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तो फ़िलिस्तीन मिट जाएगा?

क्या होता है जब कोई राष्ट्र-राज्य मिट जाता है या मिटा दिया जाता हैं?  सामान्य जवाब है—कुछ भी नहीं। कुछ दिनों तक जरूर शोर-शराबा, टूटे दिल और एकजुटता के हैशटैग चलेगें। फिर भूलने की बीमारी आ जाती है। गायब होना स्मृति के किसी कोने में दर्ज होता जाता है। सामान्य ज्ञान की किसी एक पुस्तक, एक खंड में सिमट कर रह जाता है। राजनीति में प्रतिक्रिया थोड़ी भारी ज़रूर होती है, लेकिन उतनी ही खोखली। बड़े-बड़े शब्दों में निंदा, और उससे भी बड़े शब्दों में पलटवार। ठंडी, रोशन कमरों में गुनगुनी चाय के बीच प्रस्ताव लिखे जाते हैं, नीतियाँ बहस में फँसी रहती हैं, बयान पढ़े जाते हैं। और फिर—सन्नाटा। जो राज्य मिटा दिया गया, वह इतिहास और इतिहास की किताबों भर मे ही जीवित रहता है।

देश-राज्य सचमुच गायब होते हैं, हो चुके हैं। 1947 से पहले कितने देश, राजा-रजवाडे थे। कईयों को अंग्रेजों ने भी सिर पर बैठा रखा था। ऐसे ही पूरी दुनिया में इतिहास भरा हुआ है। पर राष्ट्र-राज्य कभी गर्जना के साथ, कभी लगभग बिन आवाज़, और कभी पूरी दुनिया की आँखों देखी मिट जात है। इतिहास हमें बताता है कि सरहदें रातों-रात खींची जा सकती हैं, हालांकि उनके परिणाम लंबे, खूनी और स्थायी भी होते हैं। और इस वक्त, एक ऐसा ही मिटाया जाने का मामला हमारी आँखों के सामने घट रहा है।

आज, फ़िलिस्तीन को मिटाए जाने का ख़तरा है। इज़रायल ने एक ऐसी बस्ती योजना को मंज़ूरी दी है, जो सिर्फ़ कब्ज़े के लिए नहीं बल्कि फ़िलिस्तीनी राज्य की धारणा को ही मिटाने के लिए बनाई गई है। यह है E1 प्रोजेक्ट, जो पश्चिमी तट (वेस्ट बैंक) को दो हिस्सों में बाँट देगा और उसे पूर्वी यरुशलम से काट देगा। पिछले हफ्ते इसकी घोषणा वित्त मंत्री बेज़ालेल स्मोट्रिच ने की, जो नेतन्याहू की सरकार के कट्टर राष्ट्रवादी धड़े से आते हैं। बुधवार को रक्षा मंत्रालय की योजना समिति ने इस पर अंतिम मुहर लगाई। स्मोट्रिच ने शब्दों के पीछे छिपने की कोशिश भी नहीं की। उनका ऐलान था: “फ़िलिस्तीनी राज्य मेज़ से हटा दिया गया है, नारे से नहीं, बल्कि काम से।”

जाहिर है यह पुरानी शैली का टैंकों और संधियों वाला अधिग्रहण नहीं है, बल्कि एक सुनियोजित नक़्शा है। सड़कों और बस्तियों को इस तरह खींचना कि ज़मीन बिखर जाए और राज्य पहचान धूमिल और मिट जाए। अगर यह लागू हुआ तो E1 प्रोजेक्ट पश्चिमी तट को उत्तर और दक्षिण में बाँट देगा, फ़िलिस्तीनी राज्य के फैलाव, निरंतरता मिटेगी और रामल्ला, पूर्वी यरुशलम और बेथलहम के बीच का शहरी गलियारा काट देगा।

यह भूगोल के साथ धीमी हिंसा है—मिटाना किसी नाटकीय आघात से नहीं, बल्कि सीमेंट, ज़ोनिंग कानूनों और ज़मीन पर “तथ्य गढ़ने” से होगा।

