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डॉ. वैदिकः हिंदी पत्रकारिता और खाली!

वैदिकजी कभी थके नहीं। कभी हारे नहीं। कभी विश्राम नहीं किया। उन्हें जीवन से कभी कोई गिला नहीं रहा। शायद ही किसी से वे चिढ़े या उनका कोई दुश्मन हो। लोगों की उनसे रागात्मकता इसलिए थी कि भला उन जैसा निस्पृह, निर्लोभ दूसरा कौन है शहर में!

सोचें, ‘नया इंडिया’ का पहले पेज का बॉटम आज से बिना डॉ. वैदिक की उपस्थिति के होगा। लगभग 11 वर्षों से डॉ. वैदिक ‘नया इंडिया’ के पहले पेज के लिए लिखते हुए थे। गजब संयोग जो पांच दिन पहले होली के दिन प्रेस एनक्लेव में बेटी अपर्णा के यहां लंच करके डॉ. वैदिक अपने बेटे सुपर्ण के साथ दोपहर बाद मेरे घर आए। एक-दो घंटे गपशप के बाद अचानक उन्हें ख्याल आया की उन्होंने आज कॉलम नहीं लिखा है। आज तो देर हो जाएगी। मैंने बताया कि आज अखबार नहीं छपेगा…इसलिए छोड़िए। उनका जवाब था पर वेबसाइट तो है। मगर वे मेरे कहे को यह कहते हुए मान गए कि इतने वर्षों में पहली बार ऐसा होगा।…और, उफ! पांच दिन बाद मंगलवार को हमेशा के लिए डॉ. वैदिक की कलम शांत! जाहिर है हर शाम मुझे अब पहले पेज पर वैदिकजी की बुद्धि और तर्क की कमी खलती हुई होगी। भला उनका कोई विकल्प है?  आप भी सोचें, हिंदी का हर सुधी पाठक और पत्रकार बूझे कि कौन है या हो सकता है डॉ. वैदिक जैसा बुद्धिधर्मी लिक्खाड़!

इसलिए डॉ. वैदिक का निधन हिंदीभाषियों की वह क्षति है, जिसे समझने में यों आज का समाज, राजनीति, और मीडिया समर्थ नहीं है मगर जो समझते हैं या भविष्य में जब भी आज के वक्त का पोस्टमार्टम होगा तो यह जरूर निष्कर्ष बनेगा कि 53 करोड़ हिंदीभाषियों की ऐसी कैसी दुनिया थी या है जहां न तो देश-काल पर विचारने वाले बुद्धिधर्मी है और न लिखने वाले पत्रकार।

डॉ. वैदिक ने जिंदगी अपनी फितरत में जी। मेरा मानना है बतौर पत्रकार, लिक्खाड़ और वक्ता के डॉ. वैदिक ने 78 साल स्वांत सुखाय और कुछ आत्ममुग्धता में जीवन जीया। उनका वैसा जीना हिंदी पत्रकारिता की एक अनहोनी है। वे निराले थे। आजाद भारत के इतिहास में ऐसे पत्रकार हुए ही नहीं हैं, जिन्होंने आखिर तक विचारते-लिखते हुए सांस ली। यही उनके स्वस्थ और दीर्घायु होने का राज था। वे न कभी बीमार हुए और न कभी एलोपेथी दवा खाई। तभी मैं उनको बाथरूम में हार्ट अटैक होने की बात से चौंका। लगा कि कोविड काल का असर गंभीर अनहोनी लिए हुए है।

बहरहाल, मैं डॉ. वैदिक को एक्टिविस्ट मानता रहा हूं। वे हिंदी आंदोलन के बाल एक्टिविस्ट थे। जेएनयू में हिंदी में रिसर्च की जिद्द और आंदोलन से भी उनकी एक्टिविस्ट तासीर को पंख लगे। वे ताउम्र मातृभाषा के लिए संघर्षरत रहे। वे न समाजवादी थे न कांग्रेसी और न हिंदुवादी। वे आर्यसमाज से संस्कारित एक आर्यवीर थे। उसकी निडरता में उन्हें जब-जब जो-जो सही समझ आया, वह किया।

डॉ. वैदिक को मैं हिंदी पत्रकारिता के मालवा घराने याकि पत्रकारिता की ‘नई दुनिया’ स्कूल का हिस्सा मानता हूं। पत्रकारिता की दिक्षा में वे राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के समवर्ती नहीं थे। मगर हां, राहुल बारपुते व ‘नई दुनिया’ से साठ के दशक बाद इंदौर में बौद्धिक उर्वरता की जो आबोहवा बनी थी और उससे हिंदी का जो आग्रह हुआ, पढ़ने-लिखने का जो चस्का पैदा हुआ तो डॉ. वैदिक भी उससे पत्रकारिता की और खींचे थे। वे जेएनयू, दिल्ली में आए और हिंदी आंदोलन का चेहरा बने तो डॉ. वैदिक का प्रोफाइल जहां बहिर्मुखी एक्टिविस्ट का वहीं इंदौर के संपादक अंतर्मुखी बुद्धिधर्मी। उस नाते मोटामोटी राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी और डॉ. वैदिक तीनों के अलग-अलग मिजाज के बावजूद तीनों की लेखनी से हिंदी पत्रकारिता और भाषा न केवल धन्य हुई, बल्कि देश के अंग्रेजीदां प्रभु वर्ग के लिए भी वह पठनीय।

डॉ. वैदिक ने हर विषय पर लिखा। कूटनीति, विदेश नीति, प्रधानमंत्रियों से लेकर सामाजिक विषयों पर उनका लगातार लिखना दिल्ली के प्रभु वर्ग के लिए सचमुच हैरानी भरा था। वैदिकजी ने क्योंकि इंदिरा गांधी के बाद से अब तक की राजनीति, कूटनीति और नेताओं को करीबी से जाना-बूझा हुआ था, कई देशी-विदेशी नेताओं से उनका संपर्क-संवाद रहा तो धीरे-धीरे उनका लिखना कुछ मध्यमार्गी और आत्ममुग्धता में ढला। वह उनका स्वांत सुखाय वाला भाव था। यही उनके 78 वर्षीय स्वस्थ दीर्घायु जीवन का वह रस था, जिसके चलते वे हाल के दिनों में जनदक्षेश बनाने की जबरदस्त धुन पाले हुए थे। वे सचमुच कभी थके नहीं। कभी हारे नहीं। कभी विश्राम नहीं किया। उन्हें जीवन से कभी कोई गिला नहीं रहा। शायद ही किसी से वे चिढ़े या उनका कोई दुश्मन हो। वे अपनी खुशमिजाजी, सहजता, सरलता और आत्ममुग्धता और यादों के अपने झरोखों से उन सबको अपनी जीवतंता और आनंद से तरबतर कर देते थे, जिनकी उनसे दशकों से रागात्मकता इसलिए थी कि भला उन जैसा निस्पृह, निर्लोभ भला दूसरा कौन है शहर में! वैदिकजी ने न तो अपने लिए कभी कुछ चाहा और न उसे प्रकट किया। वे आखिरी दिन की पूर्व संध्या में भी पढ़ते रहे, सोचते रहे, लिखते रहे…. आखिर तक!

By हरिशंकर व्यास

भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक।  ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।

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