पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। इन सभी राज्यों के उम्मीदवारों की सूची देखने पर बहुत दिलचस्प तस्वीर उभर कर आती है। चाहे देश की सबसे पुरानी पार्टी हो या दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी हो या सबसे कम समय में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने वाली पार्टी हो या बहुजन की पार्टी हो सबने खुले दिल से दलबदल करने वालों को टिकट दी है। कई उम्मीदवार तो ऐसे हैं, जिनको अपनी पार्टी छोड़ने के 24 घंटे के अंदर दूसरी पार्टी से टिकट मिल गई।
एक पार्टी से कई कई बार विधायक रहे बड़े नेताओं ने पार्टी छोड़ी और दूसरी पार्टी ने उनके हाथों हाथ लिया। कई नेताओं ने दूसरी पार्टी से टिकट की गारंटी लेने के बाद ही अपनी पार्टी छोड़ी। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में दिख रहा है। इसी साल मई में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा के दिग्गज नेताओं ने पार्टी छोड़ी और कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़े।
भारत में इस समय दो किस्म से दलबदल हो रहे हैं। पहला चुनाव के समय टिकट हासिल करने के लिए और दूसरा चुनाव के बाद किसी समय सरकार बनाने के लिए। अगर अपनी पार्टी टिकट नहीं दे रही है तो दलबदल करके दूसरी पार्टी से टिकट ले लेना है ताकि चुनाव लड़ सकें। इस तरह राजनीति करने का अंतिम मकसद चुनाव लड़ना हो गया है। किसी कीमत पर चुनाव लड़ना है। अगर चुनाव नहीं लड़े तो राजनीति में होने का कोई मतलब नहीं है। इसके बाद दूसरा सबसे बड़ा मकसद चुनाव जीतने के बाद सरकार में शामिल होना है। अगर सरकार में शामिल नहीं हुए तब विधायक बनने का कोई मतलब नहीं है। तभी चुनाव से पहले और चुनाव के बाद खूब दलबदल हो रहे हैं। पिछले तीन साल में महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में जो राजनीतिक खेल हुआ वह इस किस्म के दलबदल की मिसाल है।
राजनीति करने वालों की इस मानसिकता का राजनीतिक दल खूब दोहन कर रहे हैं। वे दलबदल करने पर उनको टिकट देने का वादा करते हैं और चुनाव जीतने के बाद मंत्री या मुख्यमंत्री बनाने का वादा करते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने दलबदल करने वाले इतने लोगों को मुख्यमंत्री बनाया है कि लोग गिनती भूल जाएं। शिव सेना से अलग होने वाले एकनाथ शिंदे, कांग्रेस छोड़ने वाले हिमंत बिस्वा सरमा, मानिक साहा, पेमा खांडू आदि की मिसाल है। कर्नाटक में भी भाजपा ने कांग्रेस के पूर्व नेता बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया था। सो, दो बातें स्पष्ट हैं। पहली बात तो यह कि राजनीति करने का मतलब है चुनाव लड़ना और चुनाव जीतने का मतलब है सरकार में शामिल होना।
इस बात को एनसीपी के नेता अजित पवार ने एक सैद्धांतिक रूप दिया है। उन्होंने जब अपने चाचा की बनाई पार्टी एनसीपी तोड़ी और भाजपा के साथ जाकर सरकार में शामिल हुए तो इसे जस्टिफाई करते हुए कहा कि विकास करने के लिए जरूरी है कि सरकार में रहा जाए। उन्होंने सत्ता की अपनी लालसा को राज्य के विकास से जोड़ दिया। सोचें, अजित पवार 1999 से लेकर 2014 तक लगातार 15 साल सत्ता में रहे। फिर नवंबर 2019 से जून 2022 तक लगभग ढाई साल सत्ता में रहे।
