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  • चुनाव में क्या कुछ भी वादा किया जा सकता है?

    राजनीतिक दलों और नेताओं में आखिर इतनी हिम्मत कहां से आती है कि वे चुनाव से पहले कुछ भी वादा कर देते हैं? लोकतंत्र के लिए यह बहुत जरूरी सवाल है और इसका सीधा सरल जवाब यह है कि चूंकि जनता चुनाव के बाद नेताओं को जवाबदेह नहीं ठहराती है, उनसे उनके वादों के बारे में पूछताछ नहीं करती है इसलिए नेताओं में यह हिम्मत आती है। अगर चुनाव के बाद लोग घोषणापत्र लेकर नेताओं का सामना करें और उनको जवाबदेह ठहराएं तो धीरे धीरे इसमें बदलाव आ सकता है। लेकिन जैसा कि एक लेखक ने लिखा है कि अगर...

  • पार्टियों को खुद सुधार करना होगा

    भारत में राजनीतिक दल संविधान, लोकतत्र, संसदीय व्यवस्था, नैतिकता, परंपरा आदि की जितनी बातें करते हैं अगर उसके एक प्रतिशत पर भी अमल करते तो देश की राजनीति ऐसी स्थिति में नहीं पहुंची होती कि उसमें सुधार के लिए लोगों को सर्वोच्च अदालत के पास जाना होता और अदालत को भी नोटिस जारी करना पड़ता! सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें कहा गया है कि अदालत राजनीतिक दलों में बढ़ते भ्रष्टाचार, जातिवाद, सांप्रदायिकता, अपराधीकरण और काले धन को सफेद करने के खेल पर सख्त कार्रवाई करे और राजनीतिक दलों के कामकाज को नियंत्रित करने के लिए...

  • टीवी बहस के नाम पर जो है वह

    एक शोध के अनुसार, टीवी पर बहस में एंकरों द्वारा आक्रामक लहजे का इस्तेमाल 80 प्रतिशत से अधिक होता है, जो दर्शकों पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है। ये आंकड़े बताते हैं कि बहसें अब सूचना का स्रोत नहीं, बल्कि प्रचार का हथियार बन चुकी हैं। ... भारत की टीवी बहसें लोकतंत्र का मजाक बन चुकी हैं। अपमानजनक प्रवक्ताओं का बोलबाला न केवल बहसों को निरर्थक बनाता है, बल्कि समाज को विभाजित करता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाता है। और लोकतंत्र की रीढ़ संवाद और विमर्श माने जाते हैं। पर भारत में अब टीवी बहसें एक ऐसा...

  • पार्टी और सरकार का फर्क अब खत्म है!

    भारत में शासन की जो व्यवस्था अपनाई गई है कि उसमें सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच बहुत बारीक फर्क होता है और इस फर्क को निभाने की जिम्मेदारी सरकार के मुखिया और सत्तारूढ़ दल के प्रमुख दोनों की होती है। साथ ही तमाम संवैधानिक और वैधानिक संस्थाओं, न्यायपालिका और मीडिया की भी जिम्मेदारी होती है कि वे इस फर्क की याद दिलाते रहें। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से धीरे धीरे सरकार और सत्तारूढ़ दल का बारीक सा फर्क मिटता गया है और अब वह लगभग समाप्त हो गया है। अब चाहे केंद्र की बात करें...

  • सियासी अपशब्द समाज को बिगाडते है !

    राजनेताओं के अपशब्द और गैर-जिम्मेदाराना बयान समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। ये बयान न केवल जनता के बीच नकारात्मक भावनाओं को भड़काते हैं, बल्कि सामाजिक समरसता को भी नुकसान पहुँचाते हैं। सोशल मीडिया के युग में, जहाँ ये बयान तेजी से वायरल होते हैं, इनका प्रभाव और भी व्यापक हो जाता है। इससे न केवल राजनीतिक तनाव बढ़ता है, बल्कि सामाजिक ध्रुवीकरण भी होता है। भारत, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है, एक ऐसा देश है जहाँ विविधता उसकी ताकत और चुनौती दोनों है। यहाँ की राजनीति में विभिन्न दलों के राजनेता अपने विचारों, नीतियों और...

