हेनरी किसिंजर 100 साल के हुए। निसंदेह उनके लिए यह जश्न का मौका है। इसलिए नहीं क्योंकि इस धरती पर वे एक सदी गुज़ार चुके हैं बल्कि इसलिए क्योंकि उनकी ज़िंदगी से कोई भी रश्क, ईर्ष्या कर सकता है। वे एक यहूदी हैं, जिसे नाज़ी जर्मनी से भाग कर अमरीका में पनाह लेनी पड़ी थी।लेकिन आगे चलकर वे दुनिया के वे नेता, कूटनीतिज्ञ बने जिनके कारण चीन का अछूतपना खत्म हुआ। किसिंजर-निक्सन के ही हाथ रखने से कम्युनिस्ट देश दुनिया की फैक्ट्री बना। साम्यवाद लाल पूंजीवाद में बदला। किसिंजर ने अतीत को देखने की नयी दृष्टि दी और एक नए भविष्य को आकार दिया। उनकी विरासत जितनी ख़ूबसूरत है उतनी ही खून से सरोबार भी है। जहाँ उनकी विरासत के प्रति श्रद्धा भाव रखने वाले लोग हैं, वहीं उतनी ही शिद्दत से उस विरासत से नफरत करने वाले भी हैं।
मैंने किसिंजर को पढ़ा है, खूब पढ़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों का कोई विद्यार्थी उनसे अछूता रह ही नहीं सकता। और ईमानदारी की बात तो यह है कि उनका लिखा पढ़ते समय, उनकी कूटनीतिक चतुराई और अलग-अलग मिजाज़ के दुनिया भर के नेताओं से निपटने में उनकी सधी हुई चालों के बारे में जानते समय, उनके जैसा बनने को जी चाहता है। परन्तु हर कोई तो किसिंजर नहीं हो सकता। किसिंजर तो केवल एक है – वह जिसका दिमाग 100 साल की उम्र में भी उतना ही सजग है जितना कि 70 साल पहले था।
हाल में उन्होंने ‘द इकोनॉमिस्ट’ की टीम के साथ 8 घंटे तक इस विषय पर चर्चा की कि अमेरिका और चीन के बीच प्रतिद्वंदिता को युद्ध में बदलने से रोकने के लिए क्या किया जा सकता है।‘द इकोनॉमिस्ट’ ने लिखा कि उनकी कमर झुक गई और चलने में उन्हें तकलीफ होती है परन्तु उनका दिमाग किसी तेज धार के चाकू जितना पैना है और हाँ, वे दो और किताबें लिखने जा रहे हैं – एक आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस पर और दूसरी वैश्विक गठबन्धनों की फितरत पर। सौ के हो जाने के बाद भी किसिंजर पीछे मुड़ कर नहीं देखना चाहते, उनकी नज़रें भविष्य पर टिकी हैं।
दुनिया में कोई ऐसा दूसरा जीवित मनुष्य नहीं है जिसे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की उतनी समझ और उतना ज्ञान हो जितना किसिंजर को है।19वीं सदी की डिप्लोमेसी को लेकर उनके पास ज्ञान का खज़ाना है। वे बरसों अमेरिका के विदेश मंत्री और नेशनल सिक्यूरिटी एडवाईजर रहे। पिछले 46 सालों से वे अपने किसिंजर एसोसिएट्स में बतौर कंसलटेंट काम कर रहे हैं और दुनिया भर के बादशाहों, राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से अमरीका के दूत के रूप में मिलते रहे हैं।
वे जर्मन भी हैं, अमेरिकी भी। वे सैनिक भी रहे हैं, जासूस भी। वे हार्वर्ड के पंडित भी रहे हैं और राजनेता भी।एक ऐसे भू-राजनैतिक भविष्यवक्ता जिसके आड़े-टेड़े रास्तों पर चलकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली पदों तक वे जैसे पहुंचे, वह यात्रा एक सपने जैसी है। अमेरिका की ताकत जब अपने चरम पर थी, जब वह पूरी दुनिया का चौधरी था, उस समय वे अमेरिका का प्रतिनिधित्व किया करते थे। वे अमरिकी मूल्यों की जबरदस्त वकालत करते थे। इसलिए उनके कारण कई इंकलाबी आंदोलनों का गला घोंटा गया तो कई देशों में अमेरिका की पिट्ठू वे सैनिक सरकारे बनी जिन्होने नरसंहार किए।
उनके मुरीदों के लिए वे एक ऐसे डिप्लोमेट हैं जो यह अच्छी तरह समझता है कि क्या हासिल किया जा सकता है और कैसे? जो जानकार उनके खिलाफ हैं, वे उन्हें युद्ध अपराधी मानते हैं। किसिंजर एक ऐसे व्यक्ति हैं जिसे या तो आप चाह सकते हैं या जिससे नफरत कर सकते हैं।लेकिन नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। और ना ही उनकी 100वीं वर्षगांठ पर आप अपने आप को उनके बारे में कुछ कहने से रोक सकते हैं।
