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राजपक्षे, हसीना, ओली और निठल्ले नौजवानों का ग़ुस्सा

निठल्ले नौजवान जितने दिल्ली में हैं, उतने ही काठमांडू, ढाका, कोलंबो मतलब पूरे दक्षिण एशिया में हैं। इन निठल्लों ने दक्षिण एशिया के तीन राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के इस्तीफे कराए। उन्हें दौड़ाया, भगाया। कोलंबो, ढाका, काठमांडू ने यह भी बताया कि राजपक्षे, हसीना वाजेद और ओली भले राष्ट्रवादी होने, “56 इंची छाती” या “लौह महिला” के हुंकारे भरने वाले थे पर जब भागे तो उनके लिए कोई रोने वाला नहीं था। नेपाल का ओली तो ऐसा राष्ट्रवादी था जिसने भारत की जमीन पर दावा ठोंकते हुए नया नक्शा संसद से पास करवाया था।

पर आज मंगलवार को काठमांडू में क्या दिखा? “जेन ज़ी” ने ओली के घर को फूंक दिया। वही ओली जो कुर्सी से चिपके रहने के लिए, चुनाव जीतते रहने की हर तिकड़म अपनाता था। पार्टी और सरकार पर शत-प्रतिशत कंट्रोल रखता था और विरोधियों का मज़ाक उड़ाना। पर मंगलवार को इस्तीफा देकर तौबा की। नेपाल में सरकार की दादागिरी के खिलाफ नौजवान एक छोटी-सी चिंगारी में ऐसे खदबदाए कि उनका गुस्सा काठमांडू के बानेश्वर के सुरक्षित इलाके के संसद भवन पर भी उतरा। उसमें भी आग लगा दी।

दो साल पहले ऐसा ही नजारा कोलंबो में भी दिखा था। राजपक्षे जैसे दबंग राष्ट्रपति को निठल्ले नौजवानों ने न केवल भगाया बल्कि पूरी दुनिया को राष्ट्रपति भवन में अपने उत्पात की तस्वीरें दिखाईं। फिर चुना एक वामपंथी राष्ट्रपति। पिछले साल ढाका में उससे भी बुरा नजारा था। बांग्लादेश के विकास की गाथा गाने वाली लौह प्रधानमंत्री हसीना वाजेद के घर की तरफ नौजवानों ने ऐसा कूच किया कि वह हेलिकॉप्टर में बैठकर भागीं। दुनिया में कहीं पनाह नहीं मिली तो वे दिल्ली में छुपी बैठी हैं। उनकी जगह एक बुज़ुर्ग अंतरिम शासक है जिसकी पहचान भले इंसान की है।

काठमांडू में चिंगारी क्या थी? इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब, व्हाट्सऐप और 22 अन्य प्लेटफ़ॉर्म्स पर प्रतिबंध। ऊपर से मानो डिजिटल ब्लैकआउट। पर निठल्ले-बेरोज़गार जनरेशन ज़ी का गुस्सा इस फड़फड़ाहट के साथ भड़का कि उनके टाइमपास पर भी सरकारी नियंत्रण! सो मसला हक़ का सवाल बना, इज़्ज़त का, अवसर और व्यक्तिगत कुंठा-भड़ास का महाविस्फोट!

नतीजे में वही हुआ जो पिछले साल बांग्लादेश में छात्रों ने आरक्षण की चिंगारी में, भ्रष्टाचार और व्यवस्था की बेरुख़ी के खिलाफ किया था। हसीना वाजेद की पार्टी और सरकार को तार-तार कर ढहाया। अब वहा उनकी पार्टी का कोई नाम लेवा भी नहीं है। नेपाल भी वही जज़्बा दोहराता लगता है।। बेरोज़गारी में टाइमपास करती निठल्ली भीड़ का गुस्सा छोटी सी चिंगारी से सुलगा और नारा बना—“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है!”

8 सितंबर को नेपाल ने वर्षों का सबसे भीषण युवा विद्रोह देखा। सरकार ने 26 सोशल मीडिया साइट्स पर प्रतिबंध लगाया था। वजह बताई कि फेक आईडी, साइबर अपराध और “सामाजिक सद्भाव” के लिए यह खतरा हो गए हैं। सरकार ने इसे नियमन कहा, युवाओं ने सेंसरशिप माना। हजारों स्कूली छात्र, विश्वविद्यालय स्नातक और नौकरी ढूंढ़ते युवा काठमांडू व प्रांतीय कस्बों की सड़कों पर उतर आए। डिजिटल ब्लैकआउट से शुरू हुआ विरोध भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अधूरे वादों के खिलाफ आंदोलन में बदल गया। सरकार ने पुलिस की ताक़त दिखाई। 19 लोग मारे गए, 300 से अधिक घायल हुए और काठमांडू घाटी में कर्फ्यू लागू।

इस आंदोलन के केंद्र में हैं 36 वर्षीय सुदन गुरुंग, जिन्होंने व्यक्तिगत त्रासदी को सक्रियता में बदला। कभी पार्टी प्लानर रहे गुरुंग ने 2015 के भूकंप में अपना बच्चा खोया और फिर ‘हामी नेपाल’ के अध्यक्ष बने। तभी से उन्होंने जमीनी अभियानों में नाम कमाया। अब वे पूरी पीढ़ी की एक अनिच्छुक आवाज़ बन गए हैं। चिंगारी को आग बनाया “नेपो किड” नामक वायरल कैंपेन ने। इसमें नेताओं के बच्चों की ऐशो-आराम भरी ज़िंदगी दिखाई गई जबकि आम युवा विदेशों में दिहाड़ी पर पलायन कर रहे हैं। ऑनलाइन शुरू हुआ यह गुस्सा सड़कों पर अचानक फूट पड़ा। कोलंबो, ढाका में भी ऐसा ही हुआ था। सत्ता पर बैठे लोगों और पार्टियों के विशेषाधिकार के खिलाफ वह गवाही थी। उसी लीक पर नेपाल में भी। इसलिए क्योंकि नेपाल में भी बेरोजगारी, आर्थिक बदहाली और अवसरों का लगातार साल-दर-साल सिकुड़ते जाना हैं।

सोमवार की रात सरकार बैकफुट पर आई और चुपचाप प्रतिबंधित ऐप्स बहाल कर दिए। तब तक बात बिगड़ चुकी थी। नेपाल की जनरेशन ज़ी ने साफ़ कहा कि यह सिर्फ़ सोशल मीडिया का मामला नहीं, बल्कि उनके साथ धोखे और छल का है। शासन का जवाबदेही से मुंह मोड़ लेने और मनमानी का है।

नेपाल का डिजिटल विद्रोह शून्य से पैदा नहीं हुआ। अस्थिरता यहाँ इतनी पुरानी है कि बदलाव भी आदतन लगता है। दुनिया बाहर से नेपाल को मंदिरों, पगोडाओं और हिमालयी ट्रेक्स की धरती मानती है। असल में यह ऐसा गणराज्य है जहाँ प्रधानमंत्री लगभग हर साल बदलते रहे हैं। 1990 में संसदीय लोकतंत्र की बहाली के बाद से 30 से ज़्यादा सरकारें बन चुकी हैं। ओली हों या प्रचंड (पुष्पकमल दहल), वही नेता बार-बार लौटते हैं। नेतृत्व रिसाइकल होता है और शासन बातें करता है मगर डिलीवर नहीं करता।

सो देश में अस्थिरता की जड़ें गहरी हैं। सदियों तक राजशाही, फिर एक सदी का राणा शासन, 1950 का लोकतांत्रिक आंदोलन, 1990 का जनआंदोलन जिसने राजा को संवैधानिक ढाँचे में बाँध दिया। फिर 2001 का शाही नरसंहार — जब युवराज दीपेंद्र ने राजा, रानी और परिवार की हत्या कर दी,  ने देश में राजतंत्र की नींव मिटा दी। ज्ञानेंद्र के पूर्ण सत्ता बहाल करने के प्रयास ने गणराज्य की मांग को तेज़ किया। 2008 में दशक लंबे माओवादी युद्ध और 17 हज़ार मौतों के बाद राजशाही खत्म हुई। नेपाल तब एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य बना। पर यह गणराज्य अब भी अधूरा है। कोई सरकार अपना कार्यकाल कभी पूरा नहीं कर पाई। गठबंधन टूटते हैं, भ्रष्टाचार पनपता है, सुधार रुक जाते हैं।

यही कारण है कि नेपाल की लगभग चौथाई श्रमशक्ति विदेश में है, जिनके रेमिटेंस से अर्थव्यवस्था टिकी है। मलेशिया में घर साफ़ करते, दुबई में टैक्सी चलाते, क़तर में स्टेडियम बनाते, रूस और यूक्रेन की सेनाओं में भर्ती होते युवा नेपाली। और भीतर देश में भ्रष्टाचार व बेरोज़गारी जस की तस। नौजवानों के लिए जब सोशल मीडिया ही टाइमपास का आख़िरी सहारा बन गया है तो उस पर अचानक पाबंदी लगाना  उन्हे अस्तित्व को मिटाने जैसा लगा। यही वजह रही कि विरोध काठमांडू से पोखरा, भरतपुर, बुटवल जैसे छोटे शहरों तक फैला। इनके नारों में केवल सेंसरशिप नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही झांसेबाज, असफल व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था।

नेपाल के नौजवान विद्रोह पर चर्चा भारत के ज़िक्र किए बिना अधूरी है। भारत कभी नेपाल का संरक्षक, कभी हस्तक्षेपकारी रहा है। 1950 की क्रांति में मदद की, फिर लगातार राजनीतिक सुलह-समझौते कराए। पर 2015 की भारत की अनौपचारिक नाकाबंदी ने नेपाल को झकझोर दिया। मोदी सरकार ने नेपाली जनता को भावनात्मक तौर पर चीन की ओर धकेल दिया। ओली ने चीन से ट्रांज़िट समझौता कर भारत की व्यापारिक पकड़ तोड़ी। इसलिए भारत का विदेश मंत्रालय नेपाल के इस आंदोलन को सावधानी से देख रहा होगा। पर भारत का रवैया नेपाल को बराबरी का साथी नहीं, बल्कि क्लाइंट देश मानने जैसा रहा है। इसलिए नेपाल में भारत का रोल घटता हुआ है। वहा चीन हावी है।

कुल मिलाकर जनरेशन ज़ी का विद्रोह दक्षिण एशिया में नौजवानों की मनोदशा का गहरा संकेत है। नौजवान मौन है, टाइमपास कर रहा है। ऊपर से शांत मगर भीतर से बैचैन। भारत की तरह नेपाल में भी डिजिटल रूप से जुड़ी हुई नौजवान पीढ़ी की संख्या लगातार बढ़ रही है। और नौजवान बढ़ती अपेक्षाओं के साथ, सरकार की धोखेबाजी, नेताओं के अधूरे वादों तथा सत्ता में सिर्फ़ बने रहने की राजनीति को सह रहेहै। पर जब भी इनका धैर्य चूकेगा, कभी भी कोई चिंगारी सुलगी तो भीड़ सड़कों पर उतर पडेगी। दक्षिण एशिया के तीन देशोंश्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल में ऐसे ही हुआ है। तीन देशों में अलग-अलग चिंगारियों ने राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों को जैसे भागने को मजबूर किया, उसका कथानक एक सा ही है।

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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