nayaindia Vat Savitri Purnima Vrat 2023 वट वृक्ष की पूजा और सावित्री व्रत

वट वृक्ष की पूजा और सावित्री व्रत

वट सावित्री पूर्णिमा 3 जून 2023 सोमवार को है। वहीं वट सावित्री पूर्णिमा वाले दिन विवाहित महिलाएं सुबह 07.16 से सुबह 08.59 तक कर सकती हैं। उल्लेखनीय है कि वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए प्रसिद्ध है। वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए यह अत्यंत उपयुक्त है।

3 जून- वट सावित्री व्रत

भारतीय व्रत परम्परा में सौभाग्य प्रदाता व संतान प्राप्ति में सहायक व्रत के रूप में मान्यता प्राप्त वट सावित्री व्रत में वट वृक्ष की पूजा किये जाने का पौराणिक विधान है। प्राचीन काल में सावित्री नाम की महिला की निष्ठा और पति परायणता को देखकर यमराज ने उसके मृत पति को पुन: जीवन दान दे दिया था। यह जीवनदान सावित्री के पति सत्यवान को एक वट वृक्ष के नीचे ही प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना और इसके नीचे सावित्री- सत्यवान की कथा सुनना इस व्रत का अंग बन गया। वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से वर्तमान में प्रसिद्ध है। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष को सूत के धागे से  लपेटते हुए परिक्रमा करती हैं। वट सावित्री व्रत रखने वाली स्त्री के पति पर कोई संकट नहीं आने, उसके सुहाग की उम्र लंबी होने, घर में सुख-शांति- समृद्धि, धन- लक्ष्मी का वास होने और व्रत की कथा सुनने मात्र से ही सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाने की मान्यता होने के कारण सुहागन स्त्रियों के मध्य यह व्रत विशेष महत्वपूर्ण स्थान बना चुका है।

भारतीय संस्कृति में वट सावित्री व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। मान्यताओं के अनुसार ज्येष्ठ अमावस्या के दिन पतिव्रता देवी सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राणों को रक्षा की थी। तथापि इस व्रत की तिथि को लेकर पौराणिक ग्रन्थों में मत भिन्नता हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को वट सावित्री व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि में ज्येष्ठ मास की अमावस्या को यह व्रत करने का विधान बताया गया है। पंजाब, दिल्ली, मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा आदि प्रदेशों में वट सावित्री व्रत अमावस्या अर्थात ज्येष्ठ अमावस्या के दिन रखे जाने की परम्परा है, वहीं महाराष्ट्र और गुजरात में वट सावित्री पूर्णिमा अर्थात ज्येष्ठ पूर्णिमा पर यह व्रत किये जाने की परम्परा है। कुछ स्थानों पर यह व्रत ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक रखे जाने की परम्परा है।

इसी तरह ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है। विष्णु भक्त इस व्रत को पूर्णिमा को करना उत्तम मानते हैं। तिथियों में मत भिन्नता होते हुए भी सभी स्थानों में इस व्रत का उद्देश्य -सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना ही है। वट सावित्री व्रत में वट और सावित्री दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की भांति वट अथवा बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पुरातन ग्रन्थों में वट मूले तोपवासा कहा गया है। पुराणों के अनुसार वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन करने, व्रत कथा आदि सुनने से समस्त मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस वर्ष वट सावित्री अमावस्या 19 मई 2023 दिन शुक्रवार को गुजर चुका है, वहीं वट सावित्री पूर्णिमा 3 जून 2023 सोमवार को है। वहीं वट सावित्री पूर्णिमा वाले दिन विवाहित महिलाएं सुबह 07.16 से सुबह 08.59 तक कर सकती हैं।

उल्लेखनीय है कि वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए प्रसिद्ध है। वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए यह अत्यंत उपयुक्त है। भारतीय परम्परा में वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के रूप में भी स्वीकृत है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। बौद्ध मत के अदि प्रवर्तक भगवान बुद्ध को बोधगया में इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वैदिक मान्यतानुसार सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। भारतीय संस्कृति में सावित्री ऐतिहासिक चरित्र के रूप में भी मान्य है। इस सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। पुराण, व्रत, साहित्य, निबन्ध आदि पौराणिक ग्रन्थों में सावित्री की अविस्मरणीय महिमा गान की गई है, साधना की गई है। पौराणिक कथा के अनुसार भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रति दिन एक लाख आहुतियाँ देनी शुरू कर दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम निरंतर जारी रहा।

