भारत में शासन की जो व्यवस्था अपनाई गई है कि उसमें सरकार और सत्तारूढ़ दल के बीच बहुत बारीक फर्क होता है और इस फर्क को निभाने की जिम्मेदारी सरकार के मुखिया और सत्तारूढ़ दल के प्रमुख दोनों की होती है। साथ ही तमाम संवैधानिक और वैधानिक संस्थाओं, न्यायपालिका और मीडिया की भी जिम्मेदारी होती है कि वे इस फर्क की याद दिलाते रहें। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से धीरे धीरे सरकार और सत्तारूढ़ दल का बारीक सा फर्क मिटता गया है और अब वह लगभग समाप्त हो गया है। अब चाहे केंद्र की बात करें या राज्यों की बात करें वहां सरकारें और सत्तारूढ़ दल एक हो गए हैं। उनमें कोई फर्क नहीं रह गया है। इसे एक से अधिक मिसालों के जरिए समझा जा सकता है।
आजादी के तुरंत बाद पता नहीं क्या होता था लेकिन आज प्रधानमंत्री किसी चुनावी सभा को संबोधित करते हैं तब भी किसी मीडिया में नहीं लिखा जाता है कि भाजपा के वरिष्ठ नेता नरेंद्र मोदी ने जनसभा को संबोधित किया और पार्टी के लिए वोट मांगा। हर जगह यही लिखा और बोला जाता है कि प्रधानमंत्री ने भाजपा के लिए वोट मांगा और भाजपा उम्मीदवार को चुनाव जिताने की अपील की है। इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अगर जनसभा को संबोधित करते हैं तो यह नहीं लिखा या कहा जाएगा कि जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने सभा की और पार्टी उम्मीदवारों के लिए वोट मांगा, बल्कि यह कहा जाएगा कि मुख्यमंत्री ने जनता दल यू को वोट देने की अपील की। कभी किसी ने नहीं सोचा कि देश का प्रधानमंत्री किसी खास दल के लिए कैसे वोट मांग सकता है? और अगर वह किसी खास दल के लिए वोट मांगता है तो फिर यह क्यों कहा जाता है कि प्रधानमंत्री किसी पार्टी का नहीं होता है, बल्कि देश का होता है? ध्यान रहे टेलीविजन की बहसों में कई बार एंकर से लेकर चर्चा में बुलाए गए कथित विशेषज्ञ यह बात कहते हैं कि प्रधानमंत्री पूरे देश का होता है!
बहस के लिए यह कहा जा सकता है कि यह बोलने और लिखने की बात है कि प्रधानमंत्री ने या मुख्यमंत्री ने सभा को संबोधित किया। लेकिन यह ध्यान रखने की जरुरत है कि लिखने और बोलने से बहुत सी चीजों के अर्थ निर्धारित होते हैं। मिसाल के तौर पर कलेक्टर को जब से जिलाधीश या जिलाधिकारी लिखा जाने लगा तब से वह जिले का मालिक बन गया। अन्यथा अंग्रेजों के सिस्टम में उसका काम कर संग्रह का होता है। वह टैक्स कलेक्ट करता था इसलिए कलेक्टर कहलाता था। बहरहाल, दशकों से यही परंपरा चलती रही है कि चुनावी सभा को संबोधित करते हुए भी प्रधानमंत्री को किसी पार्टी का नेता नहीं लिखा जाता है। प्रधानमंत्री भी चुनावी सभा में खुल कर बोलते हैं कि उन्होंने अमुक राज्य के लिए या अमुक समुदाय के लिए कितना बड़ा तोहफा दिया है या कितने पैसे आवंटित किए हैं। इससे मुकाबला बराबरी का नहीं रह जाता है। इससे लोकतंत्र में यह धारणा प्रभावित होती है कि सभी पार्टियों को समान अवसर मिलना चाहिए।
जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल का फर्क बहुक बारीक होता है, जिसके मिटने की शुरुआत आजादी के तुरंत बाद हो गई थी। लेकिन पिछले दो दशक में यह प्रक्रिया तेज हुई है और अब लगभग समाप्त हो गई है। इसे दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। एक उदाहरण तो मुफ्त की सेवाओं और वस्तुओं की घोषणा का है। कोई भी सरकार, जो वित्तीय अनुशासन को समझती है और राजस्व की उपलब्धता के बारे में जानती है वह इस तरह के फैसले नहीं कर सकती है। लेकिन सत्तारूढ़ दल को चुनाव जीतने के लिए ऐसी योजनाओं की जरुरत होती है इसलिए सरकारें इसकी घोषणा करती हैं। कहने को ये सरकार की योजनाएं हैं लेकिन असल में ये योजनाएं सत्तारूढ़ दल की होती हैं। सत्तारूढ़ दल इनका प्रचार करते हैं और इनके आधार पर लोगों से वोट देने की अपील करते हैं। अगर ऐसा नहीं है तो क्या भी सरकार या अदालत इस पर रोक लगा सकती है कि सत्तारूढ़ दल को सरकार की योजनाओं का प्रचार नहीं करना होगा या उनके आधार पर वोट नहीं मांगना होगा?
