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हम युद्ध में लड़े नहीं पर शामिल है!

दो साल हो गए है। एक ऐसे युद्ध के, जिसके हम सब, पूरी दुनिया किसी न किसी रूप में गवाह बनी हैं। इसे सभी ने हथियार उठाकर नहीं, बल्कि स्क्रीन उठाए देखा है। हथेली में थमी उस चमकदार स्क्रीन पर हमने सब होते देखा।  भय और भयावहता को लाइव फीड की तरह देखा। फिर धीरे-धीरे देखने की आदत ही बना ली!

सात अक्तूबर के दिन जब हमास ने हमला किया तो वह अक्लपनीय था। सब हतप्रभ। कुछ ही घंटों मे  1,200 से अधिक इजराइली मारे गए, ज़्यादातर मासूम नागरिक। घरों में, सड़कों पर, कीबुत्ज़ में, जीवन का उत्सव मनाने वाले एक संगीत समारोह में सभी तरफ।

तब दुनिया ने देखा — हमास के लड़ाकों द्वारा युवा महिलाओं को बंदी बनाते हुए।  उनमें से एक को निर्वस्त्र कर, बेइज़्ज़ती करते हुए ग़ाज़ा की गलियों में ट्रक पर घुमाया गया। उसके परिवार को खबर तक नहीं थी कि वह मर चुकी है, जबकि दुनिया देख चुकी थी। हमने टीवी पर उस पिता को देखा जो कैमरे के सामने टूट रहा था, अपनी अगवा की गई बेटी के लिए विनती करता हुआ — उसका दुख दुनिया भर में प्रसारित हुआ, और हम सब बस देखते रहे।

थोड़े दिन इजराइल का जवाबी हमला तर्कसंगत लगा। एक देश की  संप्रभुता, आतंक-विरोध और न्याय की भाषा में ढला हुआ। बेंजामिन नेतन्याहू के इजराइल ने वही अमेरिकी मिसाल दोहराई: अगर अमेरिका 9/11 के बाद अल-कायदा को मिटाने के लिए युद्ध कर सकता है, तो इजराइलनभी हमास को “नष्ट” करने के लिए कर सकता है। लेकिन इस भाषा के नीचे राजनीति की सुविधा छिपी थी। नेतन्याहू, जो घरेलू भ्रष्टाचार मामलों और विरोध प्रदर्शनों से घिरे थे, उन्हें युद्ध में राहत मिली — एक संकट जो विरोध को निगल गया, एक भय जो जनता को एक साथ बाँध गया।

और इसके साथ ही शुरू हुआ दूसरा नरसंहार। इजराइली रॉकेटों ने ग़ाज़ा की बस्तियाँ समतल कर दीं। पूरे-पूरे परिवार एक ही वार में मिट गए। अस्पताल ईंधन के अभाव में अंधेरे में डूब गए। बच्चे तख्तों पर रखकर निकाले गए, राहत-काफ़िले सीमाओं पर रोके गए, शरणार्थी नंगे पाँव मलबे पर चलने लगे। यूनिसेफ़ के अनुसार युद्ध शुरू होने के बाद से ग़ाज़ा में 19 हज़ार से अधिक बच्चे मारे गए या लापता हुए हैं। और फिर आई मानव-निर्मित अकाल की त्रासदी। भूखे बच्चे, लापता माता-पिता, और एक ऐसी दुनिया जो न पहुँच सकी, न बोल सकी।

हमने वह दृश्य भी देखा जब अल-जज़ीरा के पत्रकार वायल दहदूह मलबे के बीच खड़े होकर रिपोर्टिंग करते हैं — उसी आवाज़ में जिसमें वे अपनी पत्नी और चार बच्चों की मौत की ख़बर बताते हैं।

कुछ दिन पहले, एक और पिता की तस्वीर देखी — अपनी एकमात्र बेटी नूर के लिए विलाप करता हुआ। छह वर्षों के इंतज़ार के बाद मिली वह बच्ची, जिसे उसने मलबे के नीचे खो दिया। माँ, चेहरे पर धूल और अविश्वास लिए, उस खंडहर पर खड़ी थी जिसने उसका पूरा संसार निगल लिया था। बचावकर्मी नंगे हाथों से मलबा खोद रहे थे, जब तक कि उन्हें वह छोटी सी निस्पंद देह नहीं मिली — जीवन रहित, पर माता-पिता अब भी साँस माँग रहे थे जहाँ अब साँस बाकी नहीं थी।

दो साल बीत गए, और हर तस्वीर एक-सी हो गई — भयावह, परिचित, निर्दय। इजराइल में ख़ाली कुर्सियाँ, शब्बात डिनर पर गुम लोग, वे परिवार जो हर सुबह अनुपस्थिति के साथ जागते हैं। ग़ाज़ा में तंबू, मलबा, बेनाम कब्रें, धूल से ढके चेहरे। दोनों ओर से हर तस्वीर एक ही प्रश्न पूछती है — यह युद्ध अब क्या हासिल करना चाहता है?

