पाकिस्तान को कम मत आंकिए। मुनीर की कमान में वह महत्वाकांक्षा और ताक़त दोनों को फिर से हासिल कर रहा है। एक नया त्रिकोण बन रहा है: पाकिस्तान के पास ट्रंप हैं सहारे के लिए, चीन हथियार देने को, तुर्की शौर करने को, और अब सऊदी अरब धन देने को।
ब्रहमा चेलानी की हाल में टिप्पणी थी कि सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता दिवालियेपन के कगार पर खडे “पाकिस्तान की ताक़त का नहीं बल्कि सऊदी अरब की महत्वाकांक्षाओं का प्रतिबिंब है।” मगर पाकिस्तान को केवल उसकी चरमराती अर्थव्यवस्था के चश्मे से देखना, उस शातिर व ख़तरनाक खेल को नज़रअंदाज़ करना है जो पाकिस्तान खेल रहा है। और यह वित्तिय मकसद से नहीं बल्कि सैन्य चालबाज़ी, धर्म की पहचान से देश की इमेज को नई ऊंचाई देने की महत्वकांक्षा से प्रेरित है। पाकिस्तान भले ही खस्ता हाल हो पर पोपुलिस्ट राजनीति के मौजूदा दौर में आर्थिकी दिवालियापन से अधिक अहम है विश्वास। जनरल असीम मुनीर ने सेना में, धर्म में, और ख़ुद पाकिस्तान में विश्वास को एक नई तरह की शक्ति में बदल दिया है।
मुनीर, भारत को दिखे-सुने किसी पुराने पाकिस्तानी खाकीवर्दीधारे जैसे नहीं है। मतलब न धमकी भरे भाषण देने वाले, न सरकार पलटने वाले, न रंगमंचीय अतिरेक में डूबे जनरल। वे ज़्यादा एक वर्दीधारी राजनेता की तरह चलते हैं: सोच-समझकर, धैर्य से, चालाकी के साथ। नवंबर 2022 में, जब पाकिस्तान आर्थिक संकट, राजनीतिक अराजकता और “जनरल थकान” से गुज़र रहा था, तब मुनीर ने सेना की बागडोर थामी। और दो साल में, बिना तख़्तापलट या प्रेस कांफ्रेंस के, उन्होंने फौज पर पकड़ मज़बूत की। राष्ट्रीय नीति को अपने इशारे पर झुकाया, और चुपचाप न्यायपालिका व कूटनीति तक प्रभाव फैला दिया। सब कुछ करते हुए नागरिक मुखौटा जस का तस रहने दिया। कभी इमरान खान से अपमानित हुए—जिन्होंने उनकी ISI तैनाती अधूरी छोड़ दी थी—मुनीर ने उन्हें पछाड़ दिया। आज खान जेल में हैं, और पाकिस्तान पर राज कर रहे हैं मुनीर—किसी सुर्ख़ी-प्यासे तानाशाह की तरह नहीं, बल्कि एक ख़ामोश सैन्य वर्चस्वता को पुनर्स्थापित करते शिल्पकार की तरह। उनकी राजनीति शोर की नहीं, नियंत्रण की है।
और किसने सोचा था, पोपुलिस्ट राजनीति का चेहरा इतनी जल्दी और इतनी ख़ामोशी से बदल जाएगा। बरसों तक इमरान खान इस राजनीति के पोस्टर-बॉय रहे—क्रिकेट सितारे से राजनीतिक विद्रोही बने, “नया पाकिस्तान” के नारों से सड़कें गूंजाईं, अमीरों को कोसते रहे और उन्हीं के साथ सौदेबाज़ी भी करते रहे। इमरान की कैमरे, रैलियों, वायरल नारों पर पकड़ थी। उनका लोकलुभावनवाद कच्चा, प्रदर्शनकारी और करिश्माई था। लेकिन अब वह जगह मुनीर ने हथिया ली है और उसे ताक़त में बदल दिया है। इमरान खान के नाम लेवा खत्म होते हुए है। क्या यह मुनीर का मामूली कमाल है?