आश्चर्य नहीं कि अख़बार और पत्रिकाएँ किसिंजर के 100 सालों का लेखाजोखा कर रहे हैं, उनकी लम्बी और घटनापूर्ण ज़िन्दगी पर नज़र डाल रहे हैं – एक ऐसी ज़िन्दगी जिसमें उन्होंने दुनिया भर के देशों के आपसी रिश्तों को बनाने-बिगाड़ने और आज की वैश्विक व्यवस्था की तामीर में अहम भूमिका अदा की। जब वे जन्में थे तब जर्मनी के आखिरी बादशाह को अपनी गद्दी छोड़े केवल पांच साल हुए थे। तब से लेकर आज तक दुनिया बहुत बदल चुकी है और किसिंजर के खुद के दस्तावेज, जिनका वज़न 30 टन से ज्यादा है, इसके गवाह हैं।
किसिंजर की ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण पड़ावों के बारे में सब कुछ जगजाहिर हैं। वे पहले अमेरिका के विदेशी मामलों के सलाहकार रहे और फिर रिचर्ड निक्सन और गेराल्ड फोर्ड के राष्ट्रपति कार्यकाल में विदेश मंत्री। इस दौरान उन्होंने वियतनाम युद्ध ख़त्म करवाने, सोवियत संघ के साथ अमरीका के रिश्तों में बेहतरी लाने, चीन के साथ अमरीका के सम्बन्ध कायम करने, प्रजातान्त्रिक ढंग से चुने गए एक नेता का तख्ता पलटने और कई मुल्कों की सीमाओं को बदलने में भूमिका अदा की।
किसिंजर की शख्सियत का एक दूसरा पहलू भी था, जिसके बारे में बहुत नहीं लिखा गया है। बीसवीं सदी के ‘मेकर-शेकर’ के अलावा, जैसा कि युवा किसिंजर के जीवन पर एक चापलूसी लेख में लिखा गया कि, वे “निक्सन प्रशासन के सेक्स सिंबल भी थे।” किसिंजर ने कभी यह छुपाने की कोशिश नहीं की कि वे निक्सन के आदमी थे। अईज़ाय बर्लिन ने उन्हें ‘निक्सोंजर’ का ख़िताब दिया था। वाशिंगटन के उच्च वर्गीय फैशनेबल हलकों में तब भी उन्हें वेस्ट विंग (व्हाइट हाउस का वह हिस्सा जिसमें राष्ट्रपति का ओवल ऑफिस है) का प्लेबॉय कहा जाता था। वे फोटो खिंचवाने के शौक़ीन थे और फोटोग्राफर उनकी फोटो खींचने के लिए आतुर रहते थे। वे अख़बारों और पत्रिकाओं के गॉसिप पेजों में अक्सर मौजूद रहते थे, विशेषकर जब मशहूर महिलाओं के साथ उनकी मौजमस्ती के किस्से जाहिर हो जाया करते थे। वे जंग का विरोध करने वालों को नीची निगाहों से देखते थे और उन्हें “उच्च मध्यम वर्ग के कॉलेज के बिगड़े लड़के” बताते थे। वे कहते थे, “जब शक्ति परिक्षण का वक्त आएगा तब पॉवर टू द पीपल का नारा बुलंद करने वाले इस देश को अपने हाथों में नहीं लेंगे।” महिलाएं उनके लिए खेलने का खिलौना भर थीं। उन्होंने कहा था, “मेरे लिए औरतें केवल अच्छा समय बिताने का साधन हैं, हॉबी हैं और कोई भी हॉबी को बहुत ज्यादा समय नहीं देता।” परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि वे उच्च वर्ग और धनिकों के उदारवाद को पसंद करते थे। चुनिंदा मेहमानों वाली पार्टियाँ, भव्य भोज और फ़्लैश बल्ब उन्हें भाते थे।
इस चमकदमक, ग्लैमर और सम्मान के बावजूद, दुनिया को देखने का किसिंजर का नजरिया उनके इस कथन से जाहिर है: “अमरीका का न तो कोई स्थाई दुश्मन है और ना ही कोई स्थाई दोस्त। उसके केवल स्थाई हित हैं।” आश्चर्य नहीं कि हार्वर्ड में उनके डॉक्टरेट शोधप्रबंध का विषय था: “शांति, वैधता और संतुलन (कैसलरीग और मेटरनिक की शासन कला का अध्ययन)”।
किसिंजर की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति बिस्मार्क के खांचे में ढली थी। जर्मनी के पहले चांसलर की तरह उनका भी मानना था कि “पॉलिटिक्स इज द आर्ट ऑफ़ द पॉसिबल” अर्थात राजनीति में सवाल यह नहीं होता कि क्या सही और उचित है बल्कि सवाल यह होता है कि हम क्या हासिल कर सकते हैं। संक्षेप में, राजनीति में आदर्शवाद के लिए कोई जगह नहीं है। और शीत युद्ध में उन्होंने दुनिया को दिखा दिया कि राजनीति एक कला है, जिसका इस्तेमाल असंभव को संभव बनाने के लिए किया जा सकता है। सन 1971 में बीजिंग की अपनी एक गुप्त यात्रा के बाद, किसिंजर ने निक्सन को माओ की सरकार के साथ मिलने-बैठने और चीन से सम्बन्ध बनाने के लिए राजी कर लिया। यद्यपि इसकी कड़ी आलोचना हुई परन्तु यह न केवल शीत युद्ध वरन आधुनिक दुनिया के इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ था। किसिंजर ने चीन और सोवियत संघ के बीच चौड़ी होती खाई का फायदा उठाते हुए, चीन के साथ अमरीका के व्यापारिक रिश्तों की राह प्रशस्त की। जब दुनिया योम किप्पुर युद्ध को चुपचाप देख रही थी उस समय किसिंजर, एक महीने पहले चिली में विद्रोह करवाने के बाद, अरब देशों की राजधानियों के बीच आना-जाना कर रहे थे।
उन्होंने रातों-रात इजराइल को इतने हथियार और असलाह हवाईजहाजों के ज़रिये पहुंचा दिए कि दुनिया के उस इलाके का शक्ति संतुलन इस हद तक बदल गया कि तब से लेकर आज तक अरब देशों ने इजराइल पर हमला नहीं किया। उसी साल के अंत में एक संधि के साथ वियतनाम युद्ध का अंत हुआ। किसिंजर की कूटनीतिक सफलताओं को मान्यता देते हुए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। दुनिया के रंगमंच पर उनकी कूटनीति, अमरीकी डिप्लोमेट्स के लिए ब्लूप्रिंट बन गयी और साथ में, उनके आलोचकों के लिए उनके करियर पर एक बदनुमा दाग। चिली में विद्रोह, बांग्लादेश, पाकिस्तान और पूर्वी तिमोर के घटनाक्रम और कंबोडिया पर बमबारी में उनकी भूमिका आज भी बहस का विषय हैं।
सन 2001 में क्रिस्टोफर हिचेन्स ने अपने लेख “द ट्रायल ऑफ़ हेनरी किसिंजर” में लिखा, “चिली निसंदेह किसिंजर की विरासत पर सबसे बदनुमा दाग है।” वे चिली के प्रजातान्त्रिक ढंग से चुने गए समाजवादी राष्ट्रपति साल्वाडोर ऑलेंदे की सरकार को अस्थिर करने की अमेरिकी नीति के मुख्य निर्माता थे। उन्होंने चिली के जनरल औगस्तो पीनोशे, जिन्होंने आलेंदे की सरकार का सितम्बर 1973 में तख्तापलट दिया था, को पूरा समर्थन दिया था। यहाँ तक कि उन्होंने आंलेंदे के समर्थकों पर पीनोशे के वीभत्स अत्याचारों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया। किसिंजर कितने ही कुशल कूटनीतिज्ञ क्यों न रहे हों, उनके हाथ खून से रंगे हुए हैं। यही कारण है कि वे कई देशों में कभी जाते ही नहीं हैं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि उन्हें युद्ध अपराध करने के आरोप में गिरफ्तार कर उन पर मुक़दमा चलाया जा सकता है। सन 2002 में चिली की एक अदालत ने कहा था कि किसिंजर को 1973 में वहां हुए विद्रोह में अपनी भूमिका के सम्बन्ध में प्रश्नों के जवाब देने चाहिए। सन 2001 में, फ्रांस के एक जज ने पेरिस की जिस होटल में किसिंजर रुके हुए थे, वहां उन्हें पुलिस के हाथों एक औपचारिक नोटिस भेज कर कहा था कि अदालत चिली के विद्रोह, जिसमें कई फ़्रांसिसी नागरिक गायब हो गए थे, के बारे में उनसे कुछ जानना चाहती है।
बहरहाल, यह काबिले तारीफ है कि 50 साल पहले रिटायर हो चुके किसिंजर अब भी राजनैतिक दृष्टि से प्रासंगिक बने हुए हैं। सन 2010 में क्रिस्टोफर हिचेन्स कैंसर से ग्रस्त हो मृत्युशैया पर थे। तब उन्होंने कहा था कि उनकी इच्छा थी कि वे हेनरी किसिंजर की ओबीचुअरी (मृत्यु लेख) लिखने का मौका आने तक जिंदा रहें। उन्होंने एनपीआर से कहा था, “यह सोच कर मेरा मन फट जाता है कि किसिंजर जैसे लोग मुझसे ज्यादा जीएंगे”।किसिंजर कई बार गिर चुके हैं और अपनी हड्डियाँ तुड़वा चुके हैं। पर वे जिंदा हैं। वे कई युद्ध क्षेत्रों में जा चुके हैं, परन्तु उन्हें कुछ नहीं हुआ। यहाँ तक कि हालिया महामारी भी उनका बाल बांका नहीं कर सकी। वे एआई के ज़माने में भी इस धरती पर हैं, एक ऐसे काल में जब दुनिया में उथलपुथल मची हुई है। वे अब भी अपने करियर के अहम लम्हों के बारे में अंतिम सत्य बता सकते हैं। नहीं, दूसरा किसिंजर नहीं होगा, कभी नहीं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)।