इन हाल के वर्षों में ऐसा क्या बदल गया है? राजनीतिक नेतृत्व- खासकर केंद्र में सत्ताधारी दल को इस पर आत्म-निरीक्षण करना चाहिए? संकेत साफ है। हिंदी को राजनीति का औजार बनाने से इस भाषा का नुकसान ही हो रहा है।
महाराष्ट्र के स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य बनाने के बाद इसकी अनिवार्यता ना होने संबंधी अब दिए गए मुख्यमंत्री के बयान का सीधा मतलब इस मुद्दे पर कदम वापसी है। नई शिक्षा नीति के प्रावधान के मुताबिक इस बारे में राज्य सरकार के फैसले पर राज्य में व्यापक विरोध भड़का। लगभग सभी राजनीतिक दलों के अंदर से इसके खिलाफ आवाज उठी।
महाराष्ट्र में हिंदी को लेकर बढ़ा विवाद: सियासी बदलाव
एक महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम में वर्षों से सियासी तौर पर बिछड़े ठाकरे बंधुओं- उद्धब और राज- ने “मराठी की रक्षा” के लिए अपने मतभेद भुला देने का इरादा दिखाया। शिक्षा क्षेत्र से कई संगठनों ने, जिनमें शिक्षकों की यूनियनें भी शामिल हैं, कहा कि महाराष्ट्र में ये फैसला तभी लागू होगा, जब पहले उत्तरी राज्य अपने यहां मराठी भाषा पढ़ाएं।
राज्य सरकार के मराठी भाषा विभाग ने भी मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस से कक्षा एक से पांच तक तीसरी भाषा के रूप में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य करने के निर्णय को वापस लेने की गुजारिश कर दी। इसके बाद फड़णवीस ने सफाई दी है कि राज्य में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य नहीं की गई है, इसे सिर्फ वे छात्र पढ़ेंगे, जो पढ़ना चाहेंगे। गौरतलब है कि यह सब महाराष्ट्र में हुआ है।
दक्षिणी राज्यों- खासकर तमिलनाडु में तो हिंदी विरोध की पुरानी रवायत रही है। अब महाराष्ट्र में भी इस भाषा को लेकर ऐसा माहौल बना, तो यह संकेत है कि भावनात्मक मुद्दों पर आगे बढ़ रही सियासत देश को किस मुकाम तक ले गई है।
मराठी और हिंदी में लिपि का ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों भाषाएं मामूली अंतर के साथ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं। मुंबई को हिंदी फिल्म उद्योग की राजधानी कहा जाता है। इस पृष्ठभूमि के कारण महाराष्ट्र में कभी हिंदी विरोध इस स्तर पर हुआ हो, इसकी शायद ही कोई मिसाल होगी। मगर अब माहौल में साफ बदलाव दिखा है। आखिर इन हाल के वर्षों में ऐसा क्या बदल गया है? देश के राजनीतिक नेतृत्व- खासकर केंद्र में सत्ताधारी दल को इस पर अवश्य आत्म-निरीक्षण करना चाहिए? संकेत साफ है। हिंदी को राजनीतिक परियोजना का औजार बनाने से इस भाषा का नुकसान ही हो रहा है।
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