बाजार में मुद्रा का प्रसार नियंत्रित किया जाए या डूबते बैंकों को बेलआउट देकर बचाया जाए, यह विकट समस्या सेंट्रल बैंकों के सामने खड़ी हो चुकी है। इसका समाधान वे ढूंढ नहीं पा रहे हैं।
फैलते जा रहे बैंकिंग संकट के बावजूद अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर बढ़ाने का फैसला किया। इसमें 0.25 प्रतिशत की और बढ़ोतरी कर दी गई है। रिजर्व बैंक के वर्तमान नेतृत्व ने शायद 1980-90 के दशकों के अनुभव को याद रखा, जब महंगाई पर काबू पाने के लिए ब्याज दर बढ़ाई गई थी, लेकिन जब मंदी दस्तक देने लगी तो उसमें अचानक कटौती कर दी गई- मगर उसका नतीजा फिर से महंगाई बढ़ने के रूप में सामने आया, तो फिर ब्याज दर बढ़ाई गई और इस चक्कर में अर्थव्यवस्था लगभग सात साल की मंदी का शिकार हो गई। इस बार सिलिकॉन वैली बैंक के डूबने के साथ शुरू हुए बैंकिंग संकट का दायरा फैलता जा रहा है, फिर भी फेडरल रिजर्व ने मुद्रास्फीति की बेकाबू दर की भी चिंता की है। मगर गौरतलब यह है कि बाजार में मुद्रा का प्रसार नियंत्रित किया जाए या डूबते बैंकों को बेलआउट देकर बचाया जाए, यह विकट समस्या सेंट्रल बैंकों के सामने खड़ी हो चुकी है। बेलआउट का मतलब बाजार में अधिक मुद्रा डालना है, जबकि ब्याज दर बढ़ाने की नीति मुद्रा प्रसार को नियंत्रित करने के लिए अपनाई गई है। इस तरह सेंट्रल बैंक परस्पर विरोधी मकसदों के लिए काम करते दिख रहे हैँ।
यह स्थिति एक दुश्चक्र का रूप लेती जा रही है। मुश्किल यह है कि बेलआउट की एक सीमा है। फेडरल रिजर्व ने 2008 की मंदी के समय डूबे बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बेलआउट देकर बचाया था। इसके लिए हर साल 600 बिलियन डॉलर की छपाई की गई। उस नीति के जरिए शेयर बाजारों में मुद्रास्फीति को बढ़ावा दिया गया। इससे पश्चिम उत्पादक क्षमता की कीमत पर वित्तीय क्षेत्र को ही असल अर्थव्यवस्था मान लेने का चलन स्थापित हो गया। इसी बीच अमेरिका ने चीन से व्यापार युद्ध शुरू कर दिया, जिससे चीन के सस्ते उत्पाद वहां के बाजार में महंगे हो गए। इसी बीच कोरोना महामारी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में सप्लाई चेन टूटे और फिर यूक्रेन युद्ध के कारण ऊर्जा संकट खड़ा हुआ। इससे महंगाई बेकाबू हुई, तो ब्याज दरों में तेजी से वृद्धि की गई। अब उसके परिणाम झेलने पड़ रहे हैँ।