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चर्चा की नहीं चुनाव सुधार की जरुरत है

संसद में चुनाव सुधारों की चर्चा हो रही है। शीतकालीन सत्र में सरकार इस पर चर्चा के लिए तभी तैयार हुई, जब विपक्ष वंदे मातरम् पर चर्चा के लिए तैयार हुआ और इस पर सहमत हुआ कि मतदाता सूची कि विशेष गहन पुनरीक्षण की बजाय व्यापक रूप से चुनाव सुधार पर चर्चा होगी। ध्यान रहे विपक्षी पार्टियां संसद के मानसून सत्र में भी एसआईआर पर चर्चा चाहती थीं लेकिन सरकार के अड़ियल रवैए की वजह से चर्चा नहीं हुई। अब सवाल है कि चुनाव सुधार पर चर्चा से क्या हासिल होना है? संसद में चर्चा अगर सुधार के विधेयक लाकर होती तो उसका कुछ हासिल होता। लेकिन बिना विधेयक के चुनाव सुधार पर चर्चा टाइम पास है। ऐसा मानने का कारण यह है कि सरकार पहले ही तमाम बड़े सुधार की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है और उसके लिए कोई चर्चा नहीं की गई।

तीन बड़े चुनाव सुधार इस समय प्रोसेस में हैं। मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर का काम चल रहा है। दूसरा बड़ा सुधार ‘एक देश, एक चुनाव’ का है, जिसका विधेयक संसद में पेश हो चुका है और उस पर संसद की साझा समिति विचार कर रही है। तीसरा बड़ा सुधार परिसीमन का है और उसकी भी तैयारी चल रही है। अगले साल दो चरण में होने वाली जनगणना का काम शुरू होगा और उसके बाद परिसीमन किया जाएगा। इसका विरोध कई स्तरों पर अभी से शुरू हो गया है तो समर्थन भी शुरू हो गया है। दक्षिण के राज्य चाहते हैं कि परिसीमन नहीं हो और सीटों की संख्या जितनी है उतनी ही रहे। दूसरी ओर उत्तर भारत के नेता चाहते हैं कि परिसीमन करके सीटों की संख्या बढ़ाई जाए। इनके अलावा एक और सुधार है, जिसका विधयेक सरकार पास कर चुकी है लेकिन लागू करने की डेडलाइन का पता नहीं है। वह सुधार है महिला आरक्षण का। नारी शक्ति वंदन कानून पिछले साल पास हुआ और संभवतः 2034 के चुनाव में लागू होगा।

विपक्षी पार्टियों को ‘एक देश, एक चुनाव’ से समस्या है तो एसआईआर और परिसीमन से भी है। लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार को उससे फर्क पड़ना है। ये तीनों काम होंगे। बिहार में एसआईआर के बाद चुनाव हुआ और अभी 12 राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में एसआईआर की प्रक्रिया चल रही है। इसमें किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए। मतदाता सूची का शुद्धिकरण स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव की पहली शर्त है। बिहार में इसका असर भी दिखा। मतदाता सूची की सफाई के बाद मतदान प्रतिशत बढ़ गया। विपक्षी पार्टियां इसे वोट काटने की साजिश बताती हैं लेकिन बिहार में ऐसा कोई संकेत नहीं मिला। यह भी ध्यान रखने की बात है कि एसआईआर में राजनीतिक दलों की भी भागीदारी होती है। उनके बूथ लेवल एजेंट्स इसमें नियुक्त होते हैं और वे सुनिश्चित कर सकते हैं कि किसी जेनुइन मतदाता का नाम नहीं कटे। इसके साथ ही उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि फर्जी या मृत मतदाताओं के नाम सूची में नहीं रहें। सो, एसआईआर का विरोध बेमानी है।

लेकिन ‘एक देश, एक चुनाव’ एक बेकार का आइडिया है। चुनाव सुधार के नाम पर सरकार इसे लागू करना चाहती है लेकिन यह न तो संविधान की भावना के अनुरूप है और न लोकतंत्र को मजबूत करने वाला कदम है। इसके पक्ष में जो भी तर्क दिए जा रहे हैं वो सब फालतू के हैं। कहा जा रहा है कि पूरे साल चुनाव चल रहा होता है। लेकिन पूरे साल एक ही राज्य में या देश में चुनाव नहीं होता है। अगर ध्यान से देखें तो हर राज्य में दो ही बार चुनाव होता है। एक बार लोकसभा का और एक बाद विधानसभा का। इसी तरह कहा जा रहा है कि आचार संहिता लगी होती है, जिससे कामकाज प्रभावित होता है। आचार संहिता से कोई कामकाज प्रभावित नहीं होता है।

