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वाह! यूक्रेन का मानव जज्बा, सलाम

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एक साल हो गया लेकिन यूक्रेन जिंदा है। उसकी आजादी का दीया बुझा नहीं। मेरा मानना है यूक्रेन के दीये और उसकी जलती बाती न केवल यूक्रेनी नागरिकों के जज्बे की पहचान है, बल्कि पृथ्वी के उन इंसानों की भी मशाल है, जिनसे मनुष्य को मानव गरिमा, मानवाधिकारों व आजादी का उजियारा मिला है। जिसकेकारण इतिहास के रावणों के अहंकारी तूफान कई बारखाक हुए। सोचें, वर्ष पहले 24 फरवरी 2022 को जब पुतिन यूक्रेन का शिकार करने निकले थे और उन्हें रास्ता दिखलाते हुए दुनिया के तानाशाह शिकारी कुत्ते मसलन चीन के शी जिनफिंग का जो मिशन शुरू हुआ था तो मंतव्य क्या था? मकसद सिर्फ यूक्रेन का शिकार नहीं था, बल्कि पृथ्वी पर इस व्यवस्था की चाहना थी कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। हां, पुतिन-शी जिनफिंग के लिए इंसान पशु है, भैंस हैं! इनका तर्क है कि भैसों के साझा भविष्य की बेहतरी के लिए दुनिया इकट्ठी हो और विश्व की व्यवस्था महाबली गड़ेरियों के बाड़ों के सुरक्षा हितों के बंदोबस्त बनवाने वाली हो। ये नहीं चाहते कि दुनिया में सार्वभौमिक, सार्वदेशिक मानव मूल्यों (universal human values) की चिंता करने वाली व्यवस्था कायम रहे और उससे मानव समाज इंसानी अधिकारों तथा कायदो में जीये।

मतलब यह कि रूस की सीमा से सटा यूक्रेन यदि पुतिन को अपने बाड़े की सुरक्षा के लिए खतरा समझ आए और वहां के लोग यदि रूसी भाषा बोलते हुए उस जैसे स्लाविक हैं तो रूस को नेचुरल हक है जो वह यूक्रेन का शिकार करे। चीन को अपने से सटे भारत के अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, लद्दाख के लोग अपने जैसे मंगोलॉयड नस्ल के लगते हैं तो राष्ट्रपति शी जिनफिंग को इन इलाकों के शिकार का अधिकार है। ऐसे ही शी जिनफिंग का ताइवान को निगलने का हक है क्योंकि वह कभी चीन का हिस्सा था। फिर भले ताइवान आज चीन से अधिक विकसित है और वहां के नागरिक भले आजादी और लोकतंत्र को पसंद करते हों। मगर चीन क्योंकि महाबली दादा है तो उसे अपनी सुरक्षा, अपनी सोच में ताइवान का शिकार करने का हक है। ऐसे ही अमेरिका यदि क्यूबा को अपने लिए खतरा माने तथा भारत यदि नेपाल से खतरा समझे तो इन्हें इन छोटे देशों का शिकार करने का हक!

सचमुच चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग और चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी थीसिस बनाए हुए हैं कि विश्व को प्राथमिक तौर पर गरीबी उन्मूलन तथा आर्थिक विकास पर फोकस बनाना चाहिए न कि सार्वभौमिक, सार्वदेशिक मानव मूल्यों पर। पृथ्वी की भैसों याकि मनुष्य जात को पहले मोटा-खाता-पीता, अधिक दूध देने वाला बनाना चाहिए। उसके बाद फिर मानव मूल्य, मानवाधिकारों, मनुष्य आजादी की चिंता होनी चाहिए। लेकिन ठिक विपरित ताइवान पर उसकी क्या लाईन है? कोई उससे पूछे किताइवान तो चीन से अधिक विकसित व महासंपन्न है तो फिर भला चीन किस औचित्य में उसके शिकार की जिद्द लिए हुए है? क्या ताइवान से उसकी सुरक्षा को खतरा है या रूस की सुरक्षा क्या यूक्रेन से खतरे में थी? यूक्रेन व ताइवान के लोग न खतरा है न बदतर जिंदगी जीते हुए है तब फिर रूस व चीन को किसलिए इन पर कब्जा चाहिए? क्या इसलिए नहीं कि जिसकी लाठी उसकी भैंस!

