नव आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनायें देते हैं और कहते हैं – ‘सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे न कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।।‘ इस बधाई देने में कोई बुराई नहीं है, और सम्पूर्ण वर्ष ही शुभकामनायें देते रहनी चाहिए। सबके सुख, शांति की कामना करनी ही चाहिए। इसीलिए तो भारतीय संस्कृति में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।’ की कामना की गई है।
देश में अब आंग्ल संवत्सर व वर्ष का बोलबाला है। अंग्रेजी वर्ष का आरम्भ 2022 वर्ष पूर्व ईसा मसीह के जन्म वर्ष व उसके एक वर्ष बाद हुआ था। लेकिन यह भी सत्य है कि आंग्ल काल गणना दिन, महीने व वर्ष की गणना के आरम्भ होने से बहुत पहले से ही यह संसार चला आ रहा है। धर्म, सभ्यता- संस्कृति, भाषा, ज्ञान की दृष्टि से सम्पूर्ण संसार में सर्वाधिक उन्नत भारत देश में कालगणना की वैज्ञानिक भारतीय परम्परा थी। लेकिन द्वापर युग के अन्तकाल में हुए महाभारत युद्ध के कारण संसार के अन्य देशों में वेदों के प्रचार- प्रसार का कार्य बन्द हुआ। स्वयं भारत में भी वेद के अध्ययन- अध्यापन का संगठित समुचित प्रबन्ध न होने के कारण देशों में विद्या व ज्ञान की दृष्टि से अन्धकार छा गया। लोग ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान वेद की शिक्षा से वंचित हो गये। इस अविद्यान्धकार के कारण भारत में बौद्ध व जैन मतों के आविर्भाव के साथ ही विश्व के अन्य देशों में पारसी, यहूदी, ईसाई व इस्लाम का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी अपनी कालगणना पद्धति अपने नाम से चलाई।
प्रथम अर्थात एक जनवरी सन 0001 का आरम्भ वर्ष ईसा मसीह के अनुयायियों द्वारा प्रचलित ईसा संवत है। इससे पूर्व वहां कोई संवत प्रचलित ही नहीं था, और वे संवत्सर के नाम से भी परिचित नहीं थे। सम्भवतः उनके यहाँ यह संवत काल गणना किसी अन्य प्रकार से की जाती रही होगी। उसी से ही उन्होंने आंग्ल कालगणना आरम्भ किये जाते समय सप्ताह के सात दिनों के नाम, महीनों के नाम आदि तय कर उन्हें प्रचलित किया। अंग्रेजी संवत अस्तित्व में आने से पूर्व भारत में संवत्सर की गणना लगभग 1,960853 अरब वर्षों से होती आ रही थी, जो बहुसंख्यक हिन्दुओं द्वारा किसी व्रत, अनुष्ठान आदि किये जाते समय पुरोहित द्वारा कराये जाने वाले संकल्प मन्त्र से ज्ञात होता है। प्राचीन काल से ही भारत में सप्ताह के सात दिन, बारह महीने, कृष्ण व शुक्ल पक्ष, अमावस्या व पूर्णिमा आदि का प्रचलन था। नववर्ष वर्ष का आरम्भ भारत में चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता था, और आज भी यह परम्परा अनवरत व अबाध रूप से जारी है, जिसे आज भी बहुसंख्यक हिन्दू परिवार मानते हैं। भारत से ही सात दिनों का सप्ताह, इनके नाम, लगभग 30 दिन का महीना, वर्ष में बारह महीने व उनके नाम आदि कुछ उच्चारण भेद सहित देश -देशान्तर में प्रचलित हो गये थे। उन्हीं प्रचलित गणनाओं के आधार पर वर्तमान में प्रचलित आंग्ल वर्ष व काल गणना को बनाया गया है।
