nayaindia Hindu हम हिंदुओं का दिमाग!
गपशप

हम हिंदुओं का दिमाग!

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हम लोगों का भेजा विचित्र है। वह अनुभवों में गुजरता है लेकिन उन्हें वह आगा-पीछा बूझे और सोचे बिना भूलता जाता है। हम आपदाओं-विपदाओं का आए-दिन स्यापा लिए हुए होते हैं मगर ऐसे जैसे प्रोफेशनल रूदाली हो या लकीर के फकीर के क्रियाकर्म! मूर्खताओं की ऐसी-ऐसी बातें, ऐसे-ऐसे जुमले सुनने को मिलते हैं मानों दिमाग तयशुदा जुमलों का बक्सा हो। जैसे यदि बाढ़ आई है तो साजिश है। टमाटर महंगा है तो मियां मुस्लिम की शरारत है। ट्रेन दुर्घटना है तो मस्जिद वालों की कारस्तानी है। भीषण गर्मी है, प्रदूषण है, महंगाई है, बेरोजगारी है, अशांति-गृहयुद्ध वाले हालात हैं तो भाग्य-नियति पर ठीकरा है या फिर यह मूढ़ता कि चिंता न करें हमारी हस्ती कभी मिटी नहीं तो आगे भी नहीं मिटेगी। मुझे हाल में दिमागी चेतना (कॉन्शियसनेस) की एक रिपोर्ट देखने को मिली। मस्तिष्क के काम करने के तरीके, प्रक्रिया को मालूम करने की रिसर्च में वैज्ञानिक अब मानने लगे हैं कि जानवारों की हजारों प्रजातियां भी शायद चेतना लिए हुए हैं। जाहिर है पशु चेतना स्थितप्रज्ञ सी होगी। मतलब देख रहे हैं, फील कर रहे हैं, अनुभव भोग रहे हैं, पिंजरे में हैं, गुलाम हैं, अंधविश्वासी हैं, टुकड़े खाते हैं, भूखे मरते हैं तथा भयाकुल व भयभीत रहते हैं लेकिन दिमाग इतना चेतन नहीं जो अनुभव को सत्य की कसौटी पर कस सके!

मतलब दिमाग इतना आगे-पीछे दौड़े कि टमाटर क्यों महंगा है, बाढ़ क्यों है? और अंततः जलवायु परिवर्तन का सूत्र पकड़े। या अपने आपको, अपनी व्यवस्था, अपने नेता को कटघरे में खड़ा करके इस सत्य तक पहुंचे कि तमाम अवसरों, ज्ञान-विज्ञान, आधुनिकताओं के बावजूद हम करोड़ो-करोड़ बेसुध-अचेतन के मारे बेचारगी से जी रहे हैं तो हम जानवर हैं या इंसान?

पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन का मारा है। और संभवतया आज का दिन पृथ्वी के जीवन का सर्वाधिक गर्म दिन होगा। अमेरिका, यूरोप, उत्तर-दक्षिण के ध्रुव, सभी महासागार, चीन, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया याकि पूरी मानवता जलवायु परिवर्तनों के दसियों दुष्परिणामों का अनुभव लेते हुए है। सभी विकसित देश इस बेसिक चिंता में हैं कि पृथ्वी की सेहत को दुरूस्त करने के लिए क्या किया जाए? दुनिया में बेमौसमी बाढ़, तूफान, गर्मी, चक्रवात, ग्लेशियर पिघलने आदि का आए दिन हाहाकार बना होता है लेकिन वैश्विक टीवी चैनलों को यदि देखें तो कहीं कोई नस्ल, भीड़, नेता, व्यवस्था वह आचरण करते दिखलाई नहीं देगी जैसे बाढ़, बारिश, भीषण गर्मी के अनुभवों में, इनकी आंखों देखी के बीच भारत के हम लोग देख-सुन-अनुभव कर रहे हैं!

