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आद्या शक्ति नहीं, भीरूता माता

 वही गाँधी स्वतंत्र भारत के राष्ट्रपिताहैं तो न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के भी पिता हैं। अतः हिन्दुओं को जब चाहे, बात-बेबात फटकारना, और मुस्लिमों का हर हाल में बचाव करना भारतीय शासक वर्ग का एक प्रकार का सिग्नेचर ट्यून रहा है।… बाल ठाकरे जैसे अपवादों को छोड़, सभी नेता जिहाद और उस के प्रेरक मतवाद पर चुप रहते हैं। बल्कि उस के प्रति श्रद्धा दिखाते, खुद भी बड़े-बड़े इस्लामियों पर चादर चढ़ाते हैं।

तदनुरूप सुप्रीम कोर्ट ने भी गुजरात में मुस्लिम पीड़ितों के लिए जो उत्साह दिखाया, उस का ठीक उल्टा कश्मीरी पंडितों के लिए था।

श्रीलाल शुक्ल के अनूठे उपन्यास ‘राग दरबारी’ में एक पुलिस थाने का प्रसंग है। सिपाहियों को चलने का हुक्म मिला, “और चूँकि मुठभेड़ नहीं होनी थी, इसलिए सिपाहियों ने बंदूकें ले ली।” वही भावना स्वतंत्र भारत के संपूर्ण शासक वर्ग की रही है। वे निरापद मामलों में वीर बनते, और खतरनाक मामलों से मुँह चुराते हैं। यही राष्ट्रवादी भारत की आम नीति रही है। विधायिका, कार्यपालिका,और न्यायपालिका इसी प्रवृत्ति का प्रदर्शन करते रहे हैं।

अभी-अभी सुप्रीम कोर्ट के बड़े न्यायाधीश ने वही दिखाया। उन्होंने विष्णु देवता के लिए मुँह-फट टिप्पणी कर दी, जबकि याचिका किसी मंदिर की प्रतिमा पुनर्स्थापना की थी। सब जानते हैं कि ऐसी याचिकाएं आती रही हैं। उन में कुछ अत्यंत संवेदनशील हैं जिन में सदियों पुराने हरे घाव हैं। तब वैसी एक अन्य याचिका ऐसी विशेष बात न थी कि याचिकाकर्ता को ऐसी-तैसी सुनाएं, और‌ लगे हाथ उस के आराध्य को भी व्यर्थ बताया जाए, कि “जाओ और उन देवता से ही कुछ करने कहो।” (16 सितंबर 2025)

यह वही सुप्रीम कोर्ट है जो इस्लामी मामला आते ही संविधान छोड़ कुरान पढ़ने लगता है! इसी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश ने एक फैसले में कहा था, “जो कुरान में बुरा माना गया है, वह शरीअत में अच्छा नहीं हो सकता और जो मजहबी मत में बुरा है, वह कानून में भी बुरा है।” (22 अगस्त 2017)। मानो, उन्हें संविधान या राष्ट्रीय कानून से नहीं, बल्कि कुरान, शरीयत, और‌ मजहब के मुताबिक फैसला देना था!

यह दोहरी प्रवृत्ति ही भारतीय राष्ट्रवाद‌ और नीति है, जिसे गत सौ वर्ष से अनगिन बार, बड़े-छोटे मामलों में देखा गया है। जो मौलाना नियमित उत्तेजक, हिंसक बातें बोलते रहे — उन के लिए महात्मा गाँधी अपने अहिंसा और सत्य, दोनों को ताक पर धर‌ देते थे। गाँधीजी का अपमान करने वाले मौलाना भी गाँधी के लिए ‘पवित्र आत्मा’ और ‘ईश्वर के सरल बालक’ थे।

