इस पर गंभीरता से अध्ययन करने की जरुरत है कि जो सरकार में है उसके हारने का अनुपात क्यों कम होता जा रहा है? यह भी देखने की जरुरत है कि क्या एंटी इन्कम्बैंसी यानी सत्ता विरोध, जो भारतीय राजनीति में हमेशा निर्णायक फैक्टर होता था उसकी प्रासंगिकता खत्म हो गई है? ये दो सवाल इसलिए हैं क्योंकि अब सरकारें चुनाव नहीं हार रही हैं। जो सत्ता में है वह किसी न किसी तरह से ऐसे उपाय कर रहा है, उसकी पार्टी चुनाव जीत जा रही है। इसके अपवाद भी हैं लेकिन सरकारों की सत्ता में वापसी पहले से ज्यादा होने लगी है।
पहले पांच साल सरकार चलाने के बाद उस सरकार के खिलाफ इतनी एंटी इन्कम्बैंसी होती थी कि वह आमतौर पर हार जाती थी। आजादी के बाद के पहले चार दशक के बाद देश की राजनीति एंटी इन्कम्बैंसी फैक्टर से ही परिभाषित होती रही है। संचार के नए माध्यम और युवाओं की बढ़ती संख्या के बाद यह सिद्धांत आया कि आज का युवा इतना अधीर और आकांक्षी है कि वह पांच साल से ज्यादा किसी को बरदाश्त नहीं कर रहा है। कहा गया कि कोई भी सरकार पांच साल में अपने वादे पूरे नहीं कर पाती है इसलिए आकांक्षी वर्ग उसको बदल देता है। लेकिन अब यह स्थिति बदल गई है। अब सरकारें लगतार सत्ता में वापसी कर रही हैं।
केंद्र में लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जीती है। 1971 के चुनाव के बाद ऐसा पहली बार हुआ है। राज्यों में इससे भी ज्यादा चौंकाने वाले नतीजे आए। केरल में 1957 के बाद पहली बार 2021 में सत्तारुढ़ दल ने लगातार दूसरी जीत दर्ज की। उत्तराखंड के गठन के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि 2022 में सत्तारूढ़ दल ने फिर सत्ता में वापसी की। झारखंड में पहली बार ऐसा हुआ कि कोई पार्टी लगातार दूसरी बार चुनाव जीती और पहले से ज्यादा सीटें लेकर सरकार में वापसी की। पंजाब में पहली बार 2012 में ऐसा हुआ था। बिहार में पिछले 20 साल से एक व्यक्ति का शासन चल रहा है। ओडिशा में 24 साल तक एक पार्टी और एक व्यक्ति का राज रहा। पश्चिम बंगाल में पहले 35 साल लेफ्ट का राज रहा और अब 15 साल से तृणमूल कांग्रेस का राज है।
हरियाणा में लगातार तीसरी बार भाजपा ने सरकार बनाई है। महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारने के बाद भी भाजपा ने विधानसभा में लगातार तीसरी बार जीत दर्ज की। हालांकि दूसरी बार चुनाव जीतने के बाद गठबंधन बिखर गया था। कर्नाटक में कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार चुनाव के बाद सरकार बनाई। हालांकि दूसरी बार की सरकार गठबंधन की थी, जो बीच में गिर गई। गुजरात में भाजपा 30 साल से जीत रही है तो मध्य प्रदेश में पिछले 22 साल में सिर्फ सवा साल कांग्रेस सरकार में रही है। वह एक चुनाव जीती लेकिन उसमें भी अंतर बहुत मामूली था। कुछ राज्यों में जरूर पांच साल पर सत्ता बदली लेकिन ज्यादातर राज्यों में एक ट्रेंड दिख रहा है और वह सरकारों के रिपीट होने का है। विपक्षी पार्टियों के लिए चुनाव जीतना लगातार मुश्किल होता