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अनंत रूपा और अनंत सामर्थ्य संपन्ना शक्ति

भारतीय संस्कृति ने प्रकृति को शक्ति माना और देवी की तरह पूजनीय स्थान दिया। यह शक्ति शाश्वत और सक्रिय है। वैदिक वचनों और संहिताओं में इसका उल्लेख है, और इसे ब्रह्म की गति और अभिव्यक्ति कहा गया है। यही परम सत्य है, जो ऋग्वेद से लेकर परमाणु की ऊर्जा तक विद्यमान है। मान्यता है कि शक्ति ईश्वर की माया है, जो उसकी आज्ञा से सृष्टि रचती है। यही अनंतरूपा और अनंतसामर्थ्यसंपन्ना है।

परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति — ये तीनों अनादि और अजन्मा हैं। ये हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। भारतीय संस्कृति ने प्रकृति को शक्ति माना और देवी की तरह पूजनीय स्थान दिया। यह शक्ति शाश्वत और सक्रिय है। वैदिक वचनों और संहिताओं में इसका उल्लेख है, और इसे ब्रह्म की गति और अभिव्यक्ति कहा गया है। यही परम सत्य है, जो ऋग्वेद से लेकर परमाणु की ऊर्जा तक विद्यमान है। मान्यता है कि शक्ति ईश्वर की माया है, जो उसकी आज्ञा से सृष्टि रचती है। यही अनंतरूपा और अनंतसामर्थ्यसंपन्ना है। जगत रूप में व्यक्त होती है और प्रलय के समय सबको अपने में समेटकर अव्यक्त रूप में रहती है।

यही जगत की व्यवस्था है। ब्रह्मांड की समझ बदलती रही, पर यह सत्य अटल है। गीता में इसे योगमाया कहा गया है। श्रीकृष्ण इसी योगमाया का आश्रय लेकर अपनी लीला करते हैं। राधा उनकी आनंदिनी शक्ति है। इसी तरह शिव भी बिना शक्ति के कुछ नहीं कर सकते। शक्ति ही सृजन, पालन और संहार का स्रोत है, इसलिए भारतीय संस्कृति में उसे देवी और माता कहा गया है।

सभी ग्रंथों में इसका उल्लेख है। पुराणों में देवताओं की अलग-अलग शक्तियों का वर्णन मिलता है — जैसे विष्णु की वैष्णवी, कीर्ति, कांति, तुष्टि, पुष्टि और रुद्र की रुद्राणी, ज्वालामुखी आदि। मार्कण्डेयपुराण के अनुसार सभी देवताओं की शक्तियों का रूप देवी ही हैं — वैष्णवी, माहेश्वरी, ब्रह्माणी, कौमारी, वाराही आदि।

शक्ति शब्द संस्कृत के “शक्” धातु से निकला है, जिसका अर्थ है सक्षम होना। शक्ति ब्रह्मांड की सक्रिय क्षमता है, जो स्त्री-पुरुष के भेद से परे है। यह द्वैत से परे की शक्ति है। पाश्चात्य विचार जहाँ ऊर्जा और पदार्थ को अलग करता है, वहीं वैदिक ज्ञान उन्हें शक्ति में एक कर देता है। चेतना की ऊर्जा यानी चितशक्ति ही ब्रह्मांड को शक्ति देती है। शक्ति ब्रह्म की सांस है, शाश्वत की इच्छा है और ब्रह्मांड का सामंजस्य है। शक्ति असंख्य नामों से जानी जाती है, पर अनुभव एक ही है — असीम शक्ति। यही ब्रह्मांड की धड़कन है।

इसे पहचानना अपने भीतर ब्रह्मांड की धड़कन जगाना है। यह कल्पना या रूपक नहीं, बल्कि वास्तविकता है, जो ऊर्जा, पदार्थ, ध्वनि और चेतना में प्रकट होती है। शब्द की अर्थव्यंजना को शब्दशक्ति कहा गया है। आचार्यों ने इसे तीन रूपों में बताया — अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। मिट्टी और चक्र से घड़ा बनता है, तो चक्र का घूमना शक्ति है। इसी तरह शब्द का प्रयोग भी शक्ति है। विद्वानों ने शब्दशक्ति को ईश्वरेच्छा का संकेत माना। बाद में इसे इच्छा मात्र से भी जोड़ा गया। तर्कदीपिका में इसे शब्द और अर्थ के बीच संबंध माना गया, जो मन में अर्थ प्रकट करता है। आज यही व्यापार अभिधा, लक्षणा और व्यंजना के रूप में मनुष्यों के जीवन का हिस्सा है।

भारत में शक्ति की यह अवधारणा बहुत प्राचीन है। ऋग्वेद 10/125/1-8 का देवी सूक्त इसकी पुष्टि करता है—

“मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों और सभी देवताओं के साथ विचरण करती हूँ। मैं मित्र, वरुण, इंद्र, अग्नि और अश्विनों को धारण करती हूँ।”

यह मंत्र किसी अलग देवता की स्तुति नहीं, बल्कि सार्वभौमिक शक्ति की घोषणा है। सभी देवता उसी से शक्ति पाते हैं। बिना शक्ति वे जड़ हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद भी कहता है कि वही देवी संसार को जन्म देती है और उसमें विलीन कर देती है। ऋग्वेद के अनुसार देवता भी देवी को परमशक्ति मानकर पूजते हैं।

पाश्चात्य विज्ञान ऊर्जा को एक क्षेत्र से उत्पन्न मानता है, जबकि वैदिक विज्ञान कहता है कि वही क्षेत्र शक्ति है। मनुष्य के भीतर यह शक्ति कुंडलिनी ऊर्जा के रूप में सुप्त रहती है। साधना से जागृत होकर ऊपर उठती है और आत्मा को परमात्मा से मिला देती है। यही सबसे सच्चा अनुभव है। सूक्ष्म जगत में शक्ति प्राण है, स्थूल जगत में आकाशगंगाओं की गति है। यही पार्वती, दुर्गा, काली, सरस्वती और लक्ष्मी के रूप में प्रवाहित होती है। आधुनिक विज्ञान कहता है कि ऊर्जा और पदार्थ एक-दूसरे में बदल सकते हैं।

वैदिक मत के अनुसार शिव चेतना हैं और शक्ति ऊर्जा — दोनों अलग नहीं हैं। जब कोई कण शून्य से प्रकट होता है, तो यह शक्ति की ही लीला है। तंत्र में यह प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक अध्यात्म है। आज बाहरी चकाचौंध में मनुष्य अपनी आंतरिक शक्ति से कट गया है। अवसाद और तनाव इसी का परिणाम हैं। इसलिए शक्ति का आह्वान जरूरी है। योग, ध्यान और साधना से यह संभव है।

कुंडलिनी के जागरण के लिए वैदिक मंत्रों की ध्वनियों और बीज मंत्रों का सहारा लिया जाता है। निस्वार्थ कर्म भी सार्वभौमिक शक्ति से जोड़ता है। तंत्र और योग से चेतना का रूपांतरण होता है। वैदिक ज्ञान मानता है कि शक्ति ब्रह्मांड की वही अद्भुत शक्ति है, जो जीवित है, सांस लेती है और सबको बदल देती है। उससे जुड़कर मनुष्य अस्तित्व की शाश्वत ज्योति से जुड़ सकता है।

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By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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