सकता है। हां, इस पर बहस हो सकती है कि विपक्ष को ऐसा करने से फायदा होगा या नुकसान, लेकिन यह अलग बहस का विषय है। विपक्ष ने जो किया है, अगर उसके गुण-दोष पर यानी मेरिट पर बात करें तो इसमें कुछ भी असंसदीय, अलोकतांत्रिक या अराजनीतिक नहीं है। आखिर भाजपा भी अघोषित रूप से ही सही लेकिन एंकर्स का बहिष्कार करती है!

बहरहाल, विपक्ष की ओर से बहिष्कृत एंकर्स ने उसके बाद जो प्रतिक्रिया दी है और देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से उनके बचाव में उतरी वह देखना दिलचस्प था। उससे अपने आप यह साफ हो गया कि विपक्षी पार्टियों ने जो किया वह सही किया। भाजपा की ओर से इन पत्रकारों को निष्पक्ष बताया गया और कहा गया कि इन्होंने झुकने से इनकार कर दिया तो विपक्षी पार्टियां उनका बहिष्कार कर रही हैं। लेकिन किसी खास एंकर के कार्यक्रम के बहिष्कार को झुकाने का प्रयास नहीं कहा जा सकता है। विपक्षी पार्टियों के प्रवक्ता उस चैनल के दूसरे कार्यक्रमों में जाएंगे, दूसरे एंकर्स को इंटरव्यू देंगे लेकिन जिनके बारे में यह धारणा है कि वे झूठ और नफरत फैला रहे हैं उनका बहिष्कार करेंगे। वैसे भी सरकारी दल जिन पत्रकारों की तारीफ और बचाव करे विपक्ष को उनसे दूर ही रहना चाहिए।

इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा फूहड़ और अश्लील तर्क स्वनामधन्य एंकर्स की तरफ से दिया जा रहा है। एक एंकर ने बहिष्कार को बैज ऑफ ऑनर कहा तो भाजपा के एक नेता ने उनको वारियर्स ऑफ ट्रूथ कहा। सोचें, इनके कार्यक्रम से कौन सा सच सामने आया या किस सच की लड़ाई इन्होंने लड़ी? क्या इनमें से किसी ने चीन की घुसपैठ का सच दिखाया या उस पर सवाल पूछा? चीन ने भारत का बड़ा हिस्सा अपने नक्शे में दिखाया और अरुणाचल प्रदेश के गांवों के नाम बदल दिए तो क्या इनमें से किसी एंकर का खून खौला और उसने भारत की संप्रभुता पर हुए इस हमले को लेकर कोई खबर दिखाई या बहस कराई?

डॉलर की कीमत 83.27 रुपए हो गई, पेट्रोल एक सौ रुपए लीटर से ज्यादा दर पर बिक रहा है, दो सौ रुपए कम होने से पहले रसोई गैस के सिलेंडर की कीमत 11 सौ रुपए से ऊपर थी, तो क्या महंगाई को लेकर इन एंकर्स ने कोई सच दिखाया? सरकारी संपत्तियों को बेचे जाने या राफेल सौदे की गड़बड़ियों या मॉब लिंचिंग को लेकर कोई सवाल उन्होंने उठाया? अडानी-हिंडनबर्ग की रिपोर्ट हो, कश्मीर में लोकतंत्र पर ताला लगाने का मामला हो या अच्छे दिन का वादा हो किसी ने इनका सच नहीं दिखाया। हकीकत यह है कि किसी ने सरकार से एक सवाल पूछने की जरूरत नहीं समझी। उलटे सत्तारूढ़ दल के एजेंडे के हिसाब से विपक्ष को कठघरे में खड़ा करते रहे। इनकी सच की लड़ाई सिर्फ विपक्ष से है। इनके लिए सवाल पूछने का मतलब विपक्ष से सवाल पूछना है।

असल में टेलीविजन के ज्यादा न्यूज एंकर्स ने पत्रकार होने की न्यूनतम नैतिकता का ध्यान नहीं रखा है। उन्होंने पत्रकारिता के सिद्धांत को सिर के बल खड़ा कर दिया। वे सरकार से सवाल पूछने की बजाय विपक्ष से लड़ते रहे। वे कहते हैं कि डट कर सवाल पूछते रहेंगे। सोचें, किससे सवाल पूछेंगे? विपक्ष से! वे कह रहे हैं कि झुकेंगे नहीं। इसका क्या यह मतलब नहीं है कि पहले की तरह ही वे सरकार के एजेंडे पर काम करते रहेंगे और विपक्ष से सवाल पूछते रहेंगे!

यह पूरी तरह से गलत है फिर भी इस पर आंख बंद की जा सकती है लेकिन अगर कोई पत्रकार सारे समय समुदायों के बीच नफरत फैलाने, समाज में विभाजन और तनाव बढ़ाने का काम करेगा तो कोई भी समझदार आदमी क्या करेगा? आम आदमी टेलीविजन पर न्यूज देखना बंद कर देगा, जैसा बहुत से लोग कर चुके हैं। इसके लिए कोई न्यूज चैनल दबाव नहीं डाल सकता है कि आप क्यों नहीं उसका चैनल देख रहे हैं। उसी तरह विपक्ष ने अपने प्रवक्ता नहीं भेजने का फैसला किया है तो कोई उन पर दबाव नहीं डाल सकता है कि आप प्रवक्ता क्यों नहीं भेजेंगे।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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