लेकिन जबकि यह सवाल अब भी अनुत्तरित है, राजनीति की मशीनरी चलती रहती है। शांति की बातचीतें फिर शुरू होती हैं — हर बार की तरह, जल्दबाज़ी में, औपचारिकता की तरह। क्योंकि हम पहले भी यहाँ आ चुके हैं — बार-बार।

अक्तूबर 2023 के बाद से इजराइल और हमास के बीच सात युद्धविराम किए गए या प्रयास हुए। पहला, नवंबर में, सात दिनों की संधि थी — 100 से अधिक इजराइली बंधक और 240 फ़िलिस्तीनी कैदी छोड़े गए। फिर जैसे हर बार होता है, समझौते की स्याही सूखने से पहले ही बमबारी शुरू हो गई। बाद के सभी प्रयास — मिस्र, क़तर और अमेरिका की मध्यस्थता में — कुछ दिनों में ढह गए। हर बार वही हेडलाइनें, वही उम्मीदें, वही वादे, और फिर वही विस्फोट। हर विराम अस्थायी रहा, हर ख़ामोशी नाज़ुक। और हर बार, कीमत चुकाई नागरिकों ने — विस्थापितों ने, भूखों ने, शोकाकुलों ने — उस उम्मीद की, जो हर बार टूट जाती है।

अब फिर, जैसे नियति है, इजराइली सरकार और सेना अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की “ग़ाज़ा शांति योजना” के पहले चरण की तैयारी में हैं — एक ऐसी योजना जो रविवार की डेडलाइन में इतिहास को समेट लेना चाहती है। हमास ने भी बयान दिया है — बचे हुए 47 बंधकों की रिहाई के साथ युद्धविराम और ग़ाज़ा से अपने शासन का हटना। लेकिन जैसे ही यह घोषणाएँ आईं, उसी पल ग़ाज़ा सिटी से फिर तस्वीरें आईं — ओमर अल-मुख़्तार स्ट्रीट पर धमाके, धुआँ, भागती भीड़, और ट्रंप के “रोकने” के अनुरोध के बाद भी जारी बमबारी।

और दुनिया एक बार फिर देखती रही — थकी हुई, असमंजस में, और इस बार भी सहभागी की तरह — जबकि शांति बोली जाती रही, पर कभी जीने नहीं दी गई।

अगर इतिहास बोल सकता, तो शायद आह भरता। वह याद दिलाता कि युद्ध कभी वैसे ख़त्म नहीं होते जैसे उनके कर्ता चाहते हैं। अमेरिका का “वॉर ऑन टेरर” इराक को राख बना गया, अफ़ग़ानिस्तान को उसी तालिबान के हवाले छोड़ गया जिससे वह लड़ा था। रूस-यूक्रेन युद्ध अब स्थायी घाव बन चुका है। हर युद्ध दृढ़ विश्वास से शुरू होता है और थकान में ख़त्म होता है; हर नेता जीत का दावा करता है, जबकि नागरिक उसकी क़ीमत चुकाते हैं। यह युद्ध भी अलग नहीं था। इजराइल ने सुरक्षा के नाम पर मलबा पाया, हमास ने अपने ही लोगों की लाशों पर नायकत्व गढ़ा, और दुनिया ने एक और पीढ़ी का दुख कमाया।

भला 40 हज़ार मौतों को कौन-सी तर्कसंगति सही ठहरा सकती है?  जिनमें आधे बच्चे हैं? कौन-सी नीति उन बंधकों को लौटाएगी जो कभी लौटे नहीं, या उन शहरों को जो धूल बन गए? क्या संप्रभुता बचाई गई, या मानवता गंवाई गई? युद्ध का गणित हमेशा निर्मम होता है — सरकारें सीमाएँ गिनती हैं, शव नहीं। पर जिन्होंने अपने बच्चे, अपने माता-पिता, अपने प्रेमी खोए हैं, उनके लिए कोई झंडा उस रिक्तता को नहीं भर सकता। अगर युद्ध शांति लाने के लिए होते, तो दुनिया आज इतनी टूटी, बिखरी हुई क्यों है? अगर प्रतिशोध व्यवस्था लौटाने के लिए था, तो इसने केवल क्रोध क्यों बढ़ाया?

सच यही है — इस युद्ध में कोई नहीं जीता। न इजराइल, न हमास, न वह दुनिया जो खुद को शांति का मध्यस्थ कहती है। हम सब हार गए — विनाश के इस तमाशे से सुन्न, जिसे हम न रोक सके, न आँख फेर सके। ग़ाज़ा की त्रासदी, हर पिछले युद्ध की तरह, केवल इसलिए भयावह नहीं कि यह हुआ; बल्कि इसलिए है कि हमने इसे होने दिया, तब तक, जब तक अर्थ ही लहूलुहान नहीं हो गया।

और अब फिर वही प्रश्न लौटता है: क्या हम सब इस युद्ध का हिस्सा नहीं बन चुके हैं? सीधे नहीं, पर चुपचाप देखकर, स्क्रॉल करते हुए, इसे “स्पेक्टेकल” की तरह स्वीकार करते हुए। ग़ाज़ा की भयावहता सिर्फ़ रॉकेटों और बमों से नहीं हुई — यह चुप्पी से हुई।

तीन दशक पहले रवांडा में, दस लाख लोग मारे गए थे जबकि दुनिया देखती रही। तब यह चुप्पी दूरी और अंधकार से जन्मी थी — “हम नहीं जानते” वाले बहाने से। लेकिन ग़ाज़ा में हमने सब जाना, सब देखा — घर गिरते हुए, बच्चे भूख से मरते हुए, शहर धूल में बदलते हुए। इस बार अंधेरा नहीं था, सिर्फ़ रोशनी थी — और हम सबने उस रोशनी में देखने से इनकार किया। यह वह युद्ध है जिसे हमने लड़ा नहीं, पर जिसमें हम सब शामिल थे।

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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