भारतीय दिन के नाम सोमवार को आंग्ल कैलेंडर में मूनडे अर्थात चन्द्र-सोम वार व रविवार को सनडे अर्थात सूर्य वार बना दिया गया। यह मात्र हिन्दी शब्दों का एक प्रकार से अंग्रेजी रूपान्तर मात्र ही है। इसी प्रकार उन्होंने अन्य दिन व महीने का नाम तय कर उन्हें प्रचलन में लाया। अंग्रेजी संवत्सर से सृष्टि काल का ज्ञान नहीं होना, इसकी कमी का सबसे बड़ा परिचायक है, इसकी अवैज्ञानिकता का द्योतक है, जबकि भारत का सृष्टि संवत सृष्टि के आरम्भ से आज तक सुरक्षित चला आ रहा है। विज्ञान के आधार पर भी सृष्टि की आयु 1,96 अरब वर्ष लगभग सही सिद्ध होती है। इसलिए यूरोप सहित सम्पूर्ण विश्व को वैदिक सृष्टि सम्वत को ही अपनाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने पक्षपात व कुण्ठा के कारण भारतीय काल गणना पद्धति को नहीं अपनाया। उनमें अपने मत ईसाई मत का प्रचार एवं लोगों का धर्मान्तरण करने की मंशा, इच्छा व भावना थी, इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान व विज्ञान की जान- बूझकर उपेक्षा की और इसके साथ ही अपने मिथ्या विश्वासों को दूसरों पर थोपने का प्रयास भी किया।
उल्लेखनीय है कि भारतीय नववर्ष चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होता है। यह दिवस नव वर्ष के लिए सर्वथा उपयुक्त व सर्वस्वीकार्य है। इस समय शीत का प्रभाव समाप्त हो गया होता है। ग्रीष्म ऋतु तत्पश्चात वर्षा ऋतु का आरम्भ इसके कुछ समय बाद होता है। इस भारतीय नववर्ष के अवसर पर पतझड़ व शीत ऋतु समाप्त होकर ऋतु अत्यन्त सुहावनी हो जाती है। वृक्ष नवीन कोपलों को धारण किये नये पत्तों के स्वागत में हरे-भरे होते हैं, और सभी प्रकार के फूल व फल वृक्षों में लगे होते है। सर्वत्र फूलों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित होती है। यह प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यंत सुहावना व मौसम लुभावना होता है। अनेक विशेषताओं से युक्त चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का यह समय ही नववर्ष के उपयुक्त होता है। लेकिन विदेशी विद्वानों के पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण भारत के अनेक सत्य मान्यतओं को मान्यता नहीं मिल पाई, और उनको अपनाया नहीं गया। वर्तमान में सर्वत्र पूर्वाग्रह, पक्षपात और रूढि़वादिता के बादल छाये हुए हैं। ऐसे में किसी पुरानी कम महत्व की परम्परा को त्यागकर उसमें सुधार व परिवर्तन कर उसे विश्व स्तर पर मान्यता दिला आरम्भ करना कठिन व असम्भव ही है।
ईसा मसीह ईस्वी सन 0001 में पैदा हुए। उनके नाम से ही ईसा सम्वत आरम्भ हुआ। उनसे सम्बन्धित वर्णनों से यह स्पष्ट होता है कि 27 से 33 वर्ष के उनके अनुमानित जीवन काल में उनके द्वारा दिए गये धार्मिक विचारों से उनके देश व निकटवर्ती स्थानों पर कई सामाजिक परिवर्तन एवं सुधार हुए। इन सुधारों से ही उन्नति करते हुए वे आज की स्थिति में पहुंचे हैं। उनके अनुयायियों ने धर्म के अतिरिक्त उनके अन्य जिन मान्यताओं को तर्क व युक्ति के आधार पर स्वीकार किया, वही उनकी प्रगति का माध्यम, आधार बना। उनकी उन्नति के प्रभाव ने ही उनके काल सम्वत को विश्व स्तर पर स्वीकार कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में भी सम्प्रति यह