दूसरा उदाहरण यह है कि विपक्षी पार्टियां जब भी किसी संस्था को निशाना बनाती हैं या सरकार को निशाना बनाती हैं तो उनका जवाब सत्तारूढ़ पार्टियों की ओर से दिया जाता है। हाल के दिनों में एक मिसाल इस बात को प्रमाणित करती हैं। गौरतलब है कि विपक्ष की ओर से चुनाव आयोग पर लगातार हमले हो रहे हैं और आरोप लगाया जा रहा है कि वह मैच फिक्सिंग करके सत्तारूढ़ दल को जीत दिला रही है। इस बात का जवाब या तो चुनाव आयोग के सूत्र दे रहे हैं या भारतीय जनता पार्टी और उसकी सहयोगी पार्टियां दे रही हैं। चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था है, जिसे संविधान के मुताबिक पक्ष और विपक्ष दोनों को समान रूप से ट्रीट करना है। लेकिन चुनाव आयोग दोनों के साथ समान बरताव नहीं करता है। उसका रूझान सत्तारूढ़ दल की ओर होता है और सत्तारूढ़ दल की ओर से उसके हर काम का बचाव किया जाता है। अपवाद के लिए ही एकाध मिसाल होगी, जब सत्तारूढ़ दल को चुनाव आयोग से शिकायत रही होगी।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत में पहले भी यही व्यवस्था चलती थी लेकिन पहले इस तरह से खुल कर सरकार का इस्तेमाल पार्टी के काम के लिए नहीं होता था। इस तरह से सरकार और पार्टी को एक नहीं कर दिया गया था। पार्टी का कामकाज अलग चलता था और सरकार अपना काम करती थी। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि सरकार का एकमात्र काम पार्टी को जीत दिलाने के लिए काम करना है। उसमें अगर देश का और आम लोगों का कुछ कल्याण हो जाता है तो अच्छी बात है। ऐसा लग रहा है कि सरकार के कामकाज का मुख्य लाभार्थी सत्तारूढ़ दल और उसके नेता हैं, जबकि जनता कोलेटरल बेनिफिशियरी है।
आम जनता के पैसे से हजारों करोड़ रुपए विज्ञापनों पर खर्च होते हैं, जिनसे पार्टी और उसके नेता का चेहरा चमकाया जाता है। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्रियों को पार्टी के लिए जनसभा करने जाना होता है तो उसे सरकारी कार्यक्रम बना दिया जाता है और समूचा आयोजन सरकार के पैसे से होता है। सत्तारूढ़ दल के नेता सरकार के विमान और हेलीकॉप्टर से पार्टी का प्रचार करने पहुंचते हैं। आजादी के बाद कई दशक तक कांग्रेस चुनाव नहीं हारी थी। लेकिन जब कांग्रेस के हारने का सिलसिला शुरू हुआ तो कई दशक तक राजनीतिक स्थिरता प्रभावित हुई। सत्तारूढ़ दलों के हारने का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन अब यह सिलसिला फिर थमता दिख रहा है। केंद्र से लेकर एक के बाद एक राज्यों में चुनी हुई सरकारें रिपीट होने लगी हैं तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि पूरी सरकार और सरकारी मशीनरी सत्तारूढ़ दल को जिताने के लिए काम करती है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है। इसे जितनी जल्दी रोकने की कोशिश शुरू होगी उतना अच्छा होगा।