लुटनिक ने कहा कि भारत ने रूस से हथियार खरीद कर अमेरिका को नाराज किया है। इसके अलावा वह ब्रिक्स का सदस्य है, जिसका मकसद डॉलर को चुनौती देना है। उन्होंने कहा- इन मामलों में भारत को राह बदलनी होगी।
यह संकेत तो पहले से था कि डॉनल्ड ट्रंप के टैरिफ वॉर का मकसद सिर्फ आयात शुल्क में रियायतें पाना नहीं है। बल्कि इसके जरिए वे विश्व व्यापार और यहां तक कि भू-राजनीति को भी अमेरिकी हित में पुनर्गठित करना चाहते हैं। इसमें रहे-सहे संदेह को भी उनके वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक ने दूर कर दिया है। उन्होंने कूटनीतिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाते हुए वो शर्तें दो-टूक बताईं, जो अगर भारत अमेरिका के ‘गुड बुक’ में रहना चाहता है, तो उसे माननी होगी। यूएस- इंडिया स्ट्रेटेजिक फोरम को संबोधित करते हुए लुटनिक ने कहा कि भारत ने रूस से हथियार खरीद कर अमेरिका को नाराज किया है। इसके अलावा वह ब्रिक्स का सदस्य है, जिसका मकसद डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देना है।
उन्होंने दो टूक कहा कि इन दोनों मामलों में भारत को राह बदलनी होगी। इसके अलावा उन्होंने भारत को यह नुस्खा भी दिया कि वह अपनी अर्थव्यवस्था को और अधिक उपभोग केंद्रित करे- यानी निवेश बढ़ाने के चक्कर में ना पड़े। विदेश नीति पर निर्णय और अर्थव्यवस्था की दिशा तय करना देशों का संप्रभु अधिकार है। मगर ट्रंप प्रशासन खुल कर तमाम देशों को नीति और दिशा बता रहा है। मगर ये ध्यान में रखना चाहिए कि हाल में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जो हथियार भारत के सर्वाधिक काम आए, वो ब्रह्मोस मिसाइलें और एस-400 इंटरसेप्टर हैं। इन दोनों का संबंध रूस से है। आगे भारत को लड़ाकू विमान खरीदने हैं।
भारत को चयन अमेरिका के एफ-35 और रूस के सुखोई-57 के बीच करना है। रूस अपने विमान की तकनीक ट्रांसफर करने को भी तैयार है, जबकि अमेरिका ऐसा किसी के साथ नहीं करता। दूसरी अहम बात यह कि भारत ग्लोबल साउथ का हिस्सा है, जिसके बीच समन्वय का प्रभावी मंच आज ब्रिक्स है। क्या उससे अलग होना भारत के फायदे में होगा? जहां तक उपभोग केंद्रीयता की बात है, तो आम समझ यही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में पहले ही इसका आधिक्य हो चुका है। क्या इसके बावजूद भारत लुटनिक का फॉर्मूला मानेगा? इसके संकेत हमें लड़ाकू विमानों पर फैसले और अगले महीने तय ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान मिल जाएंगे।