सैनिक दबदबे का यह पुनर्स्थापन केवल संस्थागत नहीं बल्कि वैचारिक भी है। मुनीर, एक इमाम के बेटे, मदरसा-शिक्षित क़ुरान के हाफ़िज़, पाकिस्तानी सैन्य तबके में दुर्लभ धार्मिक प्रमाण-पत्र रखते हैं। इससे वे सिर्फ़ जनरल नहीं, बल्कि नैतिक प्रामाणिकता की शख़्सियत बन जाते हैं। आज जब लोकलुभावन राजनीति हर जगह धर्म की आड़ ले रही है—ट्रंप अपनी बाइबिल के साथ, मोदी अपने मंदिरों के साथ, एर्दोग़ान अपनी नई उस्मानी परंपरा के साथ है वही मुनीर भी कट्टरपंथी आस्था में संजीदा हैं, पर उसे केवल प्रदर्शित नहीं करते।
जहाँ इमरान खान “रियासत-ए-मदीना” का नारा भर लगाते थे, मुनीर ने धर्म को अपनी सत्ता की बुनियाद बना दिया है। नतीजा: एक सैन्य अधिकारी अब वही लोकलुभावन वैधता पा रहा है जो कभी इमरान खान के पास थी। उनकी सेना-समर्थित नागरिक गठबंधन संसद में दो-तिहाई बहुमत रखती है, संविधान तक बदलने की स्थिति में है। कानाफ़ूसी है कि मुनीर जल्द ही राष्ट्रपति की वर्दी में नागरिक लिबास पहन सकते हैं। 1947 के बाद पाकिस्तान के चौथे सैन्य युग का दरवाज़ा खोलते हुए। फर्क बस इतना है कि इस बार टैंकों से नहीं, क़ानूनी वैधता और पोपुलिस्ट चादर से।
और फिर है भारत-कश्मीर कोण, जिसने उनकी लोकप्रियता और भी चमका दी। भारत के साथ हालिया झड़प के बाद पाकिस्तान ने उसे तुरंत “पुराने दुश्मन पर मज़बूत जवाब” की तरह पेश किया। पाकिस्तान के कई वर्गों—ख़ासकर मध्यवर्ग और अभिजात वर्ग—के लिए मुनीर देश की बहाल की गई इमेज, व्यवस्था का प्रतीक बन चुके हैं। भले ही कुछ लोग अब भी इमरान खान को पकड़े हुए हैं, मगर मुनीर की छवि पुख्ता होते हुए है: अब वे छाया-जनरल नहीं, बल्कि पाकिस्तान में राष्ट्रीय उद्धारक माने जा रहे है । और यही सबसे बड़ा ख़तरा हो सकता है।
तो हाँ, पाकिस्तान खस्ता हाल है, मगर दिवालिया आर्थिकी को रणनीतिक अप्रासंगिकता न समझिए। नियंत्रण और विश्वसनीयता का यही संगम पाकिस्तान की नई वैश्विक बढ़त समझाता है। ताक़त बैलेंस शीट से नहीं बनती। यह छवि और धारणा से बनती है। और फिलहाल, असीम मुनीर पाकिस्तान को दक्षिण एशिया के “नए बिंदु पुरुष” बनकर, खुद को एक स्थिरकारी, एक वर्दीधारी राजनेता, और मनोविज्ञान समझने वाले नेता के रूप में गढ़ रहे हैं। वे आतंकवाद-विरोध, क्षेत्रीय स्थिरता और व्यापार पर सही बातें कह रहे हैं, ताकि उस एक शख़्स की नज़र में आएं जिसे चापलूसी और ताक़त दोनों भाते हैं। मतबल डोनाल्ड ट्रंप। मुनीर जानते हैं ट्रंप को क्या रास आता है, क्या चुभता है, और पाकिस्तान को बोझ नहीं, बल्कि सहयोगी की तरह कैसे पेश करना है।
अमेरिका भले ही ओसामा बिन लादेन और अफ़ग़ान वापसी के बाद मुंह मोड़े रहा हो, मगर अब वह यक़ीन धुंधला रहा है। भारत की चिंता बढ़ाने वाला तथ्य यही है कि अमेरिका-पाक रिश्ते चुपचाप रीसेट हो रहे हैं—व्यापार और आतंकवाद से होते हुए, पश्चिम एशिया में तालमेल और संभावित हथियार सौदों तक। इस्लामिक स्टेट खुरासान (ISKP), जिसे अब पश्चिम सबसे बड़ा आतंक ख़तरा मानता है, के खिलाफ़ भी वाशिंगटन को पाकिस्तान की ज़रूरत है।
जहाँ तक सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौते का सवाल है, यह प्रतीकवाद से ज़्यादा दोनों की जीवन-रक्षा का मामला है। क्षेत्र में इज़रायल हर कुछ हफ़्ते में नया मोर्चा खोल रहा है, ऐसे में रियाद को एक परमाणु-सशस्त्र साझीदार चाहिए था। और मोदी के दौर में भारत-सऊदी रिश्ते भले ही गर्म रहे हों, सऊदी ने नज़रें दिल्ली नहीं, इस्लामाबाद पर टिका दीं। आख़िर इस्लामी दुनिया में “भाई को भाई ही ढालता है।” पाकिस्तान के लिए फ़ायदा तात्कालिक है—नक़दी की आमद और खाड़ी का राजनीतिक सहारा। हाँ, यह बेबसी है, मगर बेबसी जब रणनीति बन जाए तो वह दबाव भी बन जाती है। आने वाले किसी संघर्ष में सऊदी हथियार न भेजे, पर जंग का ख़ज़ाना भर सकता है और मध्य पूर्व में पाकिस्तान के लिए कूटनीतिक माहौल बना सकता है। यही वह पूँजी है, जिसे असीम मुनीर तलाश रहे हैं: इमेज जितनी अहम, हथियार उतने ही।
इधर चीन के साथ पाकिस्तान के रिश्ते स्थिर हैं—CPEC का विस्तार एजेंडे पर है और रक्षा उपकरणों का बड़ा हिस्सा अब भी बीजिंग से आता है। मुनीर ने अफ़्रीका और मध्य एशिया तक पाकिस्तान की सैन्य कूटनीति का दायरा बढ़ाया है, देश को “स्पॉइलर” से “स्टेबलाइज़र” में बदलने की कोशिश की है। ऐसे दौर में जब मज़बूत नेता धर्म और व्यवस्था की चादर ओढ़कर महत्वाकांक्षा को ढकते हैं, मुनीर पाकिस्तान का ख़ामोश जवाब हैं—धर्म को भीड़ का नारा नहीं, बल्कि सॉफ़्ट पावर और रणनीतिक मनव्वल का औज़ार बनाते हुए।
इसलिए पाकिस्तान को कम मत आंकिए। मुनीर की कमान में वह महत्वाकांक्षा और ताक़त दोनों को फिर से हासिल कर रहा है—और भारत को सावधान रहना चाहिए। एक नया त्रिकोण बन रहा है: पाकिस्तान के पास ट्रंप हैं सहारे के लिए, चीन हथियार देने को, तुर्की प्रतिध्वनि करने को, और अब सऊदी अरब धन देने को। ये सब मिलकर भारत को एक ऐसे क्षेत्र में असुरक्षित छोड़ते हैं, जहाँ समीकरण फिर से लिखे जा रहे हैं। असली ख़तरा सिर्फ़ सीमा पार नहीं है, बल्कि बदलती सत्ता-वास्तुकला में है।