  • विपक्ष का बदला बदला रवैया

    सरकार और विपक्ष दोनों एक दूसरे के एजेंडे और एक दूसरे की राजनीति से सीख रहे हैं। हर बात पर एक दूसरे का विरोध करने की बजाय पार्टियां एक दूसरे की सफल राजनीतिक एजेंडे को अपना भी रही हैं। हाल के दिनों में दिखा कि कैसे सरकार ने विपक्ष से सीखा और उसके एजेंडे पर आगे बढ़ कर जाति जनगणना का ऐलान कर दिया। इसी तरह यह भी देखने को मिला की विपक्ष ने सरकार से बेवजह टकराव बढ़ाने और भारतीय सेना के अभियान पर सवाल उठाने की बजाय सरकार औऱ सेना का साथ दिया। समूचा विपक्ष पूरी तरह से...

  • चार दिन की चांदनी फिर राजनीति शुरू

    आतंकवादियों ने 22 अप्रैल को जम्मू कश्मीर के पहलगाम में बेकसूर सैलानियों को निशाना बनाया और 26 लोगों की हत्या कर दी। उसके दो दिन के बाद नई दिल्ली में सर्वदलीय बैठक हुई और सभी पार्टियों के नेता जुड़े, जहां सबने एक स्वर में कहा कि उनका समर्थन सरकार के साथ है। अगले दिन लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी जम्मू कश्मीर के दौरे पर गए और वहां भी उन्होंने कहा कि कांग्रेस पूरी तरह से सरकार के साथ है और आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकार जो भी कदम उठाएगी कांग्रेस उसका समर्थन करेगी। कांग्रेस के अलावा दूसरी विपक्षी...

  • इफ्तार का सीजन लौट आया है

    पिछले कुछ समय से इफ्तार की दावतें नहीं होती थीं। केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद धीरे धीरे इफ्तार का चलन खत्म हो गया या काफी हद तक कम हो गया। एक समय था, जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इफ्तार की दावतों में शरीक होते थे और उनके मंत्री भी जालीदार टोपी लगाकर उसमें हिस्सा लेते थे। (Iftar) कई बरसों के बाद इस साल दिल्ली से लेकर पटना और मुंबई तक इफ्तार की धूम है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस और दूसरी भाजपा विरोधी पार्टियां इफ्तार की दावत दे रही हैं और उन्हीं के नेता शामिल...

  • ‘वादे पे तेरे मारा गया बंदा मैं सीधा-सदा’

    एक समय था जब नेता अपने क्षेत्र की जनता को सर-आँखों पर बिठा कर रखते थे। उनकी हर छोटी-बड़ी समस्या का हल निकालने के लिए हर मुमकिन कदम उठाते थे। अपने क्षेत्र के वोटर की ख़ुशी और ग़म में भी परिवार की तरह ही शामिल हुआ करते थे। परंतु आजकल कुछ नेताओं को छोड़ कर ऐसे नेता आपको ढूँढे नहीं मिलेंगे। अनुभवहीन नेता जनता को अपनी मुट्ठी में रखने का झूठा अहसास बनाए बैठे रहते हैं। सन् 1972 में बनी हिन्दी फ़िल्म दुश्मन में जब गीतकार आनंद बख्शी ने एक गीत के बोल में लिखा, ‘वादे पे तेरे मारा गया...

  • उपचुनावों से न बनेगा, न बिगड़ेगा!

    एकाध अपवादों को छोड़ दें तो आमतौर पर उपचुनावों का देश या राज्य की राजनीति पर कोई खास असर नहीं होता है। जबलपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में शरद यादव की जीत या बिहार की वैशाली लोकसभा सीट पर उपचुनाव में लवली आनंद की जीत या झारखंड में तमाड़ विधानसभा सीट पर शिबू सोरेन की हार आदि कुछ अपवाद हैं। बाकी उपचुनाव आमतौर पर रूटीन के अंदाज में लड़े जाते हैं और सहज ही उसके फैसले भुला दिए जाते हैं। परंतु इस बार ऐसा नहीं है। इस बार 10 राज्यों की 31 विधानसभा सीटों और एक लोकसभा सीट पर बुधवार,...

