nayaindia freebies Modi government बुद्धीनाशी राजनीति से रैवडियों का जंजाल!

बुद्धीनाशी राजनीति से रैवडियों का जंजाल!

मैं सर्वशिक्षा अभियान, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा गारंटी, फ्री बिजली जैसी योजनाओं का विरोधी रहा हूं। इसलिए क्योंकि मेरा शुरू से मानना रहा है कि भारत की सत्ता का चरित्र भ्रष्ट था, है और रहेगा। नेहरू हो या इंदिरा गांधी या राजीव गांधी सभी की नियत जनहितैषी थी। लेकिन सैकड़ों सालों से जब भारत के सत्ता चरित्र में लूट, भूख और भ्रष्टाचार के डीएनए है तो संभव नहीं जो मुफ्तखोरी में जनता कम खाए और अफसर मलाई चाटे। जनता ठगी नहीं जाए। तभी पंडित नेहरू भी समाजवाद के झुनझुनों से जनता को राशन बांटते हुए थे तो नरेंद्र मोदी भी बांटते हुए है। अगसे सप्ताह कर्नाटक में राहुल गांधी के सिद्धारमैया भी ‘अन्न भाग्य’ के जुमले में दस किलों चावल बाटना शुरू करेंगे।

हां, भारत की हर सरकार ने अनाज बांटा है। मुफ्त शिक्षा दी है और बेगारी कराते हुए मजदूरी दी है। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पांत वाला। उलटे 1947 में30 करोड लोग भूखे थे अब 140  करोड लोगों में 120 करोड लोग वैसे ही सरकार की ओर, नेताओं व अफसरों की और टुकर-टुकर ताकते हुए है जैसे नेहरू के वक्त उम्मीद करते हुए ताकते थे!

आजाद भारत में अफसरशाही ने सभी तरह के नेताओं व पार्टियों को भटकाया है। राजनीति की बुद्धी भ्रष्ट और नष्ट की है। अपवाद वाला प्रधानमंत्री केवल एक हुआ और उसका नाम है पीवी नरसिंहराव। नरसिंहराव अकेले ने अपने विजन में वित्, उद्योग, वाणिज्य, गृहविभाग सबके अफसरों को हाशिए में डाल अपनी कठोरता से वे फैसले किए जिससे लोगों के लिए काम करने के अवसर बने। पैसे कमाने, कुछ करने का हौसला बना। उन्होने अफसरशाही के कोटा-लाईसेंस, टैक्स टेरर को खत्म किया। मुझे याद नहीं आ रहा है कि नरसिंहराव ने कोई रेवड़ी योजना बनाई। जो बांटा जा रहा था जो झांसेबाजी थी उसे उन्होने खत्म ही किया। वह डा मनमोहनसिंह के बूते की बात नहीं थी। इसलिए क्योंकि मनमोहनसिंह ने खुद अपने दूसरे कार्यकाल में जिस तरह की रेवडियां बनाई, उससे साफ जाहिर होता है कि बतौर प्रधानमंत्री यदि पीवी नरसिंहराव ने दृढता दिखाई तभी सुधार के एक के बाद एक फैसले हुए।

जो हो, आज सत्य यह है कि राजनीति में क्योंकि विचार, बुद्धी, प्रतिबद्धता सब खत्म है और सत्ता हावी है तो राशन-पैसा दो और बदले में वोट पाओं का फार्मूला लोकप्रिय है। समझ न आने वाली बात है कि जब धर्म की राजनीति या जात की राजनीति का फार्मूला हिट है तो मुफ्त की रेवडियों भला क्या जरूरत?  मतलब यह कि जब बिहार में मोदी-शाह यदि बाबा बागेश्वर धाम से 2024 में चुनाव जीतने का जादू चलता मानते है तो मुफ्त में बांटने के घोषणओँ की उनको और क्यों जरूरत? ऐसे ही उधर नीतिश कुमार यदि जातीय जनगणना और आरक्षण पर चुनाव जीतने का विश्वास लिए हुए है तो उन्हे या कांग्रेस को चुनाव से पहले मुफ्त बांटने की गारंटियों का हल्ला करने की क्या जरूरत?

मगर राजनीति जब अस्तित्व के संकट की लड़ाई में तब्दील है तो लड़ाई बुद्धी और भविष्य की चिंता में नहीं बल्कि सबकुछ झोक देते हुए लडी जाती है। तभी बिहार में एक नौजवान बाबा के आगे कातर भाव खड़े भाजपा के पुराने नेता है तो दूसरी और नीतिश कुमार जातीय वोटों के लिए सुप्रीम कोर्ट तक में ल़डते हुए है। उधर कांग्रेस अगले सप्ताह कर्नाटक में दो सौ यूनिट मुफ्त बिजली, महिला मुखिया को दो हजार रू महिने, दस किलो मुफ्त चावल, बेरोजगार नौजवान को डेढ से तीन हजार रू महिने का भत्ता तथा महिलाओं की रोडवेज बसों में मुफ्त यात्रा के मेगा वायदों पर अमल करवाएगी।

ऐसे ही नौ वर्षों से मोदी सरकार ने मुफ्त राशन बांटने और पांच-सात सौ, हजार, दो हजार रू का धर्मादा बैंक खातों में जमा करवाने के काम किए हुए है। केंद्र सरकार की गंगौत्री की देखादेखी हर प्रदेश सरकार अपनी-अपनी रैवडियां बना रही है।न अरविंद केजरीवाल की सरकार का कोई जवाब है और न ममता से ले कर स्टालिन की योजनाओं में कोई कमी है।

कहने वाले कह सकते है कि इस सबसे जनता का भला हो रहा है। तात्कालिक राहत है। पर यदि पचहतर वर्षों से लगातार यह होता हुआ है और पूरा सफर नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाला है तो क्या यह जनता से छलावा नहीं है?  इसकी सच्चाई क्या है?

मेरा मानना है यदि मनमोहनसिंह के दूसरे कार्यकाल से लेकर अब तकके चौदह वर्षों में किसी नेता ने यदि झुनझुनों, रेविडियों की बजाय आधार कार्ड के नंबर को सामाजिक सुरक्षा कार्ड के नंबर में कनवर्ट करके आमदनी की कसौटी पर प्रति परिवार दस हजार रू महिने देने और चिकित्सा बीमा की पक्की गारंटी बना दी होती तब भी कुछ स्थाई तौर पर पक्का सामाजिक सुरक्षा बंदोबस्त बनता। केंद्र और राज्यों की तमाम सबसिडियों और मुफ्त-राशन व पैसा बांटने की पूरी लागत के मुकाबले यह एक अकेला काम न केवल किफायती होता बल्कि व्यवस्था को सामाजिक सुरक्षा में बांध देने वाला हो जाता। दिक्कत यह है कि नरेंद्र मोदी, केजरीवाल, ममता, राहुल, नीतिश, स्टालिन आदि सभी नेताओं के दिल-दिमाग में यह बंधा हुआ है कि छोटे-छोटे झुनझुनों और रेवडियौं के जुमलों सेयह माहौल बनवाना ज्यादा आसान है कि कौन जनता की अधिक चिंता करता है।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें