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सवाल… राजनीतिक कब्र के दायरे का…?

भोपाल। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्री भारत की राजनीति आज एक अजीब आत्मघाती मोड़ पर है और इस आत्मघाती मोड़ का सिरा कब्रिस्तान में खोजा जा रहा है, भारत में कब्रिस्तान की चर्चा छेड़ने वाला प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस है, जिसने पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी को राजनीतिक कब्र में दफनाने का नारा लगाया था…। अब अगले साल आम चुनाव के समय कौन किसकी कब्र खोद पाता है और उसमे किसे दफनाता है, यह तो भविष्य के गर्भ में है किंतु आज देश के आम जागरूक व शिक्षित भारतवासी को आज की राजनीति के इस स्तर को देखकर काफी पीड़ा पहुंच रही है, यद्यपि भारत में सक्रिय दोनों राजनीतिक दलों भाजपा व कांग्रेस के बीच इनकी उम्र के हिसाब से “दादा पोते” का रिश्ता है, किंतु आज दोनों ही दल अपने इस सामाजिक रिश्ते का धर्म नहीं निभा पा रहे हैं, और ना ‘दादा’ अपने पोते से रिश्ते के अनुरूप स्नेह वह प्यार कर रहा है और ना पोता अपने दादा को बुजुर्ग होने का सम्मान दे रहा है और बल्कि दोनों अपनी अपनी वसीयत का दावा कर रहे हैं।

किंतु यह एक खेदजनक तथ्य है कि सवा सौ से अधिक उम्र का दादा (कांग्रेस) जिसकी स्वयं की ‘कब्रोन्मुख’ होने की उम्र है, वह अपने जवान पोते (भाजपा) को कब्र का रास्ता दिखाने को आतुर है और इसलिए प्रमुख पोते (प्रधानमंत्री) ने दादा को कर्नाटक में दो टूक जवाब दे ही दिया। अब ऐसी स्थिति में जबकि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में दादा पोता एक दूसरे को कब्रिस्तान का रास्ता दिखा रहे हैं, ऐसे में यह फैसला तो अगले साल के मध्य में ही हो पाएगा कि कौन किसके लिए कब्र का सदुपयोग कर पाता है, इसीलिए अगले साल होने वाले आम चुनाव के लिए अभी से देश का राजनीतिक माहौल प्रदूषित किया जा रहा है।

जहां तक राजनीतिक कब्र के दायरे का सवाल है, दादा पोते (कांग्रेस-भाजपा) की मौजूदा स्थिति में वास्तविक हालत तो यह है कि पोता चाहे कितना ही बढ़ चढ़कर बात करें, किंतु मौजूदा स्थिति में उसकी हालत दादा को नहीं स्वयं कब्रोन्मुख होने की है, क्यों पोते ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कोई प्रयास ही नहीं किए, पोता स्वयं कब्र की राह पर है दादा को उसके लिए प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं है और जहां तक 1 साल बाद के राजनीतिक भविष्य का सवाल है, तब भी आज की ही यथास्थिति बनी रहने वाली है उसमें फिलहाल परिवर्तन के कोई संकेत नजर नहीं आ रहे हैं। अर्थात आज प्रमुख प्रतिपक्षी दल कांग्रेस तो क्या यदि समूचे प्रतिपक्षी दल एकजुट होकर भी पोते भाजपा की कब्र खोदने व उसके दफनाने के प्रयास करें तो वे फिलहाल तो सफल होने के संकेत नहीं दे रहे हैं।

अब यदि हम हमारे देश के विगत राजनीतिक घटनाक्रमों की मौजूदा परिस्थिति से तुलना करें तो यह आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि 2014 के चुनावी महाभारत में मोदी के सेनापतित्व मे एक दशक पुरानी यूपीए सरकार को अपदस्थ करने की ताकत हासिल कर ली गई थी, किंतु प्रतिपक्षी दलों ने एकजुटता का दिखावी नारा देने के बावजूद एक दशक (अगले साल एक दशक हो जाएगा) कि मोदी सरकार को अपदस्थ कर पाने की ताकत पैदा हो पाई। अब इसके कारण क्या है? यह सर्वविदित है।
इस प्रकार कुल मिलाकर भारतीय राजनीति में अगले वर्ष की चुनावी राजनीति को लेकर जो महा मशक्कत चल रही है, उसमें आज सत्तारूढ़ भाजपा ही बीसी साबित हो रही है, प्रतिपक्षी कथित एकजुटता नहीं? फिर भी अभी 1 साल का समय है, राजनीतिक ऊंट हो सकता है करवट बदलने की स्थिति में आ जाए? लेकिन ऐसी संभावना धूमिल ही नजर आ रही है।

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