जैसे, मौलाना मुहम्मद अली ने, 1924-25 में कई बार कहा: “मेरे मजहब और अकीदे के मुताबिक, मैं एक गिरे से गिरे और बदकार मुसलमान को भी गाँधी से बेहतर मानता हूँ।” मौलाना ने कांग्रेस अध्यक्ष के पद से वह जमाना बीत जाने का अफसोस किया, जब उन के ”पूर्वज लोगों की गिनती करके नहीं बल्कि गले काटकर मामले निबटाया करते थे।” उन्हीं मौलाना के लिए गाँधी के उदगार थे: ”मैं हमेशा उन की देशभक्ति, जज्बे, और बहादुरी की सराहना करता रहा हूँ। वह अपने देश और मजहब के सच्चे प्रेमी थे।” वही गाँधी हिन्दुओं पर सदैव अहिंसा की छड़ी फटकारते थे। उन्होंने चंदशेखर आजाद, भगत सिंह, आदि समकालीनों ही नहीं, बल्कि गुरु गोविन्द सिंह जैसे पूर्वज महापुरुष तक को ‘भ्रमित देशभक्त’ कहा! (यंग इंडिया, 9 अप्रैल 1925)। क्योंकि उन सब ने देश के लिए अस्त्र-शस्त्र का उपयोग किया था।

परन्तु किसी मुस्लिम महानुभाव ही नहीं, बेहिसाब खून और बलात् करने वाले मुस्लिम हुजूम की भी गाँधी ने कभी सीधी भर्त्सना नहीं की। न दूसरों को करने देते थे। गाँधी ने मोपला मुस्लिमों का बचाव किया जिन्होंने 1921 में ‘खलीफत आंदोलन’ के दौरान हिन्दुओं की सामूहिक हत्या और बलात्कार किये। गाँधी ने लिखा: “मोपला वे हैं जो अपने धर्म के लिए लड़ रहे हैं जिसे वे धर्म समझते हैं, और उस तरीके से लड़ रहे हैं जिसे धार्मिक समझते हैं। मोपला अपराधी नहीं हैं। वे बहादुर और ईश्वर से डरने वाले हैं।” (यंग इंडिया,  20 अगस्त 1921)। डॉ. अम्बेडकर ने लिखा है कि गाँधी ने कांग्रेस कार्यसमिति को भी मोपलाओं की निंदा करने से रोक दिया। एक गोल-मोल प्रस्ताव पास हुआ, जबकि वह ऐसे भयावह कांड थे, डॉ. अंबेडकर के शब्दों में ‘अवर्णनीय’, कि पूरा देश सिहर गया था। केरल‌ के हिन्दुओं ने ब्रिटेन की महारानी को चिट्ठी लिखकर आर्त-पुकार की थी। उस भयावह कांड का गाँधीजी ने वैसे घुमा-फिरा कर बचाव किया।

गाँधीजी ने हिन्दू क्रांतिकारियों, चंद्रशेखर आजाद, आदि को कभी अपना ‘भाई’ नहीं कहा। परंतु जिहादी हत्यारों जैसे अब्दुल राशिद, जिसने धोखे से, चारपाई पर पड़े बीमार स्वामी श्रद्धानंद की हत्या की, उसे अपना ‘भाई’ कहा। विस्तार से (26 दिसंबर 1926): “अब्दुल राशिद मेरे लिए उतना ही भाई था जितना स्वामी श्रद्धानन्द। दोनों ही भारत के वफादार पुत्र थे।” गाँधी जी ने बार-बार अब्दुल राशिद को ‘भाई’ कहा, और ‘अखबार वालों’ को जिम्मेदार ठहराया कि मानो उन्होंने अब्दुल राशिद जैसे व्यक्ति को ऐसा करने को उकसाया था।

यह गाँधी जी की स्थाई नीति थी। जब लाहौर में प्रतिष्ठित प्रकाशक महाशय राजपाल की इल्मुद्दीन ने हत्या कर दी, तब भी वही हुआ। गाँधी ने लिखा, “मैं कुछ लोगों की उस पुकार से सहानुभूति नहीं रख सकता जिसमें कहा जा रहा है कि हत्यारा मजहबी उन्मादी था। वह प्रकाशक से कम मेरा भाई नहीं है। दोनों ही मातृभूमि भारत के पुत्र हैं।” (यंग इंडिया, 18 अप्रैल 1929)। बल्कि, गाँधी ने राजपाल को ही दोषी ठहराया, मानो उन्होंने ही हत्या को उकसाया: “मुझे यह जोड़ना चाहिए कि जो लोग ऐसे लेख लिखते हैं जो किसी वर्ग की धार्मिक संवेदनाओं को ठेस पहुँचाने के लिए हैं, वे हिंसा को उकसाने के दोषी हैं।” जब कि राजपाल ने भगवान कृष्ण पर घृणित आक्षेप लगाने वाली पुस्तिका के प्रत्युत्तर में जवाबी पुस्तिका छापी थी, जिस का लेखक कोई अन्य था। पर गाँधी ने राजपाल की एकतरफा और अनुचित निंदा की। वैसे ही, जैसे पहले स्वामी श्रद्धानंद की हत्या, और उस से पहले मोपला जिहादियों वाले संदर्भों में किया था।

