तमाम पार्टियों के लिए विपक्षी एकता की बात महज एक सियासी दांव है, जिसके जरिए वे भाजपा की सत्ता जारी रहने का दोष अपने माथे से टालना चाहती हैं। इसके आगे वे सिर्फ दूसरे से त्याग की उम्मीद रखती हैं।
देश में बुद्धिजीवियों के एक हिस्से में मौजूदा भारतीय जनता पार्टी के राज से मुक्त होने एक बेसब्री है। इसके बीच वे चाहते हैं कि भाजपा विरोधी दल किसी तरह एकजुट हो जाएं, जिससे 2024 के आम चुनाव में वे अगर सीधे तौर पर भाजपा को हरा नहीं पाएं, तो भी वे कुछ ऐसा कर दें, जिससे उसकी सीटों में ठोस गिरावट आ जाए। लेकिन अगर विपक्षी दलों के रुख पर गौर करें, तो यह साफ होगा कि ऐसी कोई बेसब्री या जल्दबाजी उनके मन में नहीं है। ये दल अपने सामान्य समीकरण और गणनाओं के मुताबिक आगे बढ़ रहे हैं। उन सबकी पहली चिंता यह है कि जितना भी उनका प्रभाव क्षेत्र है, वह बचा रहे। अगर इसमें कुछ बढ़ोतरी हो जाए, तो फिर यह सोने पर सुहागा। इसीलिए जब पिछले साल जुलाई में 17 दलों ने केंद्रीय जांच एजेंसियों के कथित पक्षपातपूर्ण कार्रवाई के खिलाफ शिकायत पत्र लिखा, तो आम आदमी पार्टी ने उस पर दस्तखत नहीं किया। अब मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी के बाद नौ दलों ने लगभग वैसा ही पत्र प्रधानमंत्री को लिखा है, तो उस पर कांग्रेस, डीएमके और लेफ्ट पार्टियों के दस्तखत नहीं हैँ।
इनमें राष्ट्रीय जनता दल, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी और शिवसेना को छोड़ दें, तो बाकी दलों में कम से कम चार ऐसे हैं, जो कांग्रेस से उतनी ही दूरी रखना चाहते हैं, जितना भाजपा से। नीतीश कुमार और फारूक अब्दुल्ला भी कब कहां चले जाएं, इसका पूर्वानुमान लगाना किसी के लिए मुश्किल बना रहता है। उधर कांग्रेस विपक्षी एकता में अपनी अपरिहार्यता का एलान करने का कोई मौका नहीं चूकती। इस मामले में डीएमके का साथ उसे मिला है। उधर लेफ्ट पार्टियों की क्या भूमिका होगी, इस बारे में भी कोई स्पष्ट अनुमान नहीं लगाया जा सकता। तो इन स्थितियों के बीच जो सूरत सामने आती है, वो यही है कि तमाम पार्टियों के लिए विपक्षी एकता की बात महज एक सियासी दांव है, जिसके जरिए वे भाजपा की सत्ता जारी रहने का दोष अपने माथे से टालना चाहती हैं। इसके आगे वे सिर्फ दूसरे से त्याग की उम्मीद रखती हैं। इसीलिए विपक्षी एकता असल में एक मरीचिका बनी हुई है।