जाहिर है शिकारी की प्रवृत्ति में लॉजिक नहीं होता। राष्ट्रपति पुतिन ने इक्कीसवीं सदी के सन् 2022 में यूक्रेन का जैसे शिकार करना चाहा वैसे ही कोई नब्बे साल पहले हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया का इस तर्क से शिकार किया था कि वहां बहुत जर्मनभाषी हैं! इसलिए उसकी आजादी फालतू और उसे कब्जाने का जर्मनी को हक। और मानव इतिहास का दुर्भाग्य जो ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चैंबरलिन ने हिटलर के इस तर्क को माना। यह सोचते हुए उनसे समझौता किया कि इससे हिटलर संतुष्ट होगा। महायुद्ध की नौबत नहीं आएगी। लेकिन हुआ क्या? हिटलर ने चेकोस्लोवाकिया को निगल कर जर्मनी में राष्ट्रवाद की तूताड़ी बनवाई। हिटलर और जर्मनी फिर विश्व विजेता बनने के शिकार पर निकल पड़े।

तभी हिटलर, पुतिन, शी जिनफिंग कुल मिलाकर आदि मानव इतिहास, होमो सेपियन के प्रारंभिक जंगल काल के वे वनमानुष हैं, जिनकी खोपड़ी में आदिम शिकारी के डीएनए हैं। शिकारी के हाथ में एटम बम हो, ताकत हो तो वह न केवल अहंकारी बनेगा, बल्कि देश विशेष, वैश्विक व्यवस्था में यदि चेक-बैलेंस की व्यवस्था नहीं हुई तो ये वनमानुषविकसित मानवों, जातियों, सभ्यताओं तथा देशों का अनिवार्यतः शिकार करेंगे। तभी मानव इतिहास सभ्य बनाम बर्बर लोगों की लड़ाइयों से भरा पड़ा है।

24 फरवरी का दिन मानव इतिहास का अब अविस्मरणीय दिन है। हिसाब से 24 फरवरी का दिन पुतिन (रूस) का विजय दिवस होना था। लेकिन उलटा हुआ। 24 फरवरी अब रूस के लिए शर्मनाक दिन तो यूक्रेनी लोगों का हेरोइक दिन! सोचें दीये के आगे तूफान का फुस्स होना! पुतिन ने जब हमला बोला तो उसे उन्होंने युद्ध नहीं कहा, बल्कि यूक्रेन के सिरदर्द को मिटाने का सामान्य सैनिक अभियान करार दिया। इसलिए दुनिया में हल्ला हुआ कि पुतिन ने जैसे क्रीमिया व डोनबास को निगला वैसे ही वे यूक्रेन का चुटकियों में शिकार करेंगे। 24 फरवरी 2022 को रूसी टैंक जब यूक्रेन में घुसे, उसके शहर मिसाइल हमलों से दहले तो भारत सहित कई देशों में सोचा गया कि रूसी टैंकों का फलां रफ्तार से इतने घंटों में कीव पर कब्जा हो जाएगा।

इसलिए मैंने हमले के बाद और बीच में यूक्रेन पर लिखते हुए उसके नागरिकों के जज्बे को सलाम किया था। आज 24 फरवरी 2023 का दिन भी यूक्रेन के जज्बे को सलामी का दिन है। सोचें, कोई चार करोड़ दस लाख लोगों की आबादी वाले यूक्रेन के पिछले 365 दिनों पर। कैसे गुजरे होंगे? भयावह रूसी गोलाबारी से देश तबाह है। कोई अस्सी लाख लोग (और इसमें अधिकांश महिलाएं-बच्चे) यूरोपीय देशों में शरणार्थी हैं। रूस ने देश के ट्रांसपोर्ट, बिजली सप्लाई, स्कूलों, इंफ्रास्ट्रक्चर सब पर हमले किए। कड़ाके की सर्दी के बर्फीले महीनों में रूस ने बिजली सप्लाई के केंद्रों पर मिसाइलें दाग कर लोगों को ठंड से जाम किया। यूक्रेनी सैनिकों का मनोबल तोड़ने की हरसंभव कोशिश की। बावजूद इसके यूक्रेन में जिंदगी ठहरी नहीं। उलटे रूसी सेना को पीछे हटना पड़ा। रूसी सैनिकों के मरने का रिकार्ड बना। यूक्रेन में रूसी टैंकों के कब्रिस्तान बने। सचमुच पुतिन के समर्थक देश भी हैरान हैं कि रूस की महाबली ताकत का ऐसा कचूमर कैसे निकला!

