nayaindia लोकसभा चुनाव: नेताओं की रैलियों में भीड़, लेकिन कोई उत्साह नहीं

चुनाव का जोश कहां नदारद है?

लोकसभा

इस बार लोकसभा चुनाव में कोई जोश नहीं दिख रहा है। नेताओं की रैलियों में भीड़ दिख रही है लेकिन पार्टियों को ही पता है कि वह भीड़ कैसे आ रही है। कितनी मेहनत करनी पड़ रही है और कितने जतन करने पड़ रहे हैं लोगों को लाने के लिए। लोग स्वतःस्फूर्त नेताओं की रैलियों में नहीं पहुंच रहे हैं। मतदान केंद्रों पर भी लोग पहले जैसे जोश और उत्साह के साथ नहीं पहुंच रहे हैं।

पहले दो चरण का मतदान शुक्रवार के दिन हुआ, जिसका फायदा लोगों ने यह उठाया कि लंबा सप्ताहांत कर लिया। उनको लगातार तीन दिन की छुट्टी मिल गई और वे घूमने निकल गए। सोचें, अतिरिक्त छुट्टी और लंबे सप्ताहांत का नैरेटिव कितना अहम है कि अखबारों ने अभी से बता दिया है कि 23 मई को गुरुवार है और इस दिन बुध पूर्णिमा की छुट्टी है, जबकि 25 मई को राजधानी दिल्ली सहित कई राज्यों में छठे चरण के मतदान की छुट्टी है। सो, अगर लोग 24 मई यानी शुक्रवार की छुट्टी ले लेते हैं तो उनका सप्ताहांत चार दिन का हो जाएगा।

बहरहाल, यह एक पहलू है या एक कारण है मतदान का प्रतिशत कम होने में, वैसे ही जैसे एक कारण भीषण गर्मी है। पहले दो चरण में जिन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 189 सीटों पर मतदान हुआ उनमें से कई राज्यों में हीटवेव चल रही थी। लेकिन मध्य प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी ने खुल कर कहा कि मतदान में कमी आने के लिए गर्मी जिम्मेदार नहीं है। यह बात काफी हद तक सही है क्योंकि पिछले चार आम चुनाव अप्रैल और मई में ही हुए हैं और हर बार ऐसी ही गरमी होती है। लेकिन 2004 के चुनाव को छोड़ कर कभी न तो मतदान प्रतिशत में गिरावट आई और न ज्यादा गरमी होने की चर्चा हुई।

2004 में जरूर 1.92 फीसदी की कमी आई थी और तब सरकार बदल गई थी। यह भाजपा के लिए चिंता की बात हो सकती है क्योंकि इस सदी में अब तक हुए चार आम चुनावों में सिर्फ एक बार मतदान का प्रतिशत कम हुआ और छह साल पुरानी अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता गंवा दी थी। उसके बाद से तीनों चुनावों में मतदान प्रतिशत में इजाफा हुआ। अब 2024 के चुनाव में पहले दो चरण में क्रमशः साढ़े चार फीसदी और तीन फीसदी की कमी दर्ज की गई है। हालांकि यह आधिकारिक आंकड़ा नहीं है।

अगर सप्ताहांत की लंबी छुट्टी और गरमी जैसी छोटी मोटी बातों को छोड़ दें तो क्या कारण है, जो चुनाव से जोश नदारद है और लोग लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ज्यादा उत्साह के साथ नहीं शामिल हो रहे हैं? ध्यान रहे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में करीब एक सौ करोड़ मतदाताओं की भागीदारी सिर्फ पांच साल में एक बार वोट देने तक ही सीमित है। इसके अलावा आम लोगों का लोकतंत्र या चुनी हुई सरकार के साथ कोई संपर्क या संबंध नहीं रहता है। सब लोग अपने अपने जीवन संघर्षों में लगे रहते हैं। सरकार को जवाबदेह बनाने के लिए दबाव की राजनीति या प्रदर्शन, आंदोलन वगैरह तो पहले भी कम ही होते थे लेकिन अब तो और भी कमी आ गई है।

तभी यह भारत के लिए ज्यादा बड़ी चिंता की है लोगों को पांच साल में एक बार लोकतांत्रिक अधिकार के इस्तेमाल का मौका मिल रहा है और वे इसका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।

उनकी उदासीनता समझ में नहीं आने वाली है। क्या यह केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार से मोहभंग है या यह आश्वस्ति है कि मोदी तो फिर जीत ही रहे हैं या यह भारतीय राजनीति में आए ठहराव का संकेत है? क्या ऐसा हो सकता है कि भारत में मतदान का प्रतिशत 70 फीसदी के ऐसे स्तर पर पहुंच गया है, जहां से इसमें वैसी बढ़ोतरी नहीं हो सकती है, जैसे पहले के चुनावों में होती रही है? क्या इसको भारत में मतदान की ऊपरी सीमा मान लें?

