मैं साल पचहत्तर में दिल्ली आया। उसके पांच-आठ साल बाद नरेंद्र मोदी दिल्ली आए होंगे। वे 11, अशोक रोड के पार्टी दफ्तर के पिछवाड़े में रहते छे। उन्होने भी तब नई दिल्ली को खूब छाना था। उन्हे भी याद होगा, वे भी मानेंगे कि तबअशोका रोड के इर्द-गिर्द के इलाके में मजा था। राजनीतिबाज हो, पत्रकार हो या साहित्यकार-संगीतकार-नृत्यकार, रगंकर्मी सबके लिए नई दिल्ली मजा, मनमभावक आनंद, सुख लिए हुए थेजिसे अब यदि नरेंद्र मोदी खुद ढूंढे तो उन्हे वैसा इंच भर अहसास नहीं होगा। मुझे पता है कि उन दिनों आडवाणी, वाजपेयी और उनके सहयोगी नरेंद्र मोदी, गोविंदाचार्य जैसे प्रचारकों की दिलचस्पी में क्या हुआ करता था। मेरी और राजनैतिक चेहरों की अलग-अलग दिलचस्पियों के बावजूद सबको तब मजा आता था संसद में नेताओ, सांसदों के भाषण सुन कर। हंगामेदार बहस से। बोट क्लब की रैलियों, कांस्टीट्यूशन क्लब के सेमिनार और गोष्ठियों के साथ जन चेतना बनवाने वाले आंदोलनों से।
साल का अंत याकि दिशंबर-जनवरी में नई दिल्ली का मंडी हाऊस इलाका सांस्कृतिक सरगर्मियों सेऐसा भरा-पूरा होता था कि दिपावली के बाद से हर थियेटर गायन, वादन, नाटक, प्रदर्शनियों, पूरी रात-रात होने वाले संगीत समारोह के कलैडंर लिए हुए होते थे। विश्वास नहीं होगा लेकिन ऐसा भी था जो इंदिरा गांधी भी किसी संगीत समारोह पर नीचे बैठी हुई होती थी तो अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी। सप्रू हाऊस के सभागार में पंजाबी नाटकों की धूम तो बगल के माडर्न स्कूल में ऱविशंकर, भीमसेन, कुमार गंर्धव जैसे संगीतकारों का पूरी-पूरी रात गायन-वादन।
और अब? मोदी राज में पत्रकार भी अब संसद भवन नहीं जाते। संसद में शायद ही किसी का भाषण या किसी अंहम मसले की बहस इतिहास का दस्तावेज बनते है। सब सूखा-बंजर-नीरस और एकतरफा एकालाप। न संसद में लौकतांत्रिक-सियासी जैविकता और न उसके बाहर जनता और राजनीति की जिंदादिली। न पक्ष और न विपक्ष में बहस, विचारोंकी उर्जा सरगर्मी या जोश या राजनैतिक जज्बा। पूरे देश में अखबार पढ़ने का मजा खत्म तो समाचार टीवी चैनल भौपूगिरी करते हुए। तब नई दिल्ली इलाके में ही संसद भवन की लाईब्रेरी, यूएसआईएस लाईब्रेरी और रफी मार्ग की ब्रिटिश लाईब्रेरी भी खबर-विचार-किताबों से् पढ़े-लिखों का ठिकाना हुआ करता था। अबवे या तो खाली या खत्म। न अब भीमसेन जोशी, रविशंकर, अल्काजी की परंपरा वाले गायक-वादक, रंगकर्मीकी सृजनात्मकता जैसी प्रस्तुतिया और न अज्ञेय-निर्मल वर्मा जैसे हिंदी साहित्यकारों, किताबों को लेकर चर्चाए। साहित्य अकादमी जैसे ठिकानों सेहिंदी पुस्तकों को इश्यू कराने से ले कर खरीदने की पुरानी दुकाने या तो खत्म है या वीरान। उन दिनों एनएसडी के नाटकों के कई सप्ताह के प्रोग्राम हुआ करते थे। एक संस्था थी (नाम भूल रहा हूं) वह दिल्ली विश्वविद्याल के लिए हर साल सांस्कृतिक उत्सव कराया करती थी। अब न वह संस्था बची और न नई संस्था है। भारत के नौजवानों में शास्त्रीय संगीत या नृत्य की कोई दिलचस्पी नहीं है।
मेरा मानना है कि जैसे दिल्ली तब जीवन की विविधताओं (राजनीति, आर्थिकी, समाज, संस्कृति) की भरी-पूरी जीवतंता लिए हुए थी वैसे मुंबई में जंहागीर आर्ट गैलेरी का इलाका, भोपाल में भारत भवन और लखनऊ-बनारस में हिंदी चखचख के ठिकानों तथा बांग्ला, मराठी, कन्नड, मलायली के सांस्कृतिक शहरों-ठिकाने में भी वह सब होता था जिनसे लोगों को जिंदादिली के मनभावक रस-रंग का आनंद मिला करता था। वह सब अब खत्म है। न मराठी थियेटर का पहले जैसा जलवा सुनने को मिलता है और न टॉलीगंज या बालीवुड की रौनक है। जिस बॉलीवुड ने सबकों (क्षेत्रिय सिनेमा) खाया वह खुद आज मृतप्राय है। सोचे वर्ष 2022 मेंहिंदी की 850 फिल्में रिलीज़ हुईं लेकिन उनमें से केवल 22 फिल्में चर्चित हुई। और उसमें भी हिट सिर्फ पांच फिल्मे। सो कल्पना करे बॉलीवुड का कैसा बाजा बजा हुआ होगा।
तो घूम फिर कर कहां पहुंचे? बॉलीवुड पर भी रोइए। फिल्म, संगीत, साहित्य, नाटक, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया, पठन-पाठन, लिखना-पढना, सर्जनात्मकता, रचनात्मकता सब सन् 2022 के अमृतकाल में ठूंठ,बेरंग और खलास। यदि नरेंद्र मोदी खुद सन् 1985 की नई दिल्ली की यादों में आज के मंडी हाऊस इलाके, नई दिल्ली को तलाशे तो वे भी हैरान होंगे कि उनके राज मेंनई दिल्ली ने पाया क्या? धौलपुरी पत्थरों के अलावा?