कहानी चौंका देने वाली है। मगर यह अस्पताल जिस मॉडल का हिस्सा है, उसमें ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं। और ये मॉडल सिर्फ स्वास्थ्य क्षेत्र का नहीं है। बल्कि शिक्षा, परिवहन, संचार आदि क्षेत्रों में भी यही मॉडल अपनाया गया है।
राजधानी दिल्ली के मशहूर अपोलो अस्पताल ने सरकार से जमीन लेते वक्त जो शर्त मानी थी, उसे उसने पूरा नहीं किया है, यह बात कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान सामने आई थी। तब कोर्ट ने चेतावनी दी थी कि लीज शर्त का पालन नहीं हुआ, तो वह अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल का प्रबंधन संभाल लेने का निर्देश देगा। अब एक अंग्रेजी अखबार की खोजी रिपोर्ट से सामने आया है कि आखिर न्यायालय ने इतना सख्त रुख क्यों अपनाया।
क्या फेल हो रहा है निजी मॉडल?
रिपोर्ट के मुताबिक राजधानी के महंगे इलाके में एक रुपया महीने के प्रतीकात्मक किराये के आधार पर 15 एकड़ जमीन इस अस्पताल को दिल्ली सरकार ने दी। उसमें शर्त यह थी कि अस्पताल अपने एक तिहाई बिस्तर गरीब मरीजों के लिए आरक्षित रखेगा और उन मरीजों का मुफ्त इलाज करेगा। मगर अखबारी रिपोर्ट में बताया गया है कि जितने बिस्तरों का वादा था, उसका सिर्फ 17 प्रतिशत गरीब मरीजों को मिला। गरीबों के इलाज के आंकड़ों की कुछ खानापूर्ति ओपीडी इलाज के जरिए की गई, जहां मोटे तौर पर मरीजों को सिर्फ इलाज संबंधी सलाह दी जाती है। जाहिर है, यह कहानी चौंका देने वाली है। मगर हकीकत यही है कि ये अस्पताल जिस मॉडल का हिस्सा है, उसमें ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं।
और ये मॉडल सिर्फ स्वास्थ्य क्षेत्र का नहीं है। बल्कि शिक्षा, परिवहन, संचार आदि क्षेत्रों में भी खासकर नव-उदारवादी दौर में यही मॉडल अपनाया गया है। मुनाफा प्रेरित निजी क्षेत्र की कंपनियों को सार्वजनिक संसाधन ट्रांसफर करने के लिए हर जगह गरीबों के कल्याण या देश की विकास जरूरतों का तर्क दिया गया है। लेकिन कभी यह ऑडिट करने की कोशिश नहीं हुई कि जो लक्ष्य बताए गए थे, उन्हें हासिल करने की दिशा में सचमुच कितनी प्रगति हुई है।
यह कथा अक्सर परदे के पीछे ही रहती है, सिवाय कभी-कभार के, जब मामला न्यायालय में पहुंच जाता है। इसलिए यहां मुद्दा अपोलो अस्पताल को दंडित करने भर का नहीं है। मुद्दा है उस मॉडल की उपयोगिता पर बहस करना, जिसके तहत इस अस्पताल को सरकारी जमीन लगभग मुफ्त में दी गई।
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