राष्ट्र-राज्यों को मिटते हुए हमने पहले भी देखा है। 1950 में जब चीन ने तिब्बत को निगल लिया, दुनिया ने नज़रें फेर लीं। बहुत दूर, बहुत जटिल, बहुत असुविधाजनक। पहाड़ों ने चीख़ों को दबा दिया। दुनिया का सबसे ऊँचा राष्ट्र चीन के एक प्रांत में बदल गया। मठ गोलाबारी में ढह गए, भिक्षु भूमिगत हो गए। जिन लोगों का अपना झंडा, अपनी लिपि, अपनी प्रार्थनाएँ थीं, उनसे कहा गया कि अब वे बस “चीनी” हैं। दलाई लामा हिमालय पार कर भारत आए। एक पल को लगा, दुनिया जाग उठेगी। लेकिन नहीं, सन्नाटा बना। होनी मान ली। तिब्बत नक्शों से मिटा दिया गया और निर्वासन में ठेल दिया गया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने उसे “खोई हुई लड़ाइयों” की श्रेणी में रख दिया। यहाँ तक कि भारत—जिसने दलाई लामा को शरण दी, जहाँ आज भी निर्वासित तिब्बती सरकार है, उसने भी तिब्बत को भुला सा दिया है। हम इसे तभी याद करते हैं जब बीजिंग को चुभाना हो, उसके मक़सद के लिए नहीं।

धर्मशाला में युवा भिक्षुओं के मंत्र, मैक्लॉडगंज में लहराते प्रार्थना झंडे—ये सब उस संघर्ष के अवशेष हैं जिसे भारत ने भुला दिया है। निर्वासन में जन्मे तिब्बतियों के लिए उनका वतन अब सिर्फ़ स्मृति और मिथक है—दादा-दादी की कहानियों में ल्हासा, गीतों में, अनुष्ठानों में जो भूगोल से आगे जीते हैं। बाक़ी दुनिया के लिए तिब्बत एक पर्यटक पोस्टकार्ड है, कोई राजनीतिक घाव नहीं। यही है मिटाए जाने का तरीका: दुनिया एक देश के बिना जीना सीख लेती है, भले ही उसके लोग उसे कभी भूलते नहीं।

इतिहास सिखाता है कि जब राष्ट्र-राज्य गायब होते हैं, दुनिया उसे होनी मान लेती है, रियलिटी में ढल जाती है। व्यापार फिर शुरू होता है, कूटनीति नए हिसाब से चलती है, नक़्शे नए बनते हैं, किताबें फिर लिखी जाती हैं। कुछ बड़ा नहीं होता—सिवाय उनके लिए जो अपना घर खो बैठते हैं। उनके लिए मिटाया जाना अंत नहीं, निर्वासन की शुरुआत है। हाँ, राज्य मिट जाते हैं, लेकिन पूरी तरह नहीं। वे स्मृतियों में, निर्वासन में, प्रवासी समाज में ज़िंदा रहते हैं। वे पहचान गढ़ते हैं, संघर्षों को जीवित रखते हैं, बहुत देर तक—जब दुनिया आगे बढ़ चुकी होती है। तिब्बती झंडे आज भी निर्वासन में लहराते हैं। दक्षिण वियतनाम आज भी प्रवासी मोहल्लों में साँस लेता है।

और इस तरह बात फिर फ़िलिस्तीन पर लौटती है। अगर इज़रायल अपना E1 प्रोजेक्ट पूरा कर लेता है—और संभावना यही है कि अमेरिका की सुपरपावर छतरी में यह होगा—तो हम फ़िलिस्तीन को कैसे याद करेंगे? एक वादा की हुई ज़मीन की तरह, अपने लोगों के निर्वासन की तरह, या एक ऐसे ग़ायब नक़्शे की पोस्टकार्ड की तरह? या फिर एक और भूतिया राज्य, जिसे दुनिया ने भूल जाना चुना—पर जिसके लोग कभी नहीं भूले?

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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