बड़ी भारतीय कंपनियों ने साझा तौर पर 4.9 खरब रुपये के डिविडेंड घोषित किए, जो पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा है। इस डिविडेंड में से 2.5 खरब रुपये- यानी 51.5 प्रतिशत हिस्सा कंपनी मालिकों की जेब में गया।
वित्त वर्ष 2024-25 आमदनी के लिहाज से कॉरपोरेट जगत के लिए अच्छा नहीं रहा। मगर उससे कंपनी मालिकों को कोई फर्क नहीं पड़ा। बल्कि भारतीय कंपनियों ने रिकॉर्ड डिविडेंड घोषित किए। और उनका सबसे बड़ा हिस्सा कंपनी मालिकों की जेब में गया। यह बात बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में दर्ज 500 सबसे बड़ी कंपनियों में से 496 के बारे में एक बिजनेस अखबार के विश्लेषण से सामने आई है। इन कंपनियों ने साझा तौर पर 4.9 खरब रुपये के डिविडेंड घोषित किए, जो पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा है। अखबार ने पब्लिक, प्राइवेट, और मल्टी नेशनल- हर क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों के कैपिटल-लाइन डेटा का विश्लेषण किया।
इससे सामने आया कि 4.9 खरब रुपये के डिविडेंड में से 2.5 खरब रुपये- यानी 51.5 प्रतिशत हिस्सा कंपनी मालिकों की जेब में गया। एक साल पहले से तुलना करें, तो प्राइवेट कंपनियों के संस्थापकों को डिविडेंड से 36 फीसदी, विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को 20 फीसदी, और पब्लिक सेक्टर की कंपनियों की मालिक (यानी सरकार) को चार प्रतिशत अधिक आमदनी हुई। जब बाजार की स्थिति ठीक नहीं है, तो कंपनियों ने डिविडेंड देने लायक इतना पैसा कहां से हासिल किया? दुनिया भर में इसका एक तरीका यह सामने आया है कि शेयर बाइबैक जैसे उपायों से शेयर भाव बढ़ाए जाते हैं, उससे कंपनी का मूल्य बढ़ता है, और उसे नकदी में तब्दील कर अधिक डिविडेंड जारी किए जाते हैं।
इसके अलावा कंपनी के अंदर कॉस्ट कटिंग और बाजार में निवेश घटाना आम चलन बन गया है। बाजार विशेषज्ञों के मुताबिक हाई टेक, टेलीकॉम, कॉमोडिटीज आदि के कारोबार से जुड़ी कंपनियों के पास नकदी का भंडार इकट्ठा हो गया है। इन कंपनियों को नहीं लगता कि भारतीय बाजार में नए निवेश से कारोबार बढ़ाने की गुंजाइश है। तो अपनी नकदी को डिविंडेड के जरिए वे अपनी और शेयरधारकों की जेब में डाल रही हैं। इस ट्रेंड का संकेत है कि भारतीय कॉरपोरेट जगत अब तक जितना बाजार बन गया है, उससे संतुष्ट है। आगे नए निवेश का जोखिम वह नहीं उठाना चाहता। तो फिर भारत में निवेश करेगा कौन? इस सवाल पर बहस की जरूरत है।