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हिंदू विकास दर पर बिलबिलाना!

सोचें अमृत काल बनाम हिंदू विकास दर पर! हिंदू विकास दर मतलब हिंदुओं के आगे बढ़ने की कछुआ रफ्तार। एक पॉजिटिव मगर हल्का जुमला। विकास शब्द से कमाई, रोजगार, जेब में पैसे और झुग्गी-झोपड़ में भी बिजली-टीवी जैसी चीजें मिलने की उन्नति की फीलिंग बनती है। वही अमृत काल देवलोक की अनुभूति कराता हुआ। पर मूल रूप में समय की यह धारणा सत्ता शिखर पर बैठे सत्तावानों के आनंद, उसके गौरव का अहंकार है। उस नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ परिवार ने यदि अपने सत्ता भोग को अमृत काल करार दिया है तो गलत नहीं है। याद करें वह संघ परिवार, वे हिंदूजन जो नब्बे साल से हवा में लाठी घूमा रहे थे। देश दुनिया में अछूत थे। जेल गए, गालियां खाईं। उनको जनता ने पसंद करके जब सन् 2014 में भारत की सत्ता के शिखर पर बैठाया तो परिवार क्यों न अपने इस समय को अमृत काल घोषित करे?

अब इस अमृत काल को स्थायी बनाना है। वह तब संभव है जब 140 करोड़ लोग अमृत काल के सपने में खोए रहे। उन्हें रोजी-रोटी, रोजगार, मंहगाई, झुग्गी-झोपड़ी के हालातों मतलब जीवन की जरूरतों का होश नहीं हो। वे यह हल्ला नहीं सुनें कि लोकतंत्र खत्म हो रहा है या हिंदुओं की विकास दर कछुआ गति होती हुई है। जाहिर है सच्चाई न देखें, न सुनें और न समझें। तभी पिछले सप्ताह जब अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने हिंदू विकास दर की बात कही तो अमृत भोगी सत्तावानों ने रघुराम राजन को न केवल झूठा अर्थशास्त्री करार दिया, बल्कि सोशल मीडिया में लाठी लेकर उन्हें वामपंथी, नेहरू की औलाद और देशद्रोही करार दे रहे हैं!

सोचें, आजाद भारत के कथित अमृत काल की सत्ता का इतनी छोटी-छोटी बातों पर इतना बिलबिलाना! भला क्यों? इसलिए कि यही मानसिकता भारत के कलियुग का मूल रसायन है। झूठ, पाखंड में जीना और सच्चाई से मुंह चुराए रहना भारतीयों का स्थायी मिजाज है। तभी सदियों गुलाम रहे और इक्कीसवीं सदी में भी फिर से गुलाम होते हुए हैं। भले वह सत्ता की गुलामी हो या चीन की गुलामी। 140 करोड़ लोगों के देश की दिशा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमृत काल में ऐसा अंधा बनाया है कि घर-घर लोग ‘कलिः शयानो भवति’ की नियति से सपनों में सोते हुए हैं। लोगों को इतना भी याद नहीं है कि ‘अच्छे दिन’ फील होते हुए नहीं हैं और अमृत काल का चश्मा लगा बैठे हैं।

सवाल है जब नरेंद्र मोदी का अमृत काल और उनका अमरत्व अजर-अमर है तो छोटी-छोटी बातों पर घबराना क्यों? वे हार नहीं सकते और भाजपा-संघ परिवार जब हमेशा के लिए हिंदुओं के अधिपति हो गए हैं तो आईना दिखाने वाले या अपनी समझ की सच्चाई बोलने वालों से इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? जब नरेंद्र मोदी से दुनिया ज्ञान लेती हुई है तो राहुल गांधी, राजन जैसे बेरोजगार लोगों के भाषणों पर बिलबिलाने की क्या जरूरत है? हिंदूशाही को सत्ता का मजा लेते रहना चाहिए या दिन-रात इस जासूसी में गुजारना चाहिए कि किसी ने कहीं कुछ बोला तो नहीं?

By हरिशंकर व्यास

भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक।  ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।

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