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गपशप

मोदी राज में जात राजनीति वीपी सिंह राज से ज्यादा!

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हां, मई 2014 से मई 2023 के कर्नाटक चुनावतक का यह भी एक सत्य है कि मोदी सरकार ने हिंदू बनाम अन्य का खेला खेला तो फॉरवर्ड बनाम ओबीसी बनाम दलित बनाम आदिवासी, लिंगायत बनाम वोक्कालिगा जैसी जातीय राजनीति का भी खूब जहर फैलाया। याद करें मई 2014 में नरेंद्र मोदी द्वारा कांग्रेस के घटिया, नीच राजनीति के जुमले में से ‘नीच’ शब्द को पकड़ नरेंद्र मोदी ने अपनी जाति के साथ ‘नीच’शब्द से कैसा हल्ला बनाया था। नौ वर्षों के कार्यकाल की एक और लैंडमार्क घटना बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लोकसभा में अपनी कैबिनेट का परिचय कराते हुए मंत्रियों में पिछड़े, दलित व आदिवासी मंत्रियों की संख्या बताने की थी। सोचे, क्या ऐसा कभी मंडल मसीहा वीपी सिंह या दलित-आदिवासी के आरक्षण की व्यवस्था करवाने वाले नेहरू ने संसद में किया? जाहिर है ऐसा इसलिए था क्योंकि नरेंद्र मोदी का पहले दिन से निश्चय था और है कि हिंदू के साथ अपने आपको ओबीसी, पिछड़ों की राजनीति का चेहरा बतलाते हुए किसी भी दूसरे मंडलवादी नेता का इंच भर स्पेस नहीं बनने देना है।

उसी का परिणाम है जो देश के भीतर लोग बंटे हैं, जातिय राजनीति उग्र होते हुए है। मोदी का हिंदू राष्ट्र वैश्विक तौर पर जातियों की ऊंच-नीच की हिंदू बदनामी बना बैठा है। क्या आपको पता है कि कनाडा, अमेरिका आदि देशों में अब हिंदू समाज की जातीय कलह वहां के शासन की चिंता है? इस सप्ताह मुझे डॉ. कौशिक से कनाडा की नई वास्तविकता जानने को मिली। वहां ये आदेश हुए हैं कि यदि सरकारी स्कूलों में हिंदुओं के बच्चों में ऊंच-नीच व्यवहार की घटना हो तो जातीय-नस्लीय भेद अनुसार कार्रवाई हो। मतलब कक्षा में ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य याकि फॉरवर्ड के बच्चे को लेकर किसी दलित बच्चे या अभिभावक ने टीचर से शिकायत की तो स्कूल प्रशासन कार्रवाई करे। इसका दूसरा प्रभाव यह है कि बाकी पूरी क्लास में बच्चे हिंदुओं के बच्चों के फर्क को जानते हुए सभी हिंदू बच्चों को समान भाव हेय दृष्टि से देखते हैं। ऐसे में अपमानित या धर्म बदलने के लिए कहे या उन्हे प्रताड़ित करें तो यह नेचुरल और रूटिन बात। यह सब आगे धीरे-धीरे कॉलेज, विश्वविद्यालय और वैश्विक शिक्षा संस्थाओं में सामान्य बात होगी।

सोचें, हिंदू भारत की सीमा के बाहर विदेश में जातीय वैमनस्य, ऊंच-नीच के भेद से बेखबर जीवन जीता हुआ था। लेकिन अब अमेरिका (वहा कुछ प्रदेशों में कानून बन गया है और आगे बाकी में बनता जाएगा) पूरे कनाडा (धीरे-धीरे सभी पश्चिमी देशों में यह स्थिति बननी है) की शिक्षा व्यवस्था और फिर हिंदुओं के प्रति शासन के आम रवैये में हिंदुओं के प्रति मनोभाव या तो बदल गया है या बदलता हुआ है।

और पता है कनाडा या अमेरिकी राज्यों में स्कूली शिक्षा व्यवस्था में हिंदू जातीय भेदभाव की नई अंग्रेज नीति का कथित विश्वगुरू नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार की ओर से न प्रतिकार है और न यह चिंता है कि भारत की जातीय राजनीति 2014 के बाद इस तरह कैसे कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन आदि में जा पहुंची है जो हिंदुओं की इमेज बिगड़ी। कनाडा में हिंदू बनाम सिख का जो वैमनस्य बना है वह तो और भी त्रासद तथा भयावह है!

जाहिर है संघ परिवार, भाजपा और नरेंद्र मोदी को अहसास ही नहीं है कि उन्होने हिंदू राजनीति की आड़ में जात राजनीति करके हुए हिंदुओं को देश और विदेश में कितना बिखेरा तथा बदनाम बनाया है। पिछले नौ वर्षों में हिंदू राजनीति की हवाबाजी में नीच, पिछड़े, फॉरवर्ड-बैकवर्ड और ब्राह्मण-बनिए तो ‘हमारी जेब में’ के अहंकार से ले कर या एससी-एसटी एक्ट, मुस्लिम आरक्षण, खालिस्तानी से ले कर कर्नाटक, मणिपुर में जैसी जो राजनीति की है तो उससे हिंदू पूरी दुनिया में हर तरह से बदनाम है। वह ठोका और पीटा गया है। स्कूलों में हिंदू बच्चे प्रताड़ित हो रहे हैं। दुनिया का हर उदारवादी यह मानने-समझने लगा है कि नरेंद्र मोदी, संघ परिवार का राज उस गंदे हिंदू समाज का प्रतिनिधि है, जो जातवादी है, जिसमें अत्याचार, शोषण और असमानताएं हैं। मोदी सरकार की करनियों, घोषणाओं, भाषणों तथा संघ परिवार के लोगों और भक्तों के विदेशों में अहंकारी-कठमुल्लाई आचरण ने पश्चिमी देशों में हिंदुओं के प्रति जुगुप्सा पैदा की है। निश्चित ही इसमें उन मुसलमानों, उन हिंदू सेकुलरों-वामपंथियों, उन खालिस्तानियों के साझा गठजोड़ का रोल है जो अपने-अपने कारणों व विचारों से मोदी सरकार के घनघोर विरोधी हैं। ये विदेश में भारत के दूतावासों, राजदूतों से ज्यादा पॉवरफुल हो गए हैं। ऋषि सुनक, कमला हैरिस या बाइडेन प्रशासन में भरे हुए प्रवासी भारतीयों में अब किसी की हिम्मत नहीं है जो वे मोदी सरकार का बचाव करे या यह धारणा मिटवाए कि हिंदू कटरपंथी नहीं हैं या यह समझाना कि पढ़े-लिखे हिंदू जातीय संकीर्णताओं से ऊपर उठे हुए हैं। हिंदू जीवन पद्धति जातिवाद, धर्म और नस्लवाद के घेरों में वैसी कतई नहीं है जैसी चाइनीज, इस्लामी, रूसी-स्लैविक जीवन पद्धतियां हैं।इसलिए समाज और शिक्षा में यह मानसिकता नहीं बनने देनी चाहिए कि हिंदू कहीं भी रहे वह जातीय ऊंच-नीच में जीता है।

पर इतना और ऐसे सोचने का मोदी सरकार और संघ में क्या सामर्थ्य है? उलटे खुद नरेंद्र मोदी और उनके भक्त दिन-रात अपने मुंह से नीच, पिछड़े, ओबीसी, आरक्षण, हिंदू-मुस्लिम, के डायलॉग निकलाते हैं तो दुनिया इतनी अंधी तो नहीं जो हिंदुओं को वह समझदार-सेकुलर और आधुनिक समझे। नरेंद्र मोदी ने यदि भारत की संसद में मंत्रिमंडल की कास्टिस्ट महिमा बनाई तो संघ प्रमुख मोहन भागवत का ताजा बयान जातीय सच्चाई की स्थापना में मील का पत्थर है। भागवत ने ब्राह्मणों पर ठीकरा फोड़ते हुए कहा- जाति भगवान ने नहीं बनाई यह पंडितों ने बनाई है। बाद में कहने को ब्राह्मणों की नाराजगी के बाद संघ की और से सफाई दी गई है कि भागवत के वाक्य में पंडित शब्द का उपयोग ज्ञानियों के लिए था।

सोचें, पंडित शब्द पर दी गई इस सफाई पर। क्या लोग इतने मूर्ख हैं जो हिंदू संदर्भ में, जातीय संदर्भ में पंडित का अर्थ ब्राह्मण जात की बजाय विद्वान या ज्ञानी मानें! जिन ग्रंथों (मनुस्मृति, रामचरतिमानस आदि) के हवाले अंग्रेजों के समय से हिंदुओं का जातीय नैरेटिव चला आ रहा है, वे क्या ब्राह्मण नहीं थे? मुझे ध्यान नहीं है कि 2014 से पहले संघ के किसी भी प्रमुख ने जातीय नैरेटिव में कोई वाक्य या टिप्पणी की हो जैसे मोदी की संगत में मोहन भागवत लगातार करते हुए है।

जाहिर है नरेंद्र मोदी-अमित शाह की संगत में वोट की चिंता में मोहन भागवत और संघ नौ वर्षों में जातिवादी परेशानियों व दुविधाओं में है। मोदी की सत्ता के पिंजरे में संघ अब वह तोता है, जिसे बार-बार जात, आरक्षण की वोट मैसेजिंग में बोलना पड़ता है। कर्नाटक में मोदी का जादू फेल हो रहा है तो उसके दबाव में मोहन भागवत भी है। मोदी और शाह इन दिनों नीतीश कुमार, मल्लिकार्जुन खड़गे, स्टालिन से लेकर राहुल गांधी की जातीय राजनीति से परेशान हैं तो स्वाभाविक है जो पूरा संघ परिवार अपनी नई पोजिशनिंग बनाए। इसमें अगड़े और खासकर ब्राह्मण के खिलाफ जितना हल्ला बनवाया जाएगा उतनी ओबीसी में विश्वनीयता बनेगी। तभी मोहन भागवत ने पंडितों को कोसा तो अपने आपको हिंदुवादी चेहरा बतलाने वाले गिरिराज सिंह भी स्वामी सहजानंद सरस्वती की जयंती पर यह ज्ञान बघार रहे थे कि नरेंद्र मोदी जैसा कोई दूसरा पिछड़ों का पिछड़ा नेता नहीं है। मतलब  2014 में मोदी केवल हिंदू नेता और अब 2023 में पिछड़ों के प्रधानमंत्री? संभव है कि भाजपा-संघ जातीय जनगणना और जिसकी जितनी संख्या उतने आरक्षण का आगे चुनावी वादा बना डाले। नीतीश-स्टालिन ने यदि प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण का वायदा बनवा दिया तो संघ भी कूद पड़े। क्योंकि हर हाल में 2024 का चुनाव जीतना है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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