विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ को एक समन्वय समिति की जरुरत है ताकि वह संसदीय रणनीति बनाने के अलावा राजनीतिक रणनीति भी बेहतर तालमेल के साथ बना सके। लोकसभा चुनाव के बाद एक साल में विपक्षी गठबंधन संसद में तो कामचलाऊ तालमेल बना लेता है क्योंकि वहां मल्लिकार्जुन खड़गे राज्यसभा में विपक्ष के नेता हैं और कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं। इसलिए उनके बड़े कद की वजह से संसद सत्र के दौरान विपक्षी पार्टियां उनके चैम्बर में जमा हो कर फ्लोर कोऑर्डिनेशन की मीटिंग कर लेती हैं। हालांकि उसमें भी कई बार ऐसा हुआ कि तृममूल कांग्रेस ने अलग लाइन पकड़ ली तो कई बार समाजवादी पार्टी अलग रास्ते पर चलने लगी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इन पार्टियों के साथ राजनीतिक समन्वय बनाए रखने का कोई ठोस तंत्र नहीं हैं। कह सकते हैं कि ऐसा कोई तंत्र एनडीए में भी नहीं है। लेकिन एनडीए सत्ता में है। केंद्र के साथ साथ 20 राज्यों में उसकी सरकार है। इसलिए उसको समन्वय के लिए अलग से किसी राजनीतिक बॉडी की जरुरत नहीं है। यह जरुरत विपक्ष को है। एनडीए में सरकार के समन्वय से ही राजनीति भी सधती है।
विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के गठन के समय से ही इस बात की चर्चा चल रही है कि एक समन्वय समिति होनी चाहिए। एक अध्यक्ष होना चाहिए। एक संयोजक भी होना चाहिए। गठबंधन का एक सचिवालय दिल्ली में होना चाहिए। लेकिन जून 2023 से दो साल बीत गए और तब से चल रही इस चर्चा का अंत अभी तक नहीं आया। 2023 में ही मुंबई में हुई बैठक में एक अनौपचारिक समन्वय समिति बनाई गई थी, जिसमें 13 नेता रखे गए थे। उसकी एक बैठक दिल्ली में शरद पवार के घर पर हुई थी। यह तब की बात है, जब नीतीश कुमार भी ‘इंडिया’ ब्लॉक में थे और उनकी पार्टी के नेता संजय झा को समन्वय समिति में रखा गया था। ‘इंडिया’ ब्लॉक के अध्यक्ष और समन्वयक के नाम पर हुए विवाद को ही नीतीश कुमार के अलग होने का तात्कालिक कारण माना जाता है। हालांकि उनके अलग होने के और दूसरे बड़े कारण थे। शरद पवार के नेतृत्व में उनके आवास पर ‘इंडिया’ ब्लॉक की समन्वय समिति की जो एकमात्र बैठक हुई वह भी तात्कालिक मुद्दों को लेकर थी। उसमें भी गठबंधन की रूपरेखा को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई। उसके बाद से समन्वय समिति का क्या हुआ यह किसी को पता नहीं है। हैरानी है कि गठबंधन बिखरा जा रहा है और किसी को इसकी जरुरत भी महसूस नही हो रही है।
बहरहाल, विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की 16 पार्टियों ने पिछले दिनों दिल्ली में बैठक की है और सरकार को चिट्ठी लिखी है कि वह ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाए। क्या इस बैठक के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘इंडिया’ ब्लॉक एकजुट है और पी चिदंबरम ने इसको लेकर जो चिंता जताई थी वह गलत है? ऐसा नहीं कहा जा सकता है। यह बैठक भी संसदीय रणनीति से जुड़ी बैठक थी। इसमें भी वही चेहरे थे, जो संसद सत्र के दौरान फ्लोर कोऑर्डिनेशन के लिए खड़गे के चैम्बर में जुटते हैं। यह बैठक भी संसद का सत्र बुलाने के लिए थी। ऐसा नहीं था कि इसमें किसी राजनीतिक रणनीति को लेकर बात हुई या बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर रणनीति बनी या अगले साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में पार्टियों के तालमेल और सीट बंटवारे को लेकर कोई चर्चा हुई। वही डेरेक ओ ब्रायन, वही मनोज झा बैठे और सरकार को चिट्ठी लिखी कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए। विपक्षी गठबंधन की जरुरत इससे आगे की है।
इस बैठक में भी शरद पवार की पार्टी नहीं पहुंची और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी नदारद रही। कोई पक्के तौर पर नहीं कह रहा है कि ऐसा क्यों हुआ? डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि आम आदमी पार्टी की ओर से अलग से प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी जाएगी। शरद पवार के बारे में कहा जा रहा है कि वे चूंकि वे ऑपरेशन सिंदूर पर विशेष सत्र के खिलाफ हैं इसलिए उनकी पार्टी का कोई नेता बैक में शामिल नहीं हुआ है। लेकिन साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि शरद पवार भाजपा से तालमेल की संभावना पर विचार कर रहे हैं। उनके सामने दो विकल्प हैं। पहला, वे अपनी पार्टी का विलय भतीजे अजित पवार की पार्टी में कर दें और दूसरा, विलय नहीं करके सीधे भाजपा से तालमेल कर लें। दोनों ही स्थितियों में भाजपा को दिक्कत नहीं है। अगर वे सीधे तालमेल करके हैं तब भी आठ अतिरिक्त लोकसभा सांसदों का समर्थन एनडीए सरकार को मिल जाएगा। आम आदमी पार्टी के भाजपा के साथ जाने की संभावना नहीं है लेकिन सोची समझी योजना के तहत उसने कांग्रेस से दूरी दिखानी शुरू की है। हरियाणा और दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस और आप की जो राजनीति हुई है उसके बाद पंजाब का चुनाव दोनों के लिए और गठबंधन के लिए भी बहुत अहम है।
जिस तरह का टकराव कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच दिख रहा है वैसा टकराव कई और पार्टियों के साथ है। कांग्रेस और लेफ्ट के बीच अगले ही साल केरल में घमासान होना है। इसी तरह कांग्रेस, लेफ्ट और तृणमूल कांग्रेस को पश्चिम बंगाल के बारे में फैसला करना है। जाहिर है संसद की एकजुटता पश्चिम बंगाल, केरल या पंजाब में नहीं चल सकती है। वहां व्यावहारिक राजनीतिक फैसला होना है, जो जमीनी फीडबैक पर आधारित होगा। अगर विपक्ष का गठबंधन यानी ‘इंडिया’ ब्लॉक का अस्तित्व है और उसका मकसद भाजपा को रोकना है तो इन तीनों राज्यों की राजनीति पर गठबंधन के अंदर बातचीत होनी चाहिए। लेकिन इसकी कोई संभावना नहीं दिख रही है। अगर कुछ तालमेल की बात करनी भी होगी तो संबंधित पार्टियां आपस में बातचीत कर लेंगी। सवाल है कि फिर ‘इंडिया’ ब्लॉक की जरुरत क्या है? क्या सिर्फ संसद की कार्यवाही के दौरान फ्लोर कोऑर्डिनेशन के लिए यह समूह रह गया है?
यह सवाल इसलिए भी है कि जिस तरह की गड़बड़ी दिल्ली और हरियाणा के चुनाव में गठबंधन की सहयोगियों ने की वैसी ही गड़बड़ी बिहार में होती दिख रही है। हालांकि बिहार में महागठबंधन नाम से विपक्षी पार्टियों का गठबंधन है और राजद, कांग्रेस, वीआईपी, सीपीआई माले, सीपीआई और सीपीएम के नेता साथ मिल कर लड़ने की बात कर रहे हैं। लेकिन चुनाव से पांच महीने पहले भी सभी पार्टियां अलग अलग राजनीति कर रही हैं। कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी लगातार बिहार के दौरे कर रहे हैं लेकिन उनके किसी भी कार्यक्रम में राजद या लेफ्ट को शामिल नहीं किया जा रहा है। राजद के ऊपर दबाव बनाने के लिए कांग्रेस अकेले चलने की राजनीति कर रही है। इस साल बिहार में चुनाव हैं और उसके नतीजों का असर अगले साल होने वाले पांच राज्यों के चुनाव पर पड़ेगा। खासतौर से पश्चिम बंगाल और असम के चुनाव पर। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस के इमरान मसूद जैसे नेता बेवजह समाजवादी पार्टी पर दबाव बनाने के लिए अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं। बिहार से लेकर बंगाल और उत्तर प्रदेश तक विपक्ष को एकजुट होकर लड़ने की जरुरत है लेकिन ‘इंडिया’ ब्लॉक के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं है, जिसके जरिए लगातार समन्वय की बात होती रही। संसद की कार्यवाही के दौरान होने वाली बैठकों से इतर चुनावी राजनीति पर विचार करने और उसकी रणनीति बनाने के लिए एक तंत्र की जरुरत विपक्ष को है।