सितंबर 2025 के आख़िर से पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के मुज़फ़्फ़राबाद, रावलकोट, कोटली, नीलम एक-एक कर ठप पड़ गए। सड़कें बंद, आवाज़ें बेख़ौफ़, नारे गरजते हुए: “कश्मीर हमारा है, हमीं उसकी क़िस्मत का फ़ैसला करेंगे।” यह शोर नहीं, हताशा, निराशा और टूटना है। चालीस सालों में सबसे बड़े नागरिक उभारों में से एक सामने है मगर दुनिया सुविधाजनक चुप्पी ओढ़े है। सीएनएन (CNN) या बीबीसी (BBC) की कोई ब्रेकिंग अलर्ट नहीं। डीडब्ल्यू (DW) और अल जज़ीरा जैसे कुछ अपवाद छोड़ दें तो वैश्विक मीडिया ने पीओके से नज़र फेर ली। क्यों? क्या इसलिए क्योंकि यह वह कश्मीर है जो पाकिस्तान के जूते तले है। इसलिए यह कहानी दुनिया के चुने हुए स्क्रिप्ट में फ़िट नहीं बैठती।
वह स्क्रिप्ट क्या है?
तैयारशुदा वैश्विक आख्यान—भारत एक “अधिनायकवादी लोकतंत्र”, कश्मीर उसका स्थायी पीड़ित, और पाकिस्तान—कश्मीरियों का सदैव “हमीद” भाई। यह ढाँचा, ये जुमले आरामदेह, परिचित और बेचने में आसान है: थिंक टैंकों का चारा, सक्रियवाद की ऊर्जा, और पश्चिमी नैतिक श्रेष्ठता के लिए आईना। इसी से पाकिस्तान “कश्मीर के चैम्पियन, हितरक्षक” की चादर ओढ़े रखता है जबकि अपने कब्ज़े वाले कश्मीर में कश्मीरी आवाज़ों का गला घोंटता है।
पीओके इस द्विआधारी में नहीं समाता। अगर पीओके के जन विरोधों को स्वीकार ले तो यह भ्रम टूटेगा कि कश्मीरी पीड़ा सिर्फ़ भारतीय शासित हिस्से में है और पाकिस्तान की भूमिका “निर्दोष” है। इसका अर्थ यह मानना होगा कि इस्लामाबाद असहमति कुचलता है, कार्यकर्ताओं को जेल में डालता है, चुनावों में हेरफेर करता है, मीडिया को सेंसर करता है—और सेना के ज़रिये पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर लोहे की पकड़ बनाए रखता है। पीओके को देखना पाखंड का पर्दाफ़ाश करना है; उस पर रिपोर्ट करना सिर्फ़ पाकिस्तान ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया और “चयनात्मक आक्रोश” पर करियर बनाने वालों से भी सख़्त सवाल मांगता है।
यह असहज सत्य है कि दुनिया की नज़र में हर कश्मीरी पीड़ा बराबर नहीं—और मानवाधिकार वहीं बोला जाता है जहाँ भू-राजनीति इजाज़त दे।
इसलिए पीओके को कथा से गायब कर दिया जाता है—क्योंकि उसका दर्द राजनीतिक रूप से असुविधाजनक है।
यह उभार रातों-रात नहीं उठा। वहां 2023 में बिजली बिलों और गेहूँ की कमी पर ग़ुस्से से शुरुआत हुई। अगस्त तक यह जॉइंट अवामी एक्शन कमिटी (JAAC) के रूप में सहेजा गया—हर ज़िले के नागरिकों का गठजोड़। मई 2024 में उनका लोंग मार्च खूनी हो गया। 2025 में ग़ुस्सा फिर लौटा—इस बार बड़ा, बेबाक, व्यापक। अब मुद्दा सिर्फ़ राशन-ईंधन नहीं। JAAC की ताज़ा चार्टर में 38 माँगें हैं—मुफ़्त स्वास्थ्य, शिक्षा, बुनियादी ढाँचा—और सबसे ऊपर: एलीट विशेषाधिकार और सैन्य प्रभुत्व का अंत। सोशल मीडिया से लामबंदी हुई—जब तक इंटरनेट बंद न कर दिया गया। 4 अक्टूबर को पाकिस्तान सरकार ने घबराकर समझौते पर दस्तख़त किए—पर आग बुझी नहीं; वह कर्फ़्यू और गिरफ़्तारियों के नीचे दबकर धधकती रही।
