यह समझने की जरूरत है कि मांगों पर तत्परता से ध्यान ना देने अथवा अनंत और ऊबाऊ वार्ताओं से लोगों का असंतोष आक्रोश में बदलता है। उससे गतिरोध की स्थिति बनती है, जो अमन-चैन के लिए ठीक नहीं है।
केंद्र ने लेह में हुई हिंसा की सारी जिम्मेदारी सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक पर डाल दी है। कहा है कि सरकार लेह एंड कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस के साथ उन मुद्दों पर बातचीत में शामिल है, जिनको लेकर वांगचुक दस सितंबर को अनशन पर बैठ गए। फिर उन्होंने “भड़काऊ” भाषण दिए। उन्होंने अरब स्प्रिंग और नेपाल के जेनरेशन-जेड प्रतिरोध का जिक्र अपने भाषणों में किया। केंद्र के मुताबिक इसी कारण 14 सितंबर को लेह में नौजवान तोड़फोड़ और आगजनी पर उतर गए, जिस दौरान चार मौतें हुईं। दर्जनों लोग घायल हुए।
केंद्र के बयान का स्वर यह है कि बातचीत और समाधान का जो दायरा वह तय करता है, संगठनों को उससे बाहर नहीं जाना चाहिए। अगर वे बाहर जाते हैं, तो उनसे संवाद कायम करना केंद्र का दायित्व नहीं है। साथ ही उस दौरान कोई अवांछित घटना होती है, तो उसकी सारी जिम्मेदारी आयोजक संगठन की होगी। दरअसल हालिया वर्षों में सरकारों ने इसी नजरिए से तमाम प्रतिरोध एवं असंतोष के इज़हार से निपटने की कोशिश की है। यही तरीका लद्दाख में अपनाया गया। नतीजा सामने है। केंद्र ने छह साल पहले एकतरफा और लगभग गुपचुप ढंग से जम्मू-कश्मीर से संबंधित अनुच्छेद 370 को खत्म करते हुए राज्य को दो भागों में बांट दिया था।
दोनों भागों को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। दोनों हिस्सों के लोग तब से पूर्ण राज्य का दर्जा मांग रहे हैं। वांगचुक और उनके समर्थकों की भी प्रमुख मांग यही है। मुद्दा यह है कि स्थानीय लोगों की पूर्ण राज्य की आकांक्षा और संविधान के अनुच्छेद 6 के तहत पहचान की सुरक्षा की मांग को कब तक टाला जाएगा? यह समझने की जरूरत है कि मांगों पर तत्परता से ध्यान ना देने अथवा अनंत और ऊबाऊ वार्ताओं से लोगों का असंतोष आक्रोश में बदलता है। उससे गतिरोध की स्थिति बनती है, जो अमन-चैन के लिए ठीक नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के विभिन्न हिस्सों में गतिरोध के ऐसे बिंदु बनते चले गए हैँ। अतः यह जरूरी हो गया है कि केंद्र अपनी दृष्टि में अविलंब सुधार करे। हर प्रतिरोध को नाजायज मानने का नजरिया लोकतांत्रिक नहीं है।