वजह यूक्रेनी सैनिकों और नागरिकों का जज्बा। रूस को नहीं जीतने देने का संकल्प तथा हौसला। फालतू बात है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ ने यूक्रेन को हथियार दिए, पैसे दिए, हौसला दिया। यदि राष्ट्रपति जेलेंस्की, उनकी सरकार और नागरिकों में जिजीविषा, निडरता, निर्भयता और जज्बा नहीं होता तो क्या दीया तूफान के आगे जलता रहता? दीये को तेल की आपूर्ति कितनी ही रहे असल बात तो यूक्रेनी दीये और उसमें लोगों के जज्बे की बाती की लौ का डगमगाना नहीं है! उनके दिल-दिमाग मेंइसनेगेटिविटी का नहीं बनना है कि कब तक तूफान के थपेड़े सहने हैं? कब तक ऐसा चलेगा?

हाल में म्यूनिख सुरक्षा बैठक में यूक्रेन की एक महिला सांसद ने अमेरिका और जर्मनी के विदेश मंत्री से कहा कि लोग मुझसे पूछते है कि लड़ाई कब तक चलेगी? मैं अपने लोगों को क्या जवाब दूं?

सोचें, यूक्रेन में हर दिन, हर पल जिंदगी अपलक बारूदी धमाकों में वक्त काटते हुए! तभी सवाल तो बनेगा कि आखिर कब तक? यह सवाल यूरोपीय देशों में शरणार्थी जीवन जी रहे लोग भी चौबीसों घंटे सोचते हुए होंगे तो रूसी सेना को रोके बैठे यूक्रेनी सैनिक और देश में जिंदगी चलाए रखने वाले बहादुर लोग भी पाले हुए होंगे। दिमाग अपने आप ही स्थायी सवाल बनाए हुए होगा कि कब तक ऐसे जीना?

जवाब शरणार्थियों के बीच हुए एक सर्वे से मिला है। सर्वे के अनुसार कुछ पता नहीं और सब कुछ अनिश्चित, थकावट की लिंबो अवस्था के बावजूद यूक्रेनी शरणार्थी कहते हैं कि ‘हमें तो अपने देश जाना है’। जर्मनी में रह रही एक महिला का वाक्य था कि वे अपना भविष्य यहां नहीं मानतीं। जब यूक्रेन लड़ाई जीतेगा तो वे अपने देश लौटेगी। कल्पना करें ऐसे लोगों पर जिनके लिए यूरोपीय संघ ने नौकरी, व्यवस्था के तमाम फैसले किए हैं। पोलैंड, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, इस्तेनोवाकिया आदि बहुत संपन्न देश हैं। दुनिया के लोगों के लिए खुशहाल जीवन जीने के आकर्षक मुकाम है। बावजूद इसके यूक्रेन के शरणार्थी कह रहे हैं कि जब सब ठीक होगा तो हम यूक्रेन जाएंगें। शरणार्थी कैंपों से लोगों कीव या यूक्रेन के दूसरे शहरों की आवाजाही बन गई है। औरतों-बच्चों को छोड़ कर पुरूष आवाजाही से यूक्रेन में काम कर रहे हैं। बर्लिन में रह रही एक महिला का कहना था- मैं जब भी कीव जाती हूं तो वहां से आने का मन नहीं करता और यहां रहती हूं तो लगता है कितने तरह के अवसर खुले हुए हैं।

कुल मिलाकर यूक्रेन मानव जज्बे की नई मिसाल है तो यूरोपीय संघ और ब्रिटेन, अमेरिका की पश्चिमी सभ्यता के इरादों का खुलासा भी है। पश्चिमी सभ्यता ने अपने आपको जैसा दृढ-संकल्पी बनाया है और साल भर के भीतर ही रूस पर से एनर्जी निर्भरता जैसे खत्म की है वह असंभव का संभव होना है। तभी लड़ाई लंबी चलेगी। पुतिन हार नहीं मानेंगे तो पश्चिमी सभ्यता भी नहीं झुकेगी। पुतिन के लिए संभव नहीं जो वे अपनी सेना यूक्रेन से बाहर निकाल लड़ाई खत्म करें। या तो मॉस्को में उनका तख्तापलट हो या रूस इतना जर्जर हो जाए कि जैसे अफगानिस्तान से सोवियत संघ ने सेना हटाई थी वैसे ही यूक्रेन से सेना हटाए तो बात अलग है।

जो हो,24 फरवरी मानव आजादी के दीये की जिजीविषा की वर्षगांठ है तो उसकी परीक्षा के नए साल का आरंभ भी!

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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