  • उपचुनाव में सियासी दलों के दिग्गजों की होगी अग्निपरीक्षा

    लखनऊ। उत्तर प्रदेश की नौ सीटों पर हो रहे उपचुनाव में सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दिग्गजों की अग्निपरीक्षा है। कांग्रेस के मैदान से बाहर होने से अब चुनाव भाजपा और सपा के बीच माना जा रहा है। हालांक‍ि बसपा भी त्रिकोणीय लड़ाई बनाने में जुटी है। भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लगातार तीन दिनों तक ताबड़तोड़ प्रचार कर हर सीट पर माहौल बनाने का प्रयास किया। अखिलेश यादव भी सियासी रुख को भांप रहे हैं। राजनीति के जानकारों के मुताब‍िक उपचुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आद‍ित्‍यनाथ, सपा मुखिया अखिलेश यादव और मायावती की प्रतिष्ठा दांव...

  • भाषा से भी चुनाव में ठगा जाता है!

    भारत में चुनाव अब विकासवादी नीतियों या विचारधारा के ऊपर नहीं हो रहे हैं, बल्कि लोकलुभावन घोषणाओं और भाषण की जादूगरी पर हो रहे हैं। सारे विचार अब सिमट कर लोकलुभावन घोषणाओं या लच्छेदार लेकिन निरर्थक भाषणों में समाहित हो गए हैं। बड़े से बड़े नेता का करिश्मा भी इतना ही भर रह गया है कि वह कितनी बड़ी लोकलुभावन घोषणा कर सकता है। अगर लोकलुभावन घोषणाओं की केंद्रीयता से अलग कोई एक और चीज चुनाव को परिभाषित करने वाली है तो वह विभाजनकारी भाषण हैं। धर्म, जाति और क्षेत्र के नाम पर विभाजन भी भारत में होने वाले चुनावों...

  • सामाजिक सुरक्षा की जगह रेवड़ी

    दुनिया के सभ्य, विकसित और लोकतांत्रिक देशों ने अपने नागरिकों को सामाजिक सुरक्षा का कवच उपलब्ध कराया है। उन्हें मुफ्त में अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा मिलती है। उनके लिए रोजगार की व्यवस्था की जाती है और रोजगार खत्म होते ही तत्काल भत्ता मिलता है। सरकार उनके लिए सम्मान से जीने की स्थितियां मुहैया कराती हैं। इसके उलट भारत में नागरिकों को मुफ्त की रेवड़ी, खैरांत बांटते है। वह भी किसी नियम या कानून के तहत नहीं, बल्कि पार्टियों और सरकारों की चुनावी योजना के तहत। यह इतना तदर्थ होता है कि चुनाव में नेता प्रचार करते हैं कि,...

  • नीति का तो काम ही क्या!

    कभी भारत में एक नीति आयोग हुआ करता था। नीतियों की घोषणाओं की प्रेस कॉन्फ्रेस हुआ करती थी। संसदीय कमेटियों में विचार और जानकारों व जनता की फीडबैक पर नीति बनती थी। कैबिनेट और संसद में बहस होती थी। लेकिन अब कानून बनते हैं, रेवड़ियां बनती हैं मगर नीति नहीं। अर्थात नेता वोट पटाने का आइडिया सोचता है और प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री अफसर को आदेश देता है। और कानून बन जाता है। यह ढर्रा बुलडोजर राज का प्रतिनिधि है। तभी इस सप्ताह यह जान हैरानी नहीं हुई कि उत्तर प्रदेश सरकार खाने-पीने की चीजों में 'थूकने' जैसी कथित करतूतों को रोकने...

  • भारत एक ‘गप्पी गाय’ है

    हमारे नेता नियमित रूप से प्रोपेगंडा, उपदेश, दिखावे, आदि करते रहते हैं। जबकि वास्तव में ताउम्र गद्दीनशीनी और तरह-तरह से दोहन की फिक्र में रहते हैं। यह स्वतंत्र भारत में शुरू से ही स्थापित मॉडल बन चुका है। सामान्य राजकाज अफसरों पर छोड़ा रहता है, जो उसे अपनी स्थिति, प्रवृत्ति और अवसरवादिता से जैसे-तैसे चलाते हैं। विभिन्न दलों और नेताओं में यही आम नमूना है। जो भी अंतर, वह मात्र डिग्री व रूप का है। इसलिए क्योंकि भारत के नेता ही किसी देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। और हमें 'गप्पी गाय' की उपाधि चीनी नेता माओ ने दी थी। पड़ोसी...

