यह हमारी राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा के संक्रमण काल का चरम है। इस दौर के उस पार एक मुकद्दस आसमान हमारा इंतज़ार कर रहा है। बस, आ पहुंचे हैं, दूर नहीं कुछ, चार क़दम अब चलना है। जो लोग नरेंद्र भाई मोदी के आजीवन सत्तासीन बने रहने में यक़ीन करते हैं, वे चंद महीनों बाद अपना माथा पीट रहे होंगे। अगली होली आते-आते हमारे वर्तमान अधिपतियों के चेहरे इतने बदरंग हो चुके होंगे कि पहचाने नहीं जाएंगे। देखते रहिए, इस बार टेसू के फूल नए रंग बिखेरने वाले हैं।
मतदाता सूचियों में ‘संगठित’ और ‘केंद्रीयकृत’ तिकड़मों के ज़रिए देश भर के निर्वाचन क्षेत्रों में ‘चयनित’ तरीक़े से भारी पैमाने पर हेरफेर करने की कोशिशों को राहुल गांधी ने अपनी दो विस्तृत प्रस्तुतियों से पूरी तरह उजागर कर दिया है। कहने को निर्वाचन आयोग कुछ भी कहे, आयोग से भी ज़्यादा भारतीय जनता पार्टी कोई भी सफ़ाई दे, यह तथ्य जन-मन में समा गया है कि गड़बड़ी हो रही है और जिन पर मतदाता सूचियों की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा है, वे अपनी ज़िम्मेदारी जानबूझ कर नहीं निभा रहे हैं। अवाम के एक बड़े तबक़े के दिमाग़ में यह सवाल भी खदबदाने लगा है कि कहीं यह सब निर्वाचन आयोग की मिलीभगत से तो नहीं हो रहा है?
राहुल की मचाई हलचल से उपजे अपराध-बोध की वज़ह से निर्वाचन आयोग आंय-बांय-शांय प्रलाप कर रहा है। प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी के उठाए प्रश्नों का स्पष्ट जवाब देने के बजाय वह उन के प्रति अवमाननाकारक टिप्पणियां कर रहा है। आयोग की चाय से भी, ज़्यादा ग़र्म केतली के, कर्तव्य का निर्वाह करने में भाजपा बुरी तरह और पूरी तरह जुट गई है। विपक्ष के नेता को देश विरोधी बताया जा रहा है, उन्हें अराजकता फैलाने का षड्यंत्र रचने वाला कहा जा रहा है और उन के किए पर्दाफ़ाश के पीछे विदेशी ताक़तों का हाथ होने की अफ़वाहें फैलाई जा रही हैं।
वोट-चोरी श्रंखला में राहुल के दूसरे पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के बाद पूरा माहौल ऐसा हो गया है गोया निर्वाचन आयोग तो निर्वाचन आयोग, समूचे अनुचर-मीडिया, भाजपा और उस की सरकार के पांव ताताचट तवे पर पड़ गए हों। नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री-काल में जितनी कालिख चुनाव आयोग के मुंह पर पुती है, उतनी 25 जनवरी 1950 के बाद 65 साल में कभी नहीं पुती थी। राहुल की कही बातों में अगर ज़रा-सी भी सच्चाई नहीं होती तो क्या आम लोग चुनाव आयोग के चरित्र को ले कर इस तरह शंकालु हो जाते? आयोग के लिए तो यही बेहद चिंता की बात होनी चाहिए कि आख़िर उस की कार्यशैली में ऐसा क्या खोट आ गया है कि लोग उस की साख पर संदेह करने लगे हैं?
देश के 17वें मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे शहाबुद्दीन याकूब कुरैशी, 22 वें मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे ओम प्रकाश रावत और 2018 से 2020 के बीच ढाई साल से कुछ ज़्यादा वक़्त तक केंद्रीय चुनाव आयुक्त रहे अशोक लवासा तक ने मौजूदा निर्वाचन आयोग और मुख्य निर्वाचन आयुक्त के कामकाज की शैली पर गंभीर प्रश्न उठाए हैं। तीनों ने वर्तमान आयोग की निष्पक्षता, पारदर्शिता और शुचिता को ले कर गहरी निराशा का इज़हार किया है। राहुल तो चलिए, राजनीतिक हैं, सो, हम आयोग और भाजपा की तरफ़ से कही जा रही इन बातों को मान लेते हैं कि वे अपने सियासी कारणों से चुनाव-प्रक्रिया के बारे में संदेह खड़े करने का काम कर रहे हैं। मगर क्या निर्वाचन आयोग का हिस्सा रहे कुरैशी, रावत और लवासा के उठाए मुद्दों को भी हम दरकिनार कर दें?