इसके बाद भी महाराष्ट्र के विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ऐसी है कि उनसे एक साल भी सत्ता से बाहर नहीं रहा गया। वे जिस पार्टी के नेता के तौर पर साढ़े 17 साल सत्ता में रहे थे और राज्य का विकास कर रहे थे उसे छोड़ कर विरोधी गठबंधन में चले गए और राज्य के उप मुख्यमंत्री बन गए। तभी वे चाहे कुछ भी कहें किसी को इस बात पर यकीन नहीं होगा कि वे महाराष्ट्र का विकास करने के लिए दलबदल करके सरकार में शामिल हुए हैं। असली कारण सबको पता है। उन्होंने दलबदल को एक वैचारिक जामा पहनाने की कोशिश की है। लेकिन असल में यह एक झीना सा परदा है, जिसके आर-पार सबको सब कुछ दिख रहा है।
सोचें, क्या इस बात पर यकीन किया जा सकता है कि कोई नेता अगर विपक्ष में चला जाए तो उस राज्य का विकास नहीं हो सकता है? या कोई नेता एक बार विधायक न बने तो राज्य और वहां की जनता का विकास अवरूद्ध हो जाएगा? लेकिन नेता इन तर्कों से दलबदल करके दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ने और चुनाव जीत जाने के बाद दूसरी पार्टी के साथ जाकर सरकार बनाने के अनैतिक कृत्य को न्यायसंगत ठहराते हैं। अगर नेताओं को ऐसा करने में दिक्कत नहीं है तो पार्टियों को भी कोई परेशानी नहीं है।
उनके लिए वैचारिक प्रतिबद्धता, पार्टी के प्रति निष्ठा, ईमानदारी आदि का कोई मतलब नहीं रह गया है। उनके लिए एकमात्र जरूरी पैमाना यह है कि कोई नेता चुनाव जीत सकता है या नहीं या कोई जीता हुआ नेता सरकार बनाने के काम आ सकता है या नहीं। पार्टियां चुनाव के समय टिकट देने के लिए मजबूत और साधन सम्पन्न नेताओं की तलाश करती हैं। फिर इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है कि वह अपनी पार्टी का है या दूसरी पार्टी का या किसी पार्टी का नहीं है।
असल में अब राजनीति जनता की सेवा करने, समाज को बेहतर बनाने या प्रदेश और देश का विकास करने का माध्यम नहीं है। अब राजनीति वैचारिक प्रतिबद्धता की चीज भी नहीं है। राजनीति सत्ता हासिल करने और अपनी निजी महत्वाकांक्षाएं पूरी करने का माध्यम बन गई है। देश के राजनीतिक हालात को देखते हुए यह भी साफ दिख रहा है कि कोई भी नेता लम्बे समय तक सत्ता से दूर नहीं रह सकता है और न पार्टियां लम्बे समय तक सत्ता से दूर रहना अफोर्ड कर सकती हैं। जिन संवैधानिक संस्थाओं के ऊपर राजनीति की शुचिता बरकरार रखने की जिम्मेदारी है वे भी दुर्भाग्य से सत्ता के खेल का हिस्सा बन गई हैं।
विधानसभाओं के स्पीकर दलबदल करने वाले नेताओं की अयोग्यता का मामला महीनों या बरसों लटकाए रखते हैं। एक चुनाव से बाद दूसरा चुनाव आ जाता है और तब तक फैसला नहीं होता है। सर्वोच्च अदालत को इस बारे में समय सीमा तय करनी होती है। महाराष्ट्र में शिव सेना के विधायकों की अयोग्यता का मामला एक साल से ज्यादा समय से लम्बित है। वहां तो शिव सेना का उद्धव ठाकरे गुट सक्रिय है और बार बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रहा है तो अदालत भी इस पर कोई निर्देश आदि दे रही है। लेकिन झारखंड में तो तीन विधायकों की अयोग्यता का मामला करीब चार साल से लटका हुआ है और स्पीकर ने फैसला नहीं किया है।
पश्चिम बंगाल में भी यही हाल है। सोचें, जब पार्टियां दलबदल करने वाले नेताओं का स्वागत करने के लिए बाहें फैला कर खड़ी हैं, उनकी पसंद की जगह से टिकट देने और सरकार में मनपसंद जगह देने को तैयार हैं और संवैधानिक संस्थाएं उनकी अयोग्यता का फैसला बरसों तक लम्बित रखने को तैयार हैं तो फिर क्यों कोई नेता दलबदल करने से हिचकेगा? जब राजनीति ऐन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने का माध्यम है तो अनैतिक कुछ भी नहीं रह गया है और इसलिए दलबदल रूकने की कोई संभावना नहीं है।
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