अगर इस बार भी पिछली बार की तरह 67 फीसदी से थोड़ा ऊपर या उसके आसपास मतदान होता है तो इसको बुरा नहीं कहा जा सकता है। एक बिना किसी बड़े एजेंडे या बिना किसी बड़े मुकाबले के अगर 67फीसदी तक मतदान होता है तो वह इस बात का संकेत भी हो सकता है कि भारत में अब मतदान का प्रतिशत सैचुरेशन प्वाइंट पर पहुंच गया है और आगे के चुनावों में यह इसी के आसपास रहेगा या इसमें मामूली बढ़ोतरी होगी।

ऐसा होने में कई फैक्टर की भूमिका होगी, जिसमें एक फैक्टर घरेलू प्रवासन की होगी। भारत दुनिया में सर्वाधिक घरेलू प्रवासन वाला राज्य है। यहां एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर काम करने वाले प्रवासियों की संख्या बहुत ज्यादा है। उनमें से बहुत से लोग मतदाता के तौर पर कई जगह पंजीकृत होते हैं। अगर उनकी पहचान करके मतदाता सूची से नाम कटे तो वास्तविक मतदाताओं की संख्या में काफी कमी आएगी और तब इतने ही मतदान पर मतदान प्रतिशत बहुत बढ़ जाएगा। इसके अलावा प्रवासी मतदाताओं के लिए रिमोट वोटिंग का बंदोबस्त हो तब भी मतदान प्रतिशत में बढ़ोतरी हो सकती है।

इस तकनीकी और व्यावहारिक पहलू के अलावा कुछ राजनीतिक कारण हैं, जिनकी वजह से चुनाव में उत्साह नहीं दिख रहा है। मतदान प्रतिशत कम होना एक बात है और उत्साह नदारद होना दूसरी बात है। लोग राजनीति पर चर्चा करते हुए नहीं हैं। कहीं नरेंद्र मोदी को जिताने या हराने के लिए लोग उत्साहित नहीं दिख रहे हैं। चाय की दुकानों और चौराहों पर होने वाली चर्चाओं में भी वह गर्मी नहीं है, जो पिछले पिछले दो चुनावों में देखने को मिली। लोग नरेंद्र मोदी के समर्थन में या राहुल गांधी के विरोध में मरने मारने पर उतारू नहीं हो रहे हैं। वे सहज भाव से मोदी की शिकायत भी सुन रहे हैं और राहुल की तारीफ भी सुन रहे हैं, जबकि पहले इन बातों पर जंग छिड़ जाती थी।

सार्वजनिक स्पेस में मोदी की शिकायत और राहुल की तारीफ करना जोखिम का काम था। लेकिन अब ये दोनों काम हो रहे हैं। लोग मोदी का भी मजाक उड़ा रहे हैं, उनकी बातों की अनदेखी कर रहे हैं, नाचते गाते उनकी सभाओं में नहीं जा रहे हैं, बल्कि उनके भाषण के बीच उठ कर जाने लग जा रहे हैं। हालांकि यह जरूरी नहीं है कि ऐसा करने वाले उनको वोट नहीं देंगे लेकिन जो जुनून था, जोश था, उम्मीदें थीं वह नदारद है।

इसके अलावा एक कारण यह समझ में आता है कि इस बार चुनाव प्रचार में कोई केंद्रीय मुद्दा नहीं है। राज्यों में भाजपा के नेतृत्व और कैडर दोनों में कंफ्यूजन रहा कि किस मुद्दे पर चुनाव लड़ना है। जनवरी में लग रहा था कि अयोध्या में राममंदिर के मुद्दे पर चुनाव होगा, लेकिन वह मुख्य मुद्दा नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने जब कहा कि 370 हटाया है तो लोग 370 सीटें देंगे तब लगा कि यह एक मुद्दा होगा लेकिन यह भी मुद्दा नहीं बना। विपक्षी पार्टियों के नेताओं के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की इतनी कार्रवाई के बावजूद भ्रष्टाचार का भी मुद्दा नहीं बना।

भाजपा के घोषणापत्र में एक देश, एक चुनाव का वादा है और समान नागरिक संहिता का भी वादा है लेकिन इसे भी केंद्रीय मुद्दा बना कर चुनाव नहीं लड़ा जा रहा है। न तो हिंदुत्व की थीम है और न राष्ट्रवाद की और न प्रधानमंत्री मोदी की विश्व गुरू वाली छवि और मजबूत नेतृत्व का मुद्दा है। भाजपा के मुकाबले विपक्ष ने जरूर संविधान व लोकतंत्र बचाने का मुद्दा बनाया है या खजाना खोल कर नागरिकों को बहुत सारी चीजें देने का भी वादा किया है लेकिन भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी का सबसे अहम मुद्दा अब भी चर्चा में नहीं है।

कह सकते हैं कि भाजपा ने और खास कर प्रधानमंत्री ने इन मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे उठा दिए हैं और संपत्ति छीन कर मुसलमानों को देने का नैरेटिव चलाया है। इसका फायदा या नुकसान बाद में पता चलेगा लेकिन अभी लग रहा है कि इससे वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटा है। यह भी एक कारण है कि चुनाव में लोगों की भागीदारी और उत्साह कम देखने को मिल रहा है।

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