संभवतः किसी ने सोचा नहीं होगा कि 21वीं सदी में दो देशों के बीच इतना लंबा पारंपरिक युद्ध चल सकता है। यूक्रेन पर रूसी हमले का एक साल हो गया है और दोनों के बीच युद्ध समाप्त होने की कोई वास्तविक संभावना नहीं दिख रही है। उलटे ऐसा लग रहा है कि युद्ध और लंबा चल सकता है। साथ ही इसकी तीव्रता पहले से ज्यादा हो सकती है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की सोमवार यानी 20 फरवरी की यूक्रेन की यात्रा का जो मैसेज है या रूस और चीन ने जिस तरीके से इसके मैसज को लिया है वह गंभीर खतरे का संकेत है। बाइडेन की यात्रा के बाद पहली प्रतिक्रिया में चीन ने कहा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा ने आग में घी डालने का काम किया है। दूसरी ओर रूस ने इसकी प्रतिक्रिया में अमेरिका के साथ बची हुई इकलौती परमाणु संधि को निलंबित करने का ऐलान कर दिया।
सो, कहां तो युद्ध के एक साल पूरे होने पर युद्ध समाप्त होने और शांति बहाली की उम्मीद थी और कहां चिंगारी और भड़क गई। यूक्रेन की राजधानी कीव में राष्ट्रपति वोल्दिमीर जेलेंस्की को गले लगाते हुए बाइडेन ने हर हाल में उनको समर्थन देने का ऐलान किया तो जेलेंस्की ने कहा कि यह जीत का साल होगा। इसका जवाब देते हुए रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा कि रूस को इस जंग में हराना नामुमकिन है। इस तरह से दोनों देशों या दोनों पक्षों के बीच नए सिरे से जंग की रेखा खींची दिख रही है और शांति के आसार नहीं दिख रहे हैं। ऐसा क्यों है और यह युद्ध यहां से आगे किस दिशा में जाएगा, उस पर विचार करने से पहले से एक साल में युद्ध से हुए नुकसान का आंकड़ा देख लें। रूस ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर हमला किया था। उसके बाद 20 फरवरी 2023 तक के आंकड़ों के मुताबिक 42 हजार के करीब लोगों की मौत हुई है, जिसमें यूक्रेन के आम नागरिक और दोनों देशों के सैनिक शामिल हैं। एक करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं और करीब डेढ़ लाख इमारतें नष्ट हुई हैं। एक अनुमान के मुताबिक इस युद्ध में 35 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है।
अब सवाल है कि युद्ध समाप्त क्यों नहीं हो रहा है? इसे बहुत सरल तरीके से देखें तो कहा जा सकता है कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की विस्तारवादी खूनी महत्वाकांक्षा की वजह से युद्ध समाप्त नहीं हो रहा है। वे इस पारंपरिक विचारधारा को मानते हैं कि यूक्रेन के बगैर रूस एक देश है, लेकिन अगर यूक्रेन को जीत कर रूस में शामिल कर लेते हैं तो रूस एक साम्राज्य बन जाएगा। अपने देश को साम्राज्य बनाने की चाह में पुतिन ने यूक्रेन को और उसके बहाने दुनिया के एक बड़े हिस्से को युद्ध में झोंका है। ऐसा नहीं लग रहा है कि उनकी मंशा यूक्रेन के सिर्फ रूसी भाषी लोगों की बहुलता वाले पूर्वी क्षेत्र को हासिल करने की है। उनकी नजर समूचे यूक्रेन पर है। इस बहाने वे यूरोप और अमेरिका को भी सबक सिखाने की ठाने हुए हैं और इस काम में रूस के कंधे पर रख कर चीन बंदूक चला रहा है। यह इस पूरे घटनाक्रम को देखने का एक नजरिया है।
लेकिन तस्वीर इतने भर नहीं है। यह युद्ध कभी भी सिर्फ रूस और यूक्रेन का नहीं था। शुरू होने के साथ ही यह रूस बनाम यूरोप और अमेरिका बन चुका था और चीन इसमें परोक्ष खिलाड़ी था। अब न यूरोप और अमेरिका की भूमिका छिपी है और न चीन की। अब तक चीन ढके छिपे तरीके से रूस की मदद कर रहा था या कह सकते हैं कि सिर्फ नैतिक समर्थन दे रहा था। लेकिन अब वह हथियारों से भी रूस की मदद कर रहा है। पिछले दिनों म्यूनिख सिक्योरिटी कांफ्रेंस में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने दुनिया के सामने कहा कि चीन शांति का प्रयास करने की बजाय रूस को हथियार बेच रहा है। असल में चीन की इस भूमिका को लेकर अमेरिका पहले से आशंकित था। अमेरिका ने चीन के ऊपर दबाव बनाया था कि वह रूस को