सो, वही गाँधी स्वतंत्र भारत के ‘राष्ट्रपिता’ हैं तो न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के भी पिता हैं। अतः हिन्दुओं को जब चाहे, बात-बेबात फटकारना, और मुस्लिमों का हर हाल में बचाव करना भारतीय शासक वर्ग का एक प्रकार का सिग्नेचर ट्यून रहा है। जो नेता गौ-रक्षकों को ‘गुंडा’ बताते हैं, वे कन्हैया लालों के गले रेते जाने पर मौन रहते हैं। ‘तुष्टिकरण’ की निंदा करके गद्दी पाकर और भी ‘तृप्तिकरण’ में डूब जाते हैं। यही बरायनाम राष्ट्रीय नीति है। बाल ठाकरे जैसे अपवादों को छोड़, सभी नेता जिहाद और उस के प्रेरक मतवाद पर चुप रहते हैं। बल्कि उस के प्रति श्रद्धा दिखाते, खुद भी बड़े-बड़े इस्लामियों पर चादर चढ़ाते हैं।

तदनुरूप सुप्रीम कोर्ट ने भी गुजरात में मुस्लिम पीड़ितों के लिए जो उत्साह दिखाया, उस का ठीक उल्टा कश्मीरी पंडितों के लिए था। 1989-90 के दौरान‌ कश्मीरी पंडितों के संहार पर याचिका को सुनने से इनकार कर दिया (24 जुलाई 2017) कि अब बहुत समय बीत गया, ‘कुछ परिणाम नहीं निकलेगा’।

यह न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका का ही अनुकरण था। भारतीय संसद ने देश-विभाजन पर चर्चा नहीं की, जिसमें लाखों हिंदुओं का विनाश हुआ था। बड़ी संख्या में जबरन धर्मांतरित होने की पीड़ा सहनी पड़ी, जो मुस्लिम पीड़ितों को नहीं हुई थी। आगे, उसी संसद ने अपने ही राज में कश्मीर में हिन्दुओं की लगातार हत्याओं तथा अंततः सफाए पर कभी चर्चा नहीं की। राजनीतिक दलों ने 1990-91 में कश्मीर में खुले आम मस्जिदों और अखबारों के माध्यम से घोषित जिहाद और हिन्दुओं को भगाने के आह्वान पर सामूहिक चुप्पी रखी। उस पूरे दौर विधायिका और कार्यपालिका नेता क्या करते रहे, यह उस समय के राष्ट्रीय अखबार दिखाते हैं।

संसद ने कश्मीर में हिंदुओं का संहार दर्ज करने का भी कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया। कार्यपालिका ने दशकों तक कश्मीर में असहाय हिंदुओं पर हुए भयावह अत्याचारों, और अंततः सफाए के बाद भी कोई श्वेत-पत्र तक जारी नहीं किया। कुछ करना तो दूर।

इस तरह, स्वतंत्र भारत में कश्मीरी पंडित लाखों की संख्या में अपने ही देश में शरणार्थी हो गये। शासन के तीनों अंग सोए रहे। अब बंगाल में अधिक धीमी गति, पर उसी रीति से वही हो रहा है।  अनेक अन्य स्थानों पर भी लघु रूप में। जबकि ब्रिटिश राज में सनातन धर्म और हिन्दू सुरक्षित रहे थे। यह हमारे महापुरुषों ने दर्ज किया है। बंकिम चन्द्र के ‘आनन्द मठ’ का अंतिम अंश‌ पढ़ कर देखें।

अतः अभी सुप्रीम कोर्ट पर रंज होने वालों को पूरी भारतीय राज्यनीति की समीक्षा करनी चाहिए। जो सौ साल पहले राष्ट्रवादी आंदोलन के उभार के साथ बनती हुई आज भी ठसक से चल रही है। इस हमाम में अपवाद छोड़कर सभी राष्ट्रवादी नेता, दल, और संगठन एक-से हैं। सब की माता भीरूता देवी हैं, न कि आद्या शक्ति।

By शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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