nayaindia Mahendra Misir revolutionary folk singer महेंदर मिसिरः एक क्रांतिकारी लोक गायक

महेंदर मिसिरः एक क्रांतिकारी लोक गायक

महेंदर मिसिर गुप्त रूप से क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद होने वाले परिवारों को खुले हाथों से मदद करते थे। रामनाथ पांडे ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘महेंद्र मिसिर’ में लिखा है कि महेंदर मिसिर अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि शोषक ब्रिटिश सरकार की अर्थव्यवस्था को धाराशायी करने और उसके अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे।

भारतीय लोक संस्कृति में पूरबी गीत-गवनई शैली के जनक, एक रंग रंगीले गायक, नायक, स्वतंत्रता सेनानी, आंदोलनकारी, क्रांतिकारी, भजन कीर्तनकार, उपदेशक न जानें कितने रूप रंग में महेंदर मिसिर का व्यक्तित्व आज भी लोक मानस में, लोक कंठ में, लोक हृदय में एक महान नायक के रुप में विद्यमान है, ये और बात है कि तथाकथित इतिहासकारों और सरकारों ने इस नायक की घोर उपेक्षा की है फिर भी उनकी पूरबी, भजन, निर्गुण लोकगीत जन कंठों में विद्यमान है। अभी उनका जन्मदिन बीता है, समूचा लोक संसार उनको नमन वंदन और अभिनंदन करता है।

जिस समय हिंदी साहित्य के संत काव्य परम्परा के अंतिम कवि श्रीधर दास, धरनी दास और लक्ष्मी सखी आदि कवियों की भोजपुरी आध्यात्मिक रचनाएं बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों में सोंधी-सोंधी मिट्टी की खुशबू फैलाकर कानों में गूंज रही थी, ठीक उसी समय महेंदर मिसिर जी की रचनाएं भी समाज के उद्धार और राष्ट्रीयता के आंदोलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का काम कर रही थी। समाज के प्रति एक सजग साहित्यकार की भूमिका का निर्वाह करते हुए मिसिर जी ने हिंदी भोजपुरी और इन दोनों भाषाओँ के मिश्रित रूप में भी संगीत दिया है, उस समय की यही मांग थी। यह उनके लेखन का प्रयोगमय पक्ष ही कहा जाएगा। उन्होंने केवल भोजपुरी भाषा में ही नहीं, बल्कि भोजपुरी भाषा के साथ-साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग किया है।

महेंदर मिसिर का जन्म सारण जिला (बिहार) के मुख्यालय छपरा से 12 किलोमीटर उत्तर स्थित जलालपुर प्रखंड के नजदीक एक गांव कांही मिश्रवलिया में 16 मार्च 1886 को हुआ था। कांही और मिश्रवलिया दोनों ही गांव नजदीक हैं। गांव में कई जाति के लोग रहते थे पर ब्राह्मणों की संख्या अधिक थी। महेंदर मिसिर ब्राह्मण थे। मिश्र पदवीधारी लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश के लागुनही धर्मपुरा से आकर बसे हुए थे। मिश्रवालिया के आसपास के अनेक वृद्ध व्यक्ति साक्षात्कार के समय बताते थे कि महेंदर मिसिर गुप्त रूप से क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता की बलिवेदी पर शहीद होने वाले परिवारों को खुले हाथों से मदद करते थे। रामनाथ पांडे ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘महेंद्र मिसिर’ में लिखा है कि महेंदर मिसिर अपने सुख-स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि शोषक ब्रिटिश सरकार की अर्थव्यवस्था को धाराशायी करने और उसके अर्थनीति का विरोध करने के उद्देश्य से नोट छापते थे।

इन्स्पेक्टर जटाधारी को नोट छापने वाले व्यक्ति का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके साथ सुरेन्द्रनाथ घोष भी थे। जटाधारी प्रसाद ने भेस और नाम बदल लिया, अब वे गोपीचंद बन गए और महेंदर मिसिर के घर नौकर बनकर रहने लगे। धीरे-धीरे गोपीचंद उर्फ गोपीचनवा महेंदर मिसिर का परम विश्वस्त नौकर बन गया। उसी की रिपोर्ट पर छह अप्रैल सन् 1924 को चैत की अमावस्या की रात में एक बजे महेंदर मिसिर के घर डीएसपी भुवनेश्वर प्रसाद के नेतृत्व में दानापुर की पुलिस ने छापा मारा। पुलिस की गाड़ियां उनके घर से एक किलोमीटर की दूरी पर खड़ा किया गया। पांचों भाई और गोपिचनवा मशीन के साथ नोट छापते पकड़े गए। गनीमत यह थी कि नोट छापते समय महेंदर मिसिर सोये हुए थे और दूसरे लोग नोट छाप रहे थे।

महेंदर मिसिर पकड़े गए। उनका मुकदमा हाई कोर्ट तक गया। लोअर कोर्ट से सात वर्ष की सजा हुई थी। बाद में उनकी सजा महज तीन वर्ष की हो गई थी। जेल जाते समय गोपीचंद उर्फ जटाधारी प्रसाद ने अपनी आंखों में आंसू भरकर मिश्र जी से कहा, बाबा हम अपनी डयूटी से मजबूर थे। हमें इस बात की बड़ी प्रसन्नता हुई कि आपने देश के लिए बहुत कुछ किया है और देश के लिए ही आप जेल जा रहें हैं। गोपीचंद की इस बात को सुनकर महेंद्र मिश्र जी के कंठ से कविता की दो पंक्तियां दर्द बनकर निकलीं, ‘पाकल-पाकल पनवा खियवले गोपिचनवा, पिरितिया लगाके भेजवले जेलखानवा’। इस महान गायक और नायक की अनेकों कहानियां आज भी लोक मन श्रुति परंपरा में मौजूद हैं आज भी जरूरत है कि इस नायक के व्यक्तित्व और कृतित्व का उचित मूल्यांकन हो और पाठ्यक्रम के माध्यम से नई पीढ़ी को बताई जाए।

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