सोचें, दिल्ली बाढ़ में डूबी तो साजिश है। साजिश करने वाली हरियाणा की भाजपा सरकार है या दिल्ली के उप राज्यपाल हैं या मुख्यमंत्री का निकम्मापन जिम्मेवार है! बाढ़, आपदा-विपदा में पशुओं की जैसी लाचारगी होती है वैसे ही भारत में इंसानों की है। मरते हैं तो मरें! फंसते हैं तो फंसें। विनाश हो रहा है तो हो। मानो सालाना इवेंट है। एक आम बात है। एक सुर्खी है। मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से घूमेंगे, आपदा एजेंसियां नाव-राहत सामग्री लेकर फोटो खिंचवाती दिखलाई देंगी। टीवी एंकर पानी में खड़े हो कर अपने आप को तीसमार खां दिखलाने की होड़ करते हुए होंगे। उधर नेता और सत्तावान प्रेस कांफ्रेंस करते हुए कि बाढ़ के लिए कौन सी पार्टी, कौन सी सरकार जिम्मेदार है जैसी बातें करते मिलेंगे।

ऐसा वैश्विक चैनलों में, वैश्विक व्यवहार में देखने को नहीं मिलेगा। इसलिए क्योंकि उन विकसित देशों ने प्रकृति को, मतलब जड़ कारणों को जानते हुए कौम का व्यवहार बनाया हुआ है। सिस्टम बनाया हुआ है। हाल में ब्रिटेन में महंगाई से खूब हाहाकार था। कल ही नाइजीरिया के नए राष्ट्रपति ने महंगाई की बेहाली पर देश में आपातकाल घोषित करके कई कदम उठाए। मगर ऐसी बेहूदगी नहीं दिखी जो टमाटर की महंगाई के लिए सब्जी बेचने वाले मुसलमान को विलेन बताएं या बाढ़ आई है तो वेल्स का मुख्यमंत्री स्कॉटलैंड की दूसरी पार्टी की सरकार को दोषी करार दे। जबकि भारत में यह मैंने कई बार सुना है कि ब्रह्मपुत्र के पानी से असम बाढ़ में डूबता है तो चीन पर ठीकरा फूटता है कि वह बेलगाम पानी छोड़ रहा है।

रियलिटी है कि बेमौसम बारिश, तूफान से सब्जियों की पैदावार को नुकसान हुआ है। ऐसे में टमाटर महंगा हो या प्याज तो दोष न सरकार का है और न व्यापारी का। सरकार, मौसम विभाग और मीडिया और खुद लोगों के पास अब गूगल, वैश्विक सूचना सोर्स से जानकारी लेना संभव है कि पश्चिमी विक्षोभ, अल नीनो से बारिश और मानसून के तेवर नॉर्मल नहीं रहेंगे। यह तो गनीमत है जो पाकिस्तान ने फ्लड गेट खोले हुए है (हालांकि मीडिया में चर्चा नहीं है) अन्यथा जम्मू कश्मीर, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली जल सैलाब में और बुरी तरह डूबे हुए होते। पाकिस्तान ने पिछले साल भयावह बाढ़ झेली है। वह भी जान चुका है कि पूरा दक्षिण एशिया आर्द्रता और गर्मी की भीषणता में लगातार तरबतर रहना है। पृथ्वी की बीमार सेहत का सर्वाधिक मारा दक्षिण एशिया होगा, इस वैज्ञानिक सत्य पर मैं भी लिख चुका हूं और वैश्विक मीडिया लगातार चेताता हुआ है। अब अनुभव से भी हर व्यक्ति की खोपड़ी में यह बात जमा हो जानी चाहिए कि भविष्य में मौसम की मार लगातार भारी होगी।

इसके सबके बजाय स्यापा है कि दिल्ली की बाढ़ के लिए भाजपा दोषी या आप सरकार दोषी? टमाटर के लिए मियां लोग दोषी! भारत में हर अनुभव का ऐसा ही सरलीकरण है। जैसे पालतू तोते जुमलों और आचरण का रट्टा जीवन जीते हैं वैसे ही हमारा रट्टा जीवन है। कोविड आया तो ठीकरा फूटा तबलीगी जमात पर! मणिपुर अभी गृहयुद्ध के कगार पर है तो चीन और चर्च की साजिश दिखलाई दे रही है। जम्मू कश्मीर में आतंकवादी वारदात होती है तो पाकिस्तान पर ठीकरा फूट जाता है! महंगाई है तो व्यापारी मुनाफाखोर! भूखमरी-बेरोजगारी तो सरकार जिम्मेवार! कानून-व्यवस्था बिगड़ी हुई है, अपराध बेलगाम है तो पुलिस दोषी या अदालतें। खालिस्तानी प्रदर्शन कर रहे हैं तो कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया आदि की सरकारें भारत विरोधी!