  • सभी सांसदों को दलीय हितों से ऊपर उठकर देश के लिए काम करना चाहिए: पीएम मोदी

    नई दिल्ली। संसद सत्र की कार्यवाही शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने सोमवार को सभी राजनीतिक दलों से अपील करते हुए कहा है कि जनता ने अपना जनादेश दे दिया है, देश को सकारात्मक विचारों की जरूरत है और सभी राजनीतिक दलों के सांसदों को दलीय हितों से ऊपर उठकर देश के लिए काम करना चाहिए। पीएम मोदी ने पिछले सत्र में विपक्ष द्वारा किए गए हंगामे की निंदा करते हुए हुए कहा कि 140 करोड़ देशवासियों ने बहुमत के साथ जिन्हें सरकार बनाने और सेवा करने का हुक्म दिया, उनकी आवाज को सदन में दबाने...

  • बिहार में राजनीतिक दलों की नजर अब 4 विधानसभा सीटों के उपचुनाव पर

    पटना। बिहार (Bihar) के रुपौली विधानसभा उपचुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी की जीत और दोनों गठबंधन की हार के बाद सभी राजनीतिक दलों की नजर अब चार विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव (By-Elections) पर टिकी है। रूपौली में एनडीए और महागठबंधन के प्रत्याशियों की हार के बाद राजनीतिक दलों की चिंताएं बढ़ती नजर आ रही हैं। वैसे, आगामी उपचुनाव को लेकर राजनीतिक दलों ने तैयारी शुरू कर दी है। दरअसल, तरारी के विधायक सुदामा प्रसाद, रामगढ़ से विधायक सुधाकर सिंह, बेलागंज के विधायक सुरेंद्र यादव और इमामगंज के विधायक जीतन राम मांझी के सांसद बन जाने के बाद ये सभी...

  • राजनीतिक विभाजन कहां तक पहुंच गया

    भारत की राजनीति इतनी विभाजित कभी नहीं रही, जितनी अभी है। पार्टियां और नेता एक दूसरे को अब राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं मान रहे हैं, बल्कि शत्रु मान रहे हैं। एक समय था जब कहा जाता था कि सब नेता मिले होते हैं। लोग देखते भी थे कि संसद में या विधानसभाओं में या राजनीतिक कार्यक्रमों में एक दूसरे के खिलाफ आग उगलने वाले नेता निजी कार्यक्रमों में एक दूसरे के गले मिलते थे। राजनीति से इतर उनके आपस में अच्छे संबंध होते थे। पक्ष और विपक्ष के नेता आपस में मिलते जुलते थे, बातें करते थे। लेकिन अब यह परंपरा...

  • संवेदनशील मुद्दों को चुनाव से दूर रखें

    राज्य और राजनीति का संबंध चोली दामन का है। लेकिन राजनीति का अस्तित्व राज्य के पहले से है। जब राज्य की उत्पत्ति नहीं हुई थी तब भी राजनीति थी। आज भी राज्य से इतर हर जगह राजनीति मौजूद है। परिवारों में राजनीति होती है, काम करने की जगहों पर होती है, खेल के मैदान में होती है आदि आदि। कहने का मतलब यह है कि कोई भी जगह ऐसी नहीं है, जहां राजनीति नहीं है। इसके बावजूद कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनकी संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए उन्हें राजनीति से दूर रखना चाहिए। अगर उनको राजनीति में शामिल...

  • एक साथ चुनाव से पहले सुधार जरूरी

    पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की योजना पर विचार के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी कमेटी अपनी रिपोर्ट तैयार कर रही है और कहा जा रहा है कि जल्दी ही इसकी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी जाएगी। इसकी मसौदा रिपोर्ट को लेकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उसके मुताबिक कमेटी ‘एक देश, एक चुनाव’ के नाम से संविधान में एक खंड जोड़ने की सिफारिश कर सकती है, जिसमें इस योजना से जुड़े सारे नियम और कानून शामिल होंगे। बताया जा रहा है कि कोविंद कमेटी एक कॉमन मतदाता सूची के साथ सारे...

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