चार दशक में सबसे बड़े नागरिक प्रतिरोध, इंटरनेट ब्लैकआउट, आधी रात की छापेमारियाँ, कर्फ़्यू और नागरिक मौतों के बीच—दुनिया ने आँखे फेर लीं। न ब्रेकिंग न्यूज़, न हैशटैग, न आक्रोश, न एकजुटता। वेस्टमिंस्टर में किसी सांसद ने मुद्दा नहीं उठाया। क्योंकि स्पॉटलाइट हमेशा एलओसी के एक ही तरफ़ रहती है। इस तरफ़—भारतीय कश्मीर में—बेचैनी की फुसफुसाहट, एक पत्थर, एक संवैधानिक बदलाव—हमेशा वैश्विक तमाशा बनता है: न्यूयॉर्क से जेनेवा तक थिंक टैंक, ओप-एड और वकालत का रेला। इस तरफ़ का कश्मीर दुनिया का सबसे सुविधाजनक रूपक—गिरते लोकतंत्र, बेलगाम राज्य, पीड़ित जनता।
मगर ज़मीन पर हक़ीक़त उस स्क्रिप्ट को झुठलाती है। अपनी तमाम चुनौतियों के बावजूद आज भारतीय कश्मीर लोकतांत्रिक ढाँचे से जुड़ा है—चुनाव होते हैं, अदालतें हैं, संसद में प्रतिनिधि हैं। एक भारतीय कश्मीरी राज्य को चुनौती दे सकता है, वोट से बदल सकता है, सवाल पूछ सकता है, अवज्ञा कर सकता है—लोकतंत्र की यही जद्दोजहद है। यहाँ के पत्रकार रिपोर्ट करते हैं—कभी अतिशयोक्ति, कभी विकृति—यह दमन से नहीं, अभिव्यक्ति की आज़ादी से उपजी विडंबना है: स्वतंत्रता हमेशा सत्य नहीं पैदा करती, पर वह केवल बोलने का अधिकार देती है।
उस पार, एलओसी के दूसरी ओर, पीओके को डिज़ाइन से बेड़ियों में रखा गया है। न पाकिस्तान की संसद में हिस्सेदारी, न उसकी सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच, न मौलिक अधिकारों की ढाल। पीओके की पत्रकारिता सख़्त दमन में है: विदेशी पत्रकारों को शायद ही वीज़ा मिलता है, और मिले तो सेना-इंटेलिजेंस की निगरानी में; स्थानीय रिपोर्टर डर, सेंसर और जासूसी में जकड़े रहते हैं—ख़ासकर जब वे सैन्य हस्तक्षेप या जन असंतोष पर लिखते हैं। स्वतंत्र मानवाधिकार संगठनों की एंट्री बंद—बाहरी जाँच लटक जाती है। विरोध के दिनों में इंटरनेट शटडाउन रूटीन है—ज़मीन की लामबंदी भी खामोश, कवरेज भी। नतीजा: दक्षिण एशिया के सबसे कम कवर और सबसे कम समझे गए संघर्ष-क्षेत्रों में पीओके शुमार है—जहाँ राज्य कहानी पर नियंत्रण ही नहीं रखता, उसे मिटा देता है।
दोहरे मापदंड क्यों?
क्योंकि वैश्विक नज़र चयनात्मक है—वह वहाँ सत्ता की आलोचना करती है जहाँ सुरक्षित हो, न कि जहाँ ज़रूरी हो। हक़ों की हिमायत तब करती है जब कथा में फ़िट बैठे—न कि जब कथा को चुनौती दे। इस फ्रेम में कश्मीरी पीड़ित सिर्फ़ नक्शे की एक ही तरफ़ “मान्य” है।
कहीं न कहीं भारत भी अपनी कहानी कहने—और बेचने—में अटकता है। या वह कंट्रास्ट ढंग से फ्रेम नहीं कर पाता: इस तरफ़ का कश्मीर, जटिलताओं सहित, बढ़ रहा है, खुल रहा है, पुनर्कल्पित हो रहा है—जबकि दूसरी तरफ़ भूगोल ही नहीं, राजनीति से भी लैंडलॉक है—दो अधिनायक आश्रयों, पाकिस्तान और चीन, के बीच—जहाँ आवाज़ें दबती हैं और भविष्य घुटता है।
भारत के पास दिखाने को प्रगति है—बड़ी और ठोस—पर उसके बराबर का आख्यान नहीं। उधर पाकिस्तान के पास छिपाने को बस दमन है—फिर भी किसी तरह “सहानुभूति वोट” वही बटोर लेता है।
विडंबना क्रूर है: पीओके जल रहा है—और दुनिया का नैतिक कंपास स्थिर पड़ा है। और उससे भी क्रूर: भारतीय कश्मीर के भीतर भी ऐसे कई हैं जो अपने पास जो है उसे कम आँककर, उस पार के उसी तंत्र की नकल चाहेंगे—जो अपने लोगों को खामोश करता है।
2025 में यह कंट्रास्ट कभी इतना तीखा नहीं रहा। भारतीय कश्मीर—दिखाई देने वाला, शासित, और स्वतंत्र ढांचे में जकड़ा नहीं, बल्कि शामिल। वही पीओकेल सिर्फ़ उपेक्षित ही नहीं, निरव, अदृश्य, और “चॉइस” का भ्रम तक मौजूद नहीं। फिर भी सुर्ख़ियाँ सिर्फ़ इसी तरफ़ बनती हैं। उधर—साया, सन्नाटा, अनकहा।