निःसंदेह जैसी प्रजा वैसा राजा और वैसी व्यवस्था तथा दिमाग। पूरा कुआं ही जब भांग की बेसुधी का नशा लिए हुए है तो हनुमानजी यदि मानव सभ्यता के नंबर एक कूटनीतिज्ञ दिखलाई देंगे वही नरेंद्र मोदी भगवान तो शरद पवार भी भगवान!

विषयांतर हो रहा है लेकिन सचमुच सोचें कि प्रकृति के अजब व्यवहार, बेमौसम बारिश-भीषण गर्मी और तमाम तरह की चुनौतियों व संकटों के बीच हम हिंदू क्या कभी अपने आप पर विचार की क्षमता लिए दिखलाई दिए हैं? सोचें, देश की राजधानी दिल्ली, मिलेनियम सिटी ग्रुरूग्राम, मुंबई आदि के मद्देनजर हम लोगों ने नौ वर्षों में स्मार्ट सिटी का कितना हल्ला सुना? अरबों रुपए खर्च हुए, मगर इतना मामूली काम भी नहीं जो बेइंतहां खर्च से बिछा भूमिगत ड्रेनेज सिस्टम बारिश के पानी को फटाफट यमुना में या समुद्र में फेंके। कुछ घंटों की बारिश में, नदी के चढ़ाव में हाईवे ऐसे बह रहे हैं जैसे कच्चे पहाड़, बहाव, कटाव आदि को ध्यान में रखकर डीपीआर बनी ही नहीं हो!

दिमाग की समस्या के कारण ही भारत में न प्लानिंग सही संभव है और न प्रोजेक्ट ठोक बजाकर बनते हैं। देश का आधुनिकतम-नवीनतम चंडीगढ़ और मोहाली इतने डूबे दिखलाई दिए कि समझ ही नही आया कि 21 वीं सदी की कथित प्लानिंग यदि चंडीगढ़-पंजाब में भी बहती हुई है तो यूपी-बिहार याकि उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम का शहरीकरण लोगों का कैसा विनाशकारी भविष्य लिए हुए है। गौर करें एक जानकार की इस बात पर कि चंडीगढ़ से सटी शिवालिक पहाडियों की तलहटी, का अधिकांश हिस्सा पहले मुख्य नदी (घग्गर और सहायक कौशल्या नदी, टांगरी, मारकंडा, बेघना और सुखना नदी) व उसकी सहायक नदियों का जलग्रहण क्षेत्र था। लेकिन उसमें बढ़ती आवासीय बसावट, औद्योगिक इकाइयों और सीवेज का बुरी तरह से अब कब्जा है। नक्शे पर नदियां दिखेंगी लेकिन नदी को मैदान पर ढूंढना मुश्किल होगा। इसलिए इतनी नदियों, पुराने नदी सिस्टम के बावजूद स्मार्ट सिटी के नालों को भी आगे पानी का रास्ता नहीं मिलता है।

हिसाब से मौसम विभाग में तमाम आधुनिक व आयातित उपकरण लगे हुए हैं। सो, जलवायु परिवर्तन और पश्चिमी विक्षोभ की परिघटना की गंभीरता-सघनता पर मौसम विभाग द्वारा प्रधानमंत्री दफ्तर तथा प्रदेशों के मुख्यमंत्री दफ्तरों को एडवांस में आगाह किया हुआ होना था। पर क्या मुख्यमंत्रियों को चेताया गया? और कितना पहले? क्या अरविंद केजरीवाल को मौसम विभाग से लेकर बाढ़ नियंत्रक एजेंसियों, अफसरों से समय पर आगाह करती हुई रिपोर्ट मिली थी?

लेकिन उत्तर भारत की ताजा अतिवर्षा व बरबादी आज की व भविष्य का हमारा रूटिन अनुभव है। आगे तो देश के किसी न किसी हिस्से में हमेशा प्रकृति का विनाश दिखेगा। इस कोर तथ्य-सत्य को पकड़ कर ही 140 करोड़ लोगों के दिमाग को चेतन बनना होगा। यह भी जान लें कि उत्तर भारत की अतिवर्षा पंजाब, हिमाचल, जम्मू कश्मीर और हरियाणा में धान की फसल को बरबाद कर चुकी है। उसका आगे खाद्यान आपूर्ति, महंगाई पर असर होगा। आने वाले दिनों में अल नीनो का अलग खेला होना है। मगर की फर्क पैंदा, सब चंगा सी! हम तो वैसे ही रहेंगे, दिमाग उसी सुषुप्त अवस्था में रहना है जैसे सदियों से चला आ रहा है!

क्या मैं गलत हूं?

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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