जनगणना कराने का फैसला स्वागतयोग्य है। जनगणना एकमात्र प्रक्रिया है, जिससे ना सिर्फ देशवासियों की सही संख्या का पता चलता है, बल्कि लोगों की आर्थिक- सामाजिक स्थिति के प्रामाणिक आंकड़े भी प्राप्त होते हैँ। बाकी सभी आंकड़े सैंपल सर्वे पर आधारित होते हैं।
ठोस आंकड़ों से गुरेज और कृत्रिम आंकड़ों में अधिक रुचि लेने के लिए चर्चित नरेंद्र मोदी सरकार ने आखिरकार जनगणना कराने का फैसला किया है। यह स्वागतयोग्य है। जनगणना एकमात्र प्रक्रिया है, जिससे ना सिर्फ देशवासियों की सही संख्या का पता चलता है, बल्कि लोगों की आर्थिक- सामाजिक स्थिति के प्रामाणिक आंकड़े भी प्राप्त होते हैँ। बाकी सभी आंकड़े सैंपल सर्वे पर आधारित होते हैं, जो वैसे तो विश्वसनीय हैं, मगर यह भी सच है कि उभरने वाली सूरत काफी कुछ सर्वेक्षण की विधि, सैंपल के चयन और सर्वेक्षकों की योग्यता से तय होती है। बिना ठोस आंकड़ों के विकास या सामाजिक कल्याण की कोई नीति तय करना विवादास्पद बना रहता है।
मसलन, गरीब परिवारों के लिए कोरोना काल से जारी मुफ्त अनाज वितरण योजना की एक बड़ी आलोचना रही है कि वह 2011 के आंकड़ों पर आधारित है और इस कारण करोड़ों लोग उसके लाभ से वंचित हैँ। यह सचमुच अफसोसनाक है कि देश में आज तमाम नीतियां जनसंख्या की 15 साल पहले की स्थितियों पर आधारित हैं। 2021 में होने वाली जनगणना कोरोना महामारी के कारण नहीं कराई गई। लेकिन इसे 2022 या बाद के वर्षों में क्यों नहीं कराया गया, यह रहस्यमय है। जबकि उन्हीं दौर में तमाम चुनाव होते रहे। इसीलिए लगातार टलती जनगणना को लेकर केंद्र की मंशा पर सवाल खड़े हुए। अब घोषित कार्यक्रम के मुताबिक जनगणना प्रक्रिया एक मार्च 2027 से शुरू होगी और दो चरणों में संपन्न होगी।
पहाड़ी राज्यों में यह प्रक्रिया एक अक्टूबर 2026 से आरंभ होगी। इस बार जनगणना का एक खास पहलू जातिगत गिनती है। 1931 के बाद ऐसा पहली बार होगा। इस विवादास्पद निर्णय से व्यवहार में क्या नफ़ा- नुकसान होगा, इस बारे में अभी सिर्फ अनुमान लगाए जा सकते हैँ। लेकिन इस फैसले के पीछे सियासी लाभ की प्रेरक सोच जग-जाहिर है। इसके अलावा जनगणना के बाद एक बड़ा सवाल लोकसभा सीटों के परिसीमन का उठेगा। यह विवाद भी गंभीर रूप ले चुका है। ऐसे में इस अनुमान का ठोस आधार है कि अगली जनगणना से सामाजिक और क्षेत्रीय विभाजन की खाइयां और चौड़ी हो सकती है।