नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यू को 83 सीटें मिली हैं। 2010 के चुनाव के बाद यह उनका सबसे अच्छा प्रदर्शन है। पिछली बार के मुकाबले उनकी सीटें लगभग दोगुनी हो गई हैं। 2020 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 43 सीटें मिली थीं। अब सवाल है कि क्या 43 से बढ़ कर 83 सीटों पर पहुंचने के बाद नीतीश ज्यादा मजबूत हुए हैं या उनकी राजनीतिक मोलभाव करने की ताकत कम हो गई है? इस सवाल का जवाब भाजपा के नंबरों में निहित है। भारतीय जनता पार्टी बिहार विधानसभा में पहली बार चुनाव जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी है। पिछले चुनाव में वह दूसरे नंबर की पार्टी बनी थी लेकिन बाद में विपक्षी पार्टियों के कुछ विधायकों के टूट कर आने से वह सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी। इस बार वह चुनाव में 89 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी है। नीतीश की राजनीतिक मोलभाव की ताकत कम हुई इसका दूसरा संकेत राष्ट्रीय जनता दल की सीटों में हैं। पिछले दो चुनावों से सबसे बड़ी पार्टी बन रही राजद इस बार 25 सीटों पर सिमट गई है। वह बहुत बड़े अंतर से तीसरी स्थान पर रही है।
सिर्फ 43 सीट जीत कर भी नीतीश कुमार को मोलभाव की ताकत ज्यादा इसलिए थी क्योंकि राजद के पास 75 सीटें थीं। इनके अलावा बिहार की तीनों लेफ्ट पार्टियों के पास 16 और कांग्रेस के पास 19 सीटें थीं। इसके बाद ओवैसी की एमआईएम के पास भी पांच सीटें थीं। भाजपा अपनी 74 सीटों के साथ किसी स्थिति में बिना नीतीश कुमार के सरकार नहीं बना सकती थी। तभी बड़े आराम से नीतीश कुमार ने 2022 में भाजपा को छोड़ दिया और राजद, कांग्रेस व लेफ्ट के साथ मिल कर सरकार बना ली। इस बार राजद सिर्फ 25 सीटों पर है। कांग्रेस को छह, लेफ्ट को तीन और एमआईएम को पांच सीटें मिली हैं। यानी अगर नीतीश कुमार की 83 सीटें इसमें जोड़ दी जाएं तब बड़ी मुश्किल से बहुमत का जादुई आंकड़ा पूरा होता है। इसमें अगर कांग्रेस के एक दो विधायक भी इधर उधर हो गए या राजद के विधायक ही टूट गए तो कुछ भी हो सकता है।
दूसरी ओर भाजपा के 89 विधायकों के साथ अगर चिराग पासवान की पार्टी के 19, जीतन राम मांझी के पांच और उपेंद्र कुशवाहा के चार विधायकों को जोड़ते हैं तो आंकड़ा 117 पहुंच जाता है। यानी अगर भाजपा जोड़ तोड़ करे तो वह बिना जनता दल यू के सरकार बना सकती है। हालांकि भाजपा के नेता अभी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि सबको पता है कि इस बार का चुनाव नीतीश कुमार के नाम पर लड़ा गया है और जनादेश पर उनके नाम की छाप है। अभी उनको सीएम नहीं बनाने का उलटा असर हो सकता है। यह भी हो सकता है कि मांझी और कुशवाहा भी नीतीश का साथ नहीं छोड़ें क्योंकि दोनों के विधायकों की जीत में नीतीश के वोट और उनके प्रति मतदाताओं के सद्भाव का बड़ा हाथ है। हालांकि तब भी अब नीतीश कुमार भाजपा की कृपा पर ज्यादा निर्भर होंगे। वे 43 सीटें लेकर ज्यादा मजबूत और राजनीतिक मोलभाव करने की स्थिति में थे क्योंकि विपक्षी पार्टियां मजबूत थीं और उनकी संख्या बड़ी थी। अब ज्यादा सीट जीत कर नीतीश राजनीतिक मोलभाव में कमजोर हुए हैं क्योंकि विपक्ष का सफाया हो गया है। अब बिहार सरकार के कामकाज में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का दखल पहले से ज्यादा बढ़ेगा।