ईसा संवत ही प्रचलित हो गया है। यत्र-तत्र कुछ प्राचीन वैदिक व सनातन धर्म के विचारों के लोग सृष्टि संवत व विक्रमी संवत का प्रयोग भी करते हैं, जो जारी रहना चाहिए, जिससे भावी वाली पीढि़यां उसे जानकर उससे लाभ ले सकें। नव आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनायें देते हैं और कहते हैं – ‘सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे न कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।।‘ इस बधाई देने में कोई बुराई नहीं है, और सम्पूर्ण वर्ष ही शुभकामनायें देते रहनी चाहिए। सबके सुख, शांति की कामना करनी ही चाहिए। इसीलिए तो भारतीय संस्कृति में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।’ की कामना की गई है।
उल्लेखनीय है कि इस जिन्दगी की भागमभाग में यह नश्वर जीवन क्षणाक्षण बीतता ही जा रहा है। इस जीवन में अनेक वसंत आये और कामदेव के तीर दिल पर बींधकर चले गए। न जाने कितने सावन आये और झमाझम बरस कर गुजर गए। जीवन की गाड़ी अत्यंत तीव्र गति से अपना मार्ग तय किये जा रही है। लेकिन इस संसार के अधिकांश लोगों को अपने जीवन के गन्तव्य का अभी तक भान नहीं है, पता नहीं है। अस्त- व्यस्त होकर जीवन गुजारने वाले, जीने वाले ऐसे ही लोगों के कारण इस संसार में अफरा तफरी का माहौल बना हुआ है, आपसी सिर फुटौवल की स्थिति बनी हुई है। जिन्हें अपने जीवन के गन्तव्य का ध्यान नहीं, अपनी स्थिति का ज्ञान नहीं, वे ही असली अपराधी हैं, और इस संसार को दुखमय बनाने में सहयोग कर रहे हैं। इस जीवन की परिभाषा को सत्य स्वरूप में समझने के लिए और जीवन को सही रूप में जीने के लिए हमारे पास अनंत ज्ञान को प्राप्त करने की अनंत संभावनाएं हैं, लेकिन हमारा उस ओर ध्यान नहीं है।
विद्वानों का कहना है कि इस संसार में अनंत शास्त्रों में जानने योग्य बहुत सा ज्ञान संचित है, परन्तु समय थोड़ा है और विघ्न अधिक हैं, इसलिए उस सारभूत ज्ञान को संचित करने में शक्ति लगाना चाहिए, जिससे जीवन का कल्याण हो सके। इसलिए ठीक उसी प्रकार सावधानी से ज्ञानार्जन करना चाहिए, जिस प्रकार एक हंस दूध और पानी को अलग करने में तत्परता दिखलाता है। क्योंकि इस संसार में मनुष्य की आयु सौ वर्ष भी मान लिया जाय, तो उसमें से कमाधिक एक तिहाई जीवन सोने में, पच्चीस वर्ष बाल्यपन व अध्ययन में व्यतीत हो जाते हैं। इसके बाद मधुर दाम्पत्य जीवन और गृहस्थ की द्वंद्वों तथा दुरिताओं से भरी हुई जिन्दगी की शुरूआत होती है। यह भी इन्हीं चीजों में गुजर जाती है, शेष को बुढ़ापा अपनी भेंट चढ़ा लेता है। ऐसे में ज्ञानार्जन कर जीवन को उन्नत बनाने का समय हमें कहा मिल पाता है? हर वर्ष ऐसी ही व्यस्तताओं में व्यतीत होता जाता है। हर वर्ष इसी तरह आता है, और फिर चला जाता है। नववर्ष मंगलमय नही हो पाता, नववर्ष को मंगलमय तो तब ही कहा जा सकता ही, जब जीवन के मंगल की भावना से हम स्वयं ओत-प्रोत हो जाएं। लेकिन जीवन के मंगलमय भावना से ओत- प्रोत, संयुक्त हम स्वयं कहाँ हो पाते हैं? खैर, जब भी हम नववर्ष मनाएं, आइये, जीवन के मंगलमय भावना से ओत- प्रोत, संयुक्त हो सकने की प्रार्थना परमात्मा से करने का संकल्प अवश्य लें।