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27-04-2025 Vol 19

क्योंकि जड़ कमजोर है

पश्चिमी मीडिया ने अपने कारणों से भारत की अर्थव्यवस्था की फिलहाल जो गुलाबी छवि बनाई है, भारत सरकार के कर्ता-धर्ताओं ने संभवतः उसे गंभीरता से लिया है। ऐसे में शुरुआत में ही ‘ताकत के आधार पर संवाद करने’ का नजरिया उन्होंने अपनाया है।

ताइवानी कंपनी फॉक्सकॉन का गुजरात में वेदांता के साथ प्रस्तावित सेमीकंडक्टर प्रोजेक्ट से अलग होने का फैसला भारत की जमीनी कमजोरियों की तरफ एक और इशारा है। यह महत्त्वाकांक्षा अपने आप में अत्यधिक है कि दुनिया की बड़ी और नामी कंपनियों को अपने यहां बुलाकर कुछ वर्षों (या दशकों) में भारत दुनिया की सबसे जहीन तकनीक वाले उद्योग में बड़ी ताकत बन जाएगा। भारत सरकार को भरोसा दस अरब डॉलर की अपनी सब्सिडी पर है। बेशक, इतनी बड़ी रकम देखकर कई कंपनियां आकर्षित भी हुई हैं, जिनमें एक फॉक्सकॉन भी है। लेकिन जिस कंपनी ने उसके साथ साझा उद्यम लगाने का इरादा किया, उसने गुजरात में बनने वाली इसी परियोजना के जरिए चिप या सेमीकंडक्टर क्षेत्र में कदम रखने की पहल की थी। वेदांता का नाम प्रमुख रूप से उसके माइनिंग कारोबार की वजह से रहा है। ऐसे में फॉक्सकॉन को एक तकनीकी पार्टनर की जरूरत थी, जिसके लिए कहा जाता है कि उसने एक यूरोपीय कंपनी को राजी किया। तब खबरों के मुताबिक भारत सरकार बीच में आ गई और दबाव डाला कि वह कंपनी अपनी भारत के साथ अपनी टेक्नोलॉजी भी साझा करे। संभवतः पश्चिमी मीडिया ने अपने कारणों से भारत की अर्थव्यवस्था की फिलहाल जो गुलाबी छवि बनाई है, भारत सरकार के कर्ता-धर्ताओं ने उसे गंभीरता से लिया है। ऐसे में शुरुआत में ही ‘ताकत के आधार पर संवाद करने’ का नजरिया उन्होंने अपनाया है। वैसे यह भी गौरतलब है कि प्रस्तावित परियोजना आरंभ में ही महाराष्ट्र बनाम गुजरात के विवाद में फंस गई थी। विदेशी कंपनियां ऐसे विवाद में फंसने के लिए नहीं, बल्कि कारोबार के लिए किसी देश में जाती हैँ। फिर इधर भारतीय टैक्स अधिकारियों ने कुछ दूसरी कंपनियों पर जो सख्ती बरती है, उसका संदेश भी गया है। भारत सरकार की अपने उद्योगों को संरक्षण देने लिए आयात नियंत्रित करने की नीति भी विदेशी कंपनियों को रास नहीं आ रही है। फॉक्सकॉन ने पूरी वजह नहीं बताई है, लेकिन ये तमाम कारण उसके फैसले के पीछे रहे होंगे। बेहतर होगा कि सरकार फॉक्सकॉन से संवाद करे और असल कारणों को जाने, ताकि आगे वह स्थितियों में जरूरी सुधार ला सके।

NI Editorial

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