युद्ध समाप्त करने के लिए कहे लेकिन उसको चीन के पावर गेम का अंदाजा था। इसलिए उसने यूक्रेन को कमजोर नहीं होने दिया। अमेरिका और यूरोप के देश हर तरह से यूक्रेन की मदद करते रहे। अगर यूक्रेन कमजोर पड़ जाता तो युद्ध समाप्त हो गया होता, जैसा संक्षिप्त युद्ध 2014 में क्रीमिया को लेकर हुआ था। तब रूस ने यूक्रेन से क्रीमिया छीन लिया था और युद्ध समाप्त हो गया था। इस बार यूरोप और अमेरिका ने ऐसा नहीं होने दिया क्योंकि उनको पता है कि यूक्रेन का हारना पूरे यूरोप के लिए खतरा है। यह बात जेलेंस्की ने पिछले दिनों अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए कही थी।
यह युद्ध अभी तक समाप्त नहीं हुआ या आगे और लंबा चल सकता है, इसका पहला कारण तो यही है कि यह सिर्फ रूस और यूक्रेन का युद्ध नहीं रह गया है या सिर्फ भौगोलिक सीमा की लड़ाई नहीं रह गई है। यह नई बनती विश्व व्यवस्था में देशों की जगह तय करने वाला युद्ध हो गया है। नई विश्व व्यवस्था वैसी ही रहेगी, जैसी है और जिसके केंद्र में अमेरिका है या आने वाले समय में वह व्यवस्था बदल जाएगी, यह इस युद्ध से तय होना है। दूसरे, युद्ध की समाप्ति या इसका जारी रहना अब सिर्फ जेलेंस्की या पुतिन पर निर्भर नहीं रह गया है। ध्यान रहे यूक्रेन में 2024 में चुनाव होने वाले हैं। सो, जेलेंस्की के सामने घरेलू राजनीतिक मजबूरियां हैं। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनका समर्थन करने वाली ताकतों का दबाव अलग है। इसी तरह रूस में भी पुतिन के ऊपर घरेलू दबाव हैं तो साथ ही चीन का दबाव भी है। इस तरह महाशक्तियों की संलिप्तता ने इस युद्ध को उलझा दिया है। डोनबास और लुहांस्क का रूसी भाषी बोलने वालों का इलाका रूस में शामिल हो या नहीं हो या यूक्रेन नाटो का सदस्य बने या नहीं, यह दूसरी प्राथमिकता का मामला है। पहली प्राथमिकता नई विश्व व्यवस्था की है और यहीं कारण है पूरे साल युद्ध समाप्त करने का कोई भी गंभीर प्रयास नहीं हुआ।
पता नहीं यह बात कितनी सही है लेकिन बताया जाता है कि ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन जब कीव के दौरे पर गए थे तब उन्होंने जेलेंस्की से कहा था कि वे शांति वार्ता बंद करें। इससे पहले ‘फॉरेन अफेयर्स’ पत्रिका ने बताया था कि रूस और यूक्रेन के बीच शांति वार्ता करने वाले समझौते के बिंदु पर पहुंच गए हैं। इस पत्रिका के मुताबिक दोनों के बीच तय हुआ है कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बनेगा और रूस युद्ध खत्म करके 23 फरवरी 2022 से पहले ही स्थिति बहाल करेगा। लेकिन इसके बाद पता नहीं क्या हुआ कि शांति के प्रयास बंद हो गए और अब खुल कर कहा जाने लगा है कि युद्ध सिर्फ यूक्रेन के हमले तक सीमित नहीं है, बल्कि और कई बरसों तक चल सकता है। पिछले ही हफ्ते नाटो के प्रमुख जेंस स्टोल्टेनबर्ग ने कहा कि नाटो को इस बात के लिए तैयार हो जाना चाहिए कि यह युद्ध कई साल चलेगा क्योंकि यह सिर्फ यूक्रेन पर हमले तक सीमित नहीं है। उनके कहने का मतलब यह है कि युद्ध का दायरा बहुत बड़ा है, जो दिखाई नहीं दे रहा है। सो, अदृश्य लड़ाई कहीं और चल रही है, जिसके युद्ध का मैदान यूक्रेन बना है। एक तरफ अमेरिका और यूरोप सोच रहे हैं कि युद्ध में एक समय ऐसा आएगा, जब युद्ध और पाबंदियों की वजह से रूस की आर्थिकी दम तोड़ देगी और फिर मौजूदा विश्व व्यवस्था ज्यादा मजबूती से कायम रहेगी। तो दूसरी ओर चीन उम्मीद कर रहा है कि जैसे अमेरिका वियतनाम में हारा या अफगानिस्तान छोड़ कर गया है उसी तरह यूक्रेन भी छोड़ेगा और तब नई विश्व व्यवस्था बनेगी, जिसकी धुरी चीन हो सकता है। जहां तक भारत का सवाल है तो विश्व व्यवस्था बदलने वाले इस घटनाक्रम में भारत मूकदर्शक है। ज्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि भारत की कंपनियां सस्ता तेल खरीद कर कुछ मुनाफा कमा रही हैं, जबकि सारी दुनिया महंगाई, खाद्यान, ईंधन व सुरक्षा के संकट से गुजर रही है।