इसके बाद देवी सावित्री ने प्रकट होकर वर दिया कि राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी। समय के अन्तराल पर देवी सावित्री की कृपा से राजा अश्वपति के यहाँ एक कन्या के जन्म लेने के कारण उस कन्या का नाम सावित्री रखा गया। कन्या बड़ी होकर अत्यंत रूपवान व गुणवान हुई, परन्तु योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ जंगल में साल्व देश के राजा द्युमत्सेन मिले। उनका राज्य छीन जाने के कारण उन्होंने वन का शरण लिया था। उनके साथ उनका पुत्र भी था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया। सत्यवान अल्पायु थे। वेद ज्ञाता थे। ऋषिराज नारद को जब यह बात का पता चला। तो वह राजा अश्वपति के पास पहुंचे, और कहा कि राजन आप ये क्या कर रहे हैं? आपका सत्यवान गुणवान है, धर्मात्मा है और बलवान भी है, परन्तु उसकी आयु बहुत छोटी है, वह अभी अल्प आयु है। और एक वर्ष के बाद उसकी मृत्यु हो जायेगी। नारद की बात सुनकर राजा अश्वपति घोर चिंता में डूब गए।

सावित्री ने उनसे कारण पूछा तो राजा ने कहा कि पुत्री, तुमने जिस राजकुमार को अपने वर के लिए चुना है, वह अल्प आयु है, तुम्हें किसी और को अपना जीवन साथी बनाना चाहिए। इस पर सावित्री ने कहा कि हे पिताश्री, आर्य कन्याएं अपने पति का एक बार ही वरण करती है, राजा एक बार ही आज्ञा देता है, पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं, और कन्या दान भी एक बार ही किया जाता है। मैं सत्यवान से ही विवाह करुँगी। विबाह के लिए सावित्री के हठ करने पर राजा अश्वपति ने सावित्री का विवाह सत्यवान से कर दिया। सावित्री अपने ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में लग गई। समय बीतता चला गया। नारद मुनि ने सावित्री को विवाह के पहले ही सत्यवान के मृत्यु के दिन के बारे में बता दिया था। मृत्यु तिथि का वह दिन जैसे-जैसे समीप आने लगा, सावित्री संयत, सतर्क होने लगी। उन्होंने तीन दिन पहले से ही उपवास शुरू कर दिया। नारद के द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन भी किया। प्रतिदिन की भांति उस दिन भी सत्यवान के लकड़ी काटने के लिए वन में जाने पर सावित्री भी उसके साथ वन गई। जंगल में सत्यवान लकड़ी काटने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गए। तभी उनके सिर में तेज दर्द होने लगा। दर्द से व्याकुल सत्यवान पेड़ के नीचे उतर गये। सावित्री अपना भविष्य समझ गई।

सत्यवान के सिर को गोद में रखकर सावित्री सिर सहलाने लगी। इसी समय वहाँ यमराज आये। और यमराज सत्यवान को अपने साथ ले जाने लगे। सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। यमराज ने सावित्री को समझने की कोशिश की कि यही विधि का विधान है, जन्म को प्राप्त व्यक्ति को मृत्यु की शरण में जाना ही पड़ता है।  लेकिन सावित्री नहीं मानी, और यम के पीछे चलती ही रही। सावित्री की निष्ठां और पति परायणता को देखकर यमराज ने सावित्री से कहा कि हे देवी तुम धन्य हो। मुझसे कोई भी वरदान मांगो। यह सुन  सावित्री ने कहा – मेरे वनवासी और अंधे सास-ससुर को आप दिव्य ज्योति प्रदान कर दें। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा। जाओ, अब लौट जाओ। लेकिन सावित्री अपने पति सत्यवान के पीछे-पीछे चलती रही। यमराज ने कहा कि देवी तुम वापस जाओ। सावित्री ने कहा भगवन मुझे अपने पति देव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं है। पति के पीछे चलना मेरा कर्तव्य है। यह सुनकर यम ने फिर से उससे एक और वर मांगने को कहा। सावित्री बोली – हमारे ससुर का राज्य छीन गया है, आप उसे पुनः वापस दिला दें।

यमराज ने सावित्री को यह वरदान भी देते हुए कहा सावित्री को लौट जाने को कहा। लेकिन सावित्री पीछे-पीछे चलती रही। इस पर यमराज ने सावित्री को तीसरा वरदान मांगने के लिए कहा। इस पर सावित्री ने सौ सन्तानों और सौभाग्य का वरदान माँगा। यमराज ने इसका वरदान भी दे दिया। इस पर सावित्री ने यमराज से कहा कि मैं एक पतिव्रता पत्नी हूँ, और आपने मुझे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया है। यह कैसे सम्भव होगा? यह सुनकर यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े। और यमराज अंतर्ध्यान हो गए। सावित्री उसी वट वृक्ष के पास आ गई, जहाँ उसके पति का मृत शरीर पड़ा हुआ था। सत्यवान जीवंत हो गए और दोनों प्रसन्नता पूर्वक अपने राज्य की ओर चल दिए। दोनों जब घर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि माता-पिता को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई है। इस प्रकार सावित्री और सत्यवान चिर काल तक राज सुख भोगते रहे।

By अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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