पिछले 11 बरस से भक्ति-भाव में सराबोर हो कर अपने आराध्य की लोरियों पर थिरक रहे मीडिया-सूत्रधारों को पिछले सवा महीने से यह फ़िक्र सता रही है कि कांग्रेस आने वाले चुनावों में राहुल की पीपीटी-प्रस्तुतियों से कैसे जीतेगी? हर शाम की टीवी बहसों में एंकर अपनी ठोड़ी पर हाथ रखे इसी चिंता में मग्न नज़र आते हैं। हर सुबह अख़बारों के पन्नों पर स्वनामधन्य संपादकों की यही फ़िक्रमंद स्याही बिखरी होती है। मीडिया का यह वर्ग लगातार कह रहा है कि राहुल को जनता से जुड़ना चाहिए, राहुल को ज़मीन पर जाना चाहिए, राहुल को यह करना चाहिए, राहुल को वह करना चाहिए। कांग्रेस को एक दिन इतना सशक्त देखने की इस सद्इच्छा की बलैयां लेने को मन होता है कि वह नरेंद्र भाई से सत्ता छीन ले।
इन (कु)ख्यातिनाम संपादकों-पत्रकारों-सूत्रधारों को न ‘भारत जोड़ो यात्रा’ करते राहुल कभी दिखाई दिए, न ‘वोट अधिकार यात्रा’ में उन्हें राहुल का चेहरा नज़र आया, न पंजाब की बाढ़ में उन्हें राहुल की उपस्थिति दिखी और न नियमगिरि की पहाड़ियों से ले कर भट्टा-पारसौल तक में वंचितों की लड़ाई लड़ते राहुल पर उन की निग़ाह पड़ी। वे बेचारे यह यह हक़ीक़त स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं कि पिछले दस साल में नरेंद्र भाई के जन-जुड़ाव का आभासी क्षितिज बेतरह सिकुड़ गया है और राहुल के वास्तविक दिगंत का अद्भुत विस्तार हुआ है।
अभी गृह मंत्री अमित भाई शाह बिहार में उन कुछ स्थानों पर गए, जहां से राहुल की यात्रा गुज़री थी। अपनी जनसभाओं में वहां उन्होंने सवाल दागा कि राहुल यहां की यात्रा पर आए थे? लोगों ने हाथ उठा कर जवाब दिया – हां, आए थे। अमित भाई ने पूछा – उन की यात्रा का विषय क्या था? लोगों ने एक स्वर में जवाब दिया – वोट चोरी। गृह मंत्री हकबका गए। उन का मुंह थोड़ी देर के लिए खुला-का-खुला रह गया। फिर उन्होंने लोगों को समझाने की कोशिश की कि कहीं कोई वोट-चोरी नहीं हुई है और राहुल किस तरह अराजकता फैलाने का काम कर रहे हैं। अमित भाई को इस पर तालियों की उम्मीद रही होगी। मगर तालियां नहीं बजीं।
ज़ाहिर है कि इस तरह के दृश्य हमारे मौजूदा हुक़्मरानों को बेहद असहज कर रहे हैं। वे नए सिरे से राहुल के ख़िलाफ़ विमर्श गढ़ने के काम में जुट गए हैं। वे परेशान हैं कि इतने संसाधन झोंकने के बाद कई बरस की मेहनत से राहुल के बारे में उन्होंने जो पप्पू-अवधारणा विकसित की थी, वह सवा साल में पूरी तरह ढह कैसे गई? भाजपा के नाभि-मंडल से संबद्ध दिग्गजों के दिन-रात आजकल किसी भी उत्पाद, राजनीतिक दल और व्यक्ति के बारे में हर तरह के सच्चे-झूठे आख्यान गढ़ कर बाज़ार में फेंकने में माहिर वैश्विक कंपनियों को भाड़े पर रखने की जुगत भिड़ाने में बीत रहे हैं। सो, आने वाले दिनों में राहुल के ख़िलाफ़ गंदली बौछारों का एक सत्र हमें देखने को मिलेगा। यह अलग बात है कि राहुल के निस्पृह परिश्रम ने अब उन के सिर पर स्वयमेव एक ऐसी छतरी तान दी है कि सारे पतनाले इधर-उधर छितरने लगे हैं। राहुल को हंसी का पात्र बनाने वाले अब ख़ुद लोगों की हंसी के पात्र में तब्दील होने लगे हैं।
राहुल की पीपीटी-श्रंखला के कम-से-कम तीन महत्वपूर्ण अध्याय अभी बाक़ी हैं। देश की निर्वाचन प्रणाली की कुविचारित ख़ामियों को बेनक़ाब करने के लिए जो हाइड्रोजन बम गिराने का संकल्प राहुल ने लिया है, उस के स्वागत की तैयारियां कीजिए। मैं आप से इतना ही कह सकता हूं कि उस से ऐसी प्रलय आएगी कि उस के बाद एक नई सृष्टि के निर्माण के अलावा कोई और विकल्प बचेगा ही नहीं। यह हमारी राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा के संक्रमण काल का चरम है। इस दौर के उस पार एक मुकद्दस आसमान हमारा इंतज़ार कर रहा है। बस, आ पहुंचे हैं, दूर नहीं कुछ, चार क़दम अब चलना है। जो लोग नरेंद्र भाई मोदी के आजीवन सत्तासीन बने रहने में यक़ीन करते हैं, वे चंद महीनों बाद अपना माथा पीट रहे होंगे। अगली होली आते-आते हमारे वर्तमान अधिपतियों के चेहरे इतने बदरंग हो चुके होंगे कि पहचाने नहीं जाएंगे। देखते रहिए, इस बार टेसू के फूल नए रंग बिखेरने वाले हैं।