पांच साल का मतलब 1825 दिन होता है अगर दो चुनावों के लिए उसमें 80 या 90 दिन आचार संहिता रहती है तो इससे कोई आफत नहीं आती है। सरकारों के नीतिगत फैसले आमतौर पर बजट में होते हैं या बजट से अलग भी होते हैं तो चुनाव से पहले हो जाते हैं। चुनाव के दौरान यानी आचार संहिता की अवधि में उनको लागू करने पर कोई रोक नहीं होती है। अब तो आचार संहिता की अवधि में नकद पैसे खातों में भेजने पर भी रोक नहीं है। अगर कोई इमरजेंसी की स्थिति बनती है तो आचार संहिता की अवधि में चुनाव आयोग की सहमति से सरकारें फैसला कर सकती हैं। हां, एक साथ चुनाव कराने पर खर्च थोड़ा कम होगा लेकिन लोकतंत्र की मजबूती के लिए इतना खर्च कोई ज्यादा नहीं है। ध्यान रहे दो बार चुनाव का मौका मिलने से पार्टियों और सरकारों के ऊपर जनता का दबाव रहता है और वे जन कल्याण के फैसले करने के लिए बाध्य होते हैं। हां, यह हो सकता है कि अमेरिका की तरह मध्यावधि का एक चक्र बने। कोई उपाय करके चुनाव के दो चक्र बनाए जा सकते हैं। यानी लोकसभा जब मध्यावधि में पहुंचे तो राज्यों में चुनाव हों।

जहां तक परिसीमन का मामला है तो नह निश्चित रूप से एक जरूरी कदम है। लोकसभा की संख्या 50 साल से ज्यादा समय से फिक्स है और इस अवधि में देश की आबादी दोगुने से ज्यादा बढ़ चुकी है। उसके अनुपात में सीटों की संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए। लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उत्तर और दक्षिण का संतुलन नहीं बिगड़े। वैसे परिसीमन को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्थिति स्पष्ट कर दी है। उन्होंने कहा है कि प्रो राटा बेसिस पर सीटों की संख्या बढ़ाई जाएगी। इसकी मतलब है कि हर राज्य की सीट समान अनुपात में बढ़ेगी। अगर 20 फीसदी बढ़ोतरी उत्तर प्रदेश में होती है तो 20 फीसदी ही बढ़ोतरी तमिलनाडु में भी की जाएगी। इस तरह से मौजूदा संतुलन ही बना रहेगा। इस हिसाब से ही नई संसद में बैठने की व्यवस्था भी की कई है।

लेकिन इन तीन सुधारों के अलावा कई जरूरी सुधारों की आवश्यकता है। इनमें से कुछ सुधार तो पार्टियां खुद ही कर सकती हैं। जैसे पार्टियों को तय करना चाहिए कि वे आपराधिक छवि के लोगों को टिकट नहीं देंगी। आपराधिक छवि के लोगों को चुवाव लड़ने से रोकने का कानून बनाना ठीक नहीं होगा लेकिन अगर पार्टियां सचमुच चाहती हैं कि साफ सुथरी राजनीति हो तो वे खुद ही इसे सुनिश्चित कर सकती हैं। कोई 25 साल पहले चुनाव आयोग ने एक पहल की थी और सभी उम्मीदवारों के लिए हलफनामा देकर शैक्षणिक योग्यता, संपत्ति का ब्योरा और आपराधिक मुकदमों का ब्योरा देना अनिवार्य किया था। लेकिन इसका कोई फायदा नहीं है। वह एक बोझ बन गया है। यह नियम लागू होने के बाद भी आपराधिक छवि के लोगों की संख्या संसद और विधानसभा में बढ़ गई। करोड़पतियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है और कम पढ़े लिखे लोगों का भी विधायिका में पहुंचना जारी है। सो, यह सुधार राजनीतिक दलों को करना है।

एक बड़ा सुधार चुनाव से पहले मुफ्त की घोषणाओं को रोकमे का जरूरी है और दूसरा चुनाव में बेहिसाब खर्च को नियंत्रित करना जरूरी है। सभी पार्टियों की सहमति से ऐसा हो सकता है। पार्टियों को सोचना चाहिए की मुफ्त की योजनाओं से राज्यों की आर्थिक सेहत बिगड़ रही है। बुनियादी ढांचे के विकास का काम प्रभावित हो रहा है। शोध, विकास और शिक्षा व स्वास्थ्य से जुड़ी परियोडनाएं ठप्र्प हो रहा है। अगर समय रहते इसे नहीं रोका गया तो स्थिति और बिगड़ सकती है। इसी तरह चुनाव आयोग ने लोकसभा में 95 लाख और विधानसभा में 40 लाख रुपए खर्च की सीमा तय की है। उसे भी पता है और सभी पार्टियों को पता है कि इसका पालन नहीं होता है। इसे कैसे ठीक किया जाए इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। सबसे ऊपर चुनाव आयोग की तटस्थता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के उपायों पर विचार होना चाहिए। लेकिन चुनाव सुधार पर चर्चा के पहले दिन तो लोकसभा में सिर्फ आरोप प्रत्यारोप हुए हैं।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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