ये दलील अपनी जगह सटीक है कि अगर राष्ट्र के खिलाफ किसी ने कुछ किया है, तो उसे जेल में रहना चाहिए। मगर ऐसे इल्जाम न्यायिक प्रक्रिया के अंजाम पर पहुंचने से तय होंगे, या महज आरोप भर लग जाने से?
फिलहाल मुद्दा यह नहीं है कि उमर खालिद, मीरान हैदर, गुलफिशा फातिमा, शिफा उर रहमान आदि फरवरी 2020 में दिल्ली में हुए दंगों की साजिश में शामिल थे या नहीं। उन पर साजिश में शामिल होने का आरोप है, जिस पर न्यायपालिका का निर्णय आना बाकी है। संबंधित कोर्ट अभियुक्तों के खिलाफ मौजूद साक्ष्यों पर विचार करने और उन पर अभियुक्तों की दलील सुनने के बाद अपने निर्णय पर पहुंचेगा। अगर ये सभी दोषी पाए गए, तो भारतीय न्याय संहिता में मौजूद प्रावधानों के तहत उन्हें वाजिब सज़ा सुनाई जाएगी। अपेक्षित यह था कि पांच साल की लंबी अवधि के दौरान कम-से-कम निचली अदालत इस प्रक्रिया को पूरी कर चुकी होती। अगर आरोप साबित हो गए होते, तो अभी ये अभियुक्त अभी सजा काट रहे होते।
मगर यह भारतीय न्याय व्यवस्था पर प्रतिकूल टिप्पणी है कि यह प्रक्रिया के पूरी होने की संभावना अभी तक दूर बनी हुई है। इस बीच सभी आरोपी पांच साल से जेल में बंद हैं। फिर भी दिल्ली हाई कोर्ट ने उनकी जमानत की अर्जी खारिज कर दी है। इसका अर्थ एक तरह से अभियोजन पक्ष की इस दलील पर अदालत की मुहर लगना है कि ‘अगर आपने राष्ट्र के खिलाफ कुछ किया है, तो आपको जेल में ही रहना चाहिए।’ ये दलील अपनी जगह सटीक है। मगर सवाल है कि राष्ट्र के खिलाफ किसी ने कुछ किया है, यह न्यायिक प्रक्रिया के अंजाम पर पहुंचने से तय होगा, या महज आरोप भर लग जाने से?
आधुनिक न्याय व्यवस्था का तो सिद्धांत है कि जब तक दोष साबित ना हो जाए, अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने कई बार व्यवस्था दी है कि विचाराधीन मामलों में बेल नियम होना चाहिए, जबकि जेल अपवाद। हाई कोर्ट ने कहा है कि इस मामले में मुकदमा सामान्य ढंग से चलेगा। जबकि भारतीय न्याय व्यवस्था की सामान्य गति विभिन्न मामलों में देर से हुआ न्याय अन्याय है- की कहावत के अनुरूप साबित हुई है। फिर मुद्दा यह भी है कि आखिरकार ये अगर आरोपी अगर बरी हो गए, तो उनकी मौजूदा पीड़ा की भरपाई कौन करेगा?