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सुलगता हुआ भू-तल

जब बेहतर जिंदगी के अवसरों का अभाव हो- और उस कारण सतह के नीचे की जमीन सुलग रही हो, तो हल्की-सी किसी चिंगारी भी आग भड़का देती है। नेपाल में ऐसी चिंगारियों के संकेत हाल में लगातार मिले हैं।

नेपाल में सोशल मीडिया कंपनियों को पंजीकृत करवाने के लिए किए गए प्रावधान को अनुचित नहीं कहा जा सकता। अमेरिकी सोशल मीडिया कंपनियों ने इस प्रावधान का खुला उल्लंघन किया, इसलिए उन पर प्रतिबंध लगाना तार्किक कदम था। मगर यह कदम नेपाल सरकार को भारी पड़ा है। उसके खिलाफ जिस पैमाने पर विरोध भड़का, शायद ही उसकी आशंका किसी को रही होगी। नौजवान पीढ़ी इसको लेकर इतना उत्तेजित और लामबंद हो गई कि जगह-जगह हिंसा और पुलिस फायरिंग के हालात देखने को मिले। सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के साथ-साथ नौजवानों ने देश में फैले भ्रष्टाचार का मुद्दा भी उछाल दिया है।

ये हलचल कहां तक जाएगी, अभी अनुमान लगाना कठिन है। मगर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि गुस्सा सिर्फ सोशल मीडिया पर रोक को लेकर नहीं है। बल्कि इसकी जड़ें कहीं गहरी हैं। ये संभवतः राजतंत्र के बाद अस्तित्व में आई राजनीतिक व्यवस्था, उसके संचालकों की नाकामी और उनकी स्वार्थ केंद्रित राजनीति के प्रति बढ़ते गए असंतोष से उपजा है। जब बेहतर जिंदगी के अवसरों का अभाव हो- और उस कारण सतह के नीचे की जमीन सुलग रही हो, तो हल्की-सी किसी चिंगारी भी आग भड़का देती है। नेपाल में ऐसी चिंगारियों के संकेत हाल में लगातार मिले हैं। राजतंत्र समर्थक आंदोलन के पक्ष में जैसी गोलबंदी हुई, वह पनप रहे आक्रोश का ही संकेत था।

नेपाल के सत्ताधारियों ने उसे समझने की कोशिश नहीं की है। इस तरह वे अपने देश को उस ओर ले जा रहे हैं, जैसा हालिया वर्षों में श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश में होता दिखा। ऐसी घटनाओं का दायरा फैल रहा है, तो उसमें हर देश के हुक्मरानों के लिए एक पैगाम है। ये घटनाएं चुनाव जीतने के बाद मनमाने ढंग से राज करने की नेताओं और दलों में बढ़ी प्रवृत्ति के खिलाफ आक्रोश का इजहार हैं। लोग अब इससे संतुष्ट नहीं हैं कि सरकार उनके वोट से बनती है। वे सरकार से यह अपेक्षा भी रखते हैं कि वह उनके जीवन को बेहतर बनाए। नेपाल की सरकारें इस अपेक्षा से बेखबर बनी रही हैं। तो अब वहां के नौजवानों ने उनके लिए खतरे की घंटी बजाई है।

By NI Editorial

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