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इंडिगो संकटः मनमानी, निकम्मेपन की मिसाल

भारत में अब किसी भी घटनाक्रम की, चाहे वह एक बड़े संकट के रूप में क्यों न प्रकट हुआ है, तर्कसंगत या तथ्यात्मक व्याख्या नहीं होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश राजनीतिक रूप से इतना विभाजित इतिहास में कभी नहीं रहा है। पूरा देश मोदी समर्थन या मोदी विरोध में बंटा हुआ है। तभी हर घटनाक्रम की व्याख्या इसी बाइनरी में होती है। मोदी विरोधी हर घटनाक्रम को एक निर्धारित दिशा में ले जाने का प्रयास करते हैं। उनकी सारी व्याख्या एक ऐसे आइडियोलॉजिकल कंस्ट्रक्ट पर आधारित होती है, जो राहुल गांधी या कांग्रेस के इकोसिस्टम द्वारा रची गई है। इंडिगो संकट की व्याख्या भी उसी संरचनावादी सिद्धांत के आधार पर हो रही है।

अच्छे खासे पढ़े लिखे समझदार लोग बता रहे हैं कि 27 नवंबर को अडानी समूह ने फ्लाइट सिमुलेशन टेक्नीक सेंटर यानी एफएसटीसी का अधिग्रहण किया है। यह देश की सबसे बड़ा पायलट ट्रेनिंग संस्था है। अडानी समूह ने 820 करोड़ रुपए में इस कंपनी में 72 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी है। इस सौदे को इंडिगो संकट से जोड़ा जा रहा है। यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि अब देश में जल्दी ही 20 हजार से ज्यादा पायलटों की जरुरत होने वाली है और उसकी आपूर्ति अडानी के मालिकाना वाले एफएसटीसी से होगी।

सवाल है कि क्या 20 हजार पायलट की जरुरत होगी और अडानी ने पायलट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट का अधिग्रहण किया है इसलिए इंडिगो का इतना बड़ा संकट खड़ा कराया गया है ताकि पायलट की कमी पर फोकस बने और अडानी को पचास, सौ करोड़ रुपए की कमाई हो जाए? यह बहुत बेकार का तर्क है। इंडिगो संकट की वैचारिक खांचे से व्याख्या करने वाले इस समूह का दूसरा निष्कर्ष यह है कि इंडिगो का संचालन करने वाली इंटरग्लोब ने 36 करोड़ रुपए के और उसके प्रमोटर राहुल भाटिया ने 20 करोड़ रुपए के इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीदे, जिनमें से ज्यादातर बॉन्ड भाजपा को दिए गए। तो क्या इस  रुपए के बदले में भाजपा की केंद्र सरकार ने इंडिगो को इतना बड़ा संकट खड़ा करने की इजाजत दी? यह निष्कर्ष पूरी तरह से गलत नहीं है तब भी अधूरा है। हो सकता है कि चंदे के लिहाज में सख्त कार्रवाई नहीं हुई हो लेकिन संकट इस वजह से खड़ा नहीं हुआ।

असल में इंडिगो का संकट नागरिक विमानन मंत्रालय व नागरिक विमानन महानिदेशालय यानी डीजीसीए और व्यापक रूप से केंद्र सरकार के निकम्मेपन और एकाधिकारवादी निजी कंपनी इंडिगो की मनमानी का नतीजा है। अगर मौजूदा संकट की बात करें तो सरकार का निकम्मापन यह है कि उसने मार्च 2024 में एक नियम बनाया और उसे लागू करने के लिए एक जुलाई 2025 और एक दिसंबर 2025 की डेडलाइन तय की और इतना समय देने के बाद भी इसे ठीक तरीके से लागू नहीं करा पाई। सवाल है कि क्या डीजीसीए को पता नहीं है कि देश के विमानन सेक्टर में करीब 65 फीसदी का हिस्सा रखने वाली और हर दिन 23 सौ उड़ानें संचालित करने वाली इंडिगो के पास पर्याप्त संख्या में पायलट नहीं हैं? निश्चित रूप से डीजीसीए को इसकी पूरी जानकारी थी क्योंकि उसके पास इस बात का पूरा आंकड़ा है कि देश में पायलट ट्रेनिंग के कितने इंस्टीट्यूट्स को मान्यता दी गई है, उनमें से प्रशिक्षित होकर कितने पायलट्स निकल रहे हैं और कितने लोगों को इंडिगो में नौकरी मिल रही है।

उसे यह भी पता है इंडिगो के पास कितने जहाज हैं, कितनी उड़ानें हैं और कितने पायलट्स हैं। फिर भी उसने फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशंस यानी एफडीटीएल नियम लागू किया तो इसका रत्ती भर प्रयास नहीं किया कि सबसे बड़ी विमानन कंपनी इसे लागू करने की तैयारी शुरू करे। इसी साल अक्टूबर में डीजीसीए ने पर्याप्त पायलट ट्रेनिंग नहीं होने के लिए इंडिगो के ऊपर जुर्माना लगाया था। जाहिर है उसको पता है कि एफडीटीएल नियम को लागू करने के लिए इंडिगो ने कोई तैयारी नहीं की है। फिर भी उसने इंडिगो को तैयारी के लिए बाध्य नहीं किया और न समय रहते समय सीमा बढ़ाने का फैसला किया।

यही पर इंडिगो की मनमानी की बात आती है। डीजीसीए ने तमाम संबंधित पक्षों यानी विमानन कंपनियों से सलाह मशविरा करके एफडीटीएल नियम तैयार किया और लागू करने की तारीख तय की। बाकी कंपनियां, जिनके पास कम जहाज हैं उन्होंने पर्याप्त संख्या में पायलट नियुक्त किए। तभी एक दिसंबर को एफडीटीएल नियम लागू होने का असर उनकी सेवाओं पर नहीं पड़ा। आखिर एयर इंडिया की भी हर दिन एक हजार से ज्यादा उड़ानें होती हैं। लेकिन वहां पायलट और चालक दल की कमी से उड़ानें रद्द नहीं हुईं। जाहिर है इंडिगो ने सबसे बड़ी कंपनी होने और भारत के आकाश पर एकाधिकार होने के अहंकार में न तो पायलट भर्ती की और न चालक दल के अन्य सदस्यों की पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की।

उसको विश्वास था कि वह बांह मरोड़ कर सरकार से मनमाफिक फैसला करा लेगी। उसने वही किया। उसने नए नियम लागू करने की बजाय उड़ानें रद्द करनी शुरू कर दी। उसने पांच दिसंबर को डेढ़ हजार से ज्यादा उड़ानें रद्द की थीं, जिसके बाद सरकार पीछे हटी। उसको पता था कि यात्री परेशान होंगे तो सरकार पीछे हटेगी। सो, उसने लाखों यात्रियों को जान बूझकर परेशान किया और सरकार को झुकाया।

यह बहुत खतरनाक प्रवृत्ति का इशारा है और सिर्फ एक सेक्टर का संकट नहीं है। जिस तरह समय के साथ विमानन सेक्टर में एक कंपनी का एकाधिकार बना है वैसे ही ऊर्जा से लेकर संचार और सीमेंट, हवाईअड्डा व बंदरगाहों से लेकर खाने पीने की चीजों तक चुनिंदा कंपनियों का एकाधिकार बना है। एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था बनाने में सीधे तौर पर सरकार का हाथ है तो उन एजेंसियों का भी हाथ है, जिनकी जिम्मेदारी इन बातों पर निगरानी करने की है। सोचें, भारत में एक प्रतिस्पर्धा आयोग भी है, लेकिन हर जगह प्रतिस्पर्धा समाप्त होती जा रही है या की जा रही है और यह आयोग कुछ नहीं करता है। इसके बरक्स अमेरिका के एंटी ट्रस्ट कानून और उसे लागू कराने वाली एजेंसी को देखें तो फर्क साफ नजर आएगा। वहां नेटफ्लिक्स ने वार्नर ब्रदर्स को खरीदा है तो एंटी ट्रस्ट कानून के तहत उसकी समीक्षा हो रही है। लेकिन भारत में ऐसी कोई पहल नहीं होती है।

अगर सिर्फ विमानन सेक्टर को देखें तो 2012 में किंगफिशर एयरलाइंस बंद हो गई। उसके बाद 2018 में जेट एयरवेज दिवालिया हो गई और पांच साल बाद 2023 में गो एयर बंद हो गई। और इसी बीच भारत सरकार ने अपनी कंपनी औने पौने दाम में टाटा समूह को बेच दी। उससे पहले सहारा एयरलाइंस, डेक्कन और एमडीएलआर जैसी कई विमानन कंपनियां बंद हुई थीं। एक तरफ विमानन कंपनियां धड़ाधड़ बंद हो रही थीं और दूसरी ओर सरकार उड़ान योजना के तहत छोटे शहरों में हवाईअड्डे बनाने या बड़े हवाईअड्डों के निर्माण और कनेक्टिविटी की घोषणा करने में लगी थी। आखिर सरकार ने सोचा क्यों नहीं कि 10 साल बाद विमानन का परिदृश्य कैसा होगा? कितने विमानों, कितने पायलटों, चालक दल के सदस्यों, हवाईअड्डों आदि की जरुरत होगी? विमानन मंत्रालय और डीजीसीए ने इस बारे विचार ही नहीं किया।

अगर विचार किया होता तो जेट एयरवेज को रिवाइव करने की कोशिशों को कामयाब बनाया जाता। गो एयर के विमान अलग अलग हवाईअड्डों पर खड़े हैं उनको चालू कराने की कोशिश की गई होती। आखिरी सरकार आइडिया और वोडाफोन के कर्ज को इक्विटी में बदल कर उसे बार बार राहत दे रही है। क्या वैसी राहत विमानन सेक्टर की कंपनियों को नहीं दी जा सकती है? यह सही है कि इंडिगो का एकाधिकार सरकार ने नहीं बनवाया है। उसने बेहतर प्रबंधन से एकाधिकार बनाया लेकिन किराए से लेकर सेवा की खराब गुणवत्ता तक में सरकार और डीजीसीए ने उसकी मनमानियों की अनदेखी की है, जिससे ऐसी स्थिति पैदा हुई।

By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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