उत्तर भारत के तीन राज्यों में चुनावी हार के बाद कांग्रेस की सर्वोच्च बॉडी सीडब्लुसी की बैठक हुई, लेकिन उसमें हार की जिम्मेदारी किसी पर तय नहीं की गई। इससे पहले राज्यवार समीक्षा हुई थी। खुद सोनिया गांधी ने कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में बुधवार को कहा था कि पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पहले राउंड की समीक्षा बैठक की है। इन बैठकों में राहुल गांधी भी शामिल होते थे। तभी जब राज्यवार समीक्षा के बाद कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाई गई तो समझा जा रहा था कि पार्टी जिम्मेदारी तय करेगी और कुछ सख्त फैसले करेगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
कार्य समिति की बैठक में मध्य प्रदेश की हार के लिए पूरी तरह से कमलनाथ और आंशिक रूप से दिग्विजय सिंह को जिम्मेदार ठहराया गया। इन दोनों नेताओं पर हमले की कमान कांग्रेस महासचिव मुकुल वासनिक ने संभाली और बाद में रणदीप सुरजेवाला ने भी इन पर ठीकरा फोड़ा। सोचें, चुनाव से ठीक पहले राज्य के प्रभारी जयप्रकाश अग्रवाल को हटा दिया गया और उनकी जगह सुरजेवाला लाए गए थे। लेकिन वो उलटे राज्य के नेताओं पर ठीकरा फोड़ रहे हैं। उनकी क्या जिम्मेदारी थी? अगर कमलनाथ काम नहीं करने दे रहे थे या बात नहीं सुन रहे थे तो उन्होंने क्यों नहीं यह बात पार्टी आलाकमान को बताई? अगर आलाकमान को बताई थी और तब भी कोई फैसला नहीं हुआ तो क्या हार की जिम्मेदारी केंद्रीय नेतृत्व की भी नहीं बनती है?
इसी तरह छत्तीसगढ़ की प्रभारी कुमारी शैलजा ने परोक्ष रूप से राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर निशाना साधा और कहा कि वे किसी की सुनने को तैयार नहीं थे। यानी वे अपने हिसाब से सारे फैसले कर रहे थे और चुनाव लड़ रहे थे इसलिए हार की जिम्मेदारी उनकी बनती है। सोचें, पीएल पुनिया को हटाने के बाद शैलजा लंबे समय से प्रभारी थीं। टीएस सिंहदेव को उप मुख्यमंत्री बनाने और प्रदेश अध्यक्ष बदलने से लेकर टिकट बंटवारे तक के हर फैसले में वे शामिल थीं और कभी ऐसा संकेत नहीं मिला कि उनका कोई मतभेद बघेल से है। लेकिन चुनाव हारने के बाद शैलजा की कोई जिम्मेदारी नहीं है। सबसे हैरानी की बात यह रही कि इस तरह की कोई बात राजस्थान को लेकर नहीं हुई। वहां नहीं कहा गया कि अशोक गहलोत ने चुनाव हरवा दिया।
असल में कांग्रेस ने एक मॉडल विकसित किया है, जिसमें सब कुछ प्रादेशिक क्षत्रपों के हवाले छोड़ा हुआ है। हार-जीत सब उनकी होती है। जैसे कर्नाटक में सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार जीते तो तेलंगाना में रेवंत रेड्डी जीते और इसी तरह मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वहां के क्षत्रप हार गए। इसका फायदा यह होता है कि केंद्रीय नेतृत्व पर उठने वाले सवाल टाले जा सकते हैं। लेकिन कायदे से कार्य समिति की बैठक में जिम्मेदारी तय होनी चाहिए थी। केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व दोनों की। राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर राहुल गांधी व प्रियंका गांधी वाड्रा और उनके द्वारा नियुक्त प्रभारियों की भूमिका पर भी चर्चा होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस लगातार हारों से भी कोई सबक नहीं सीख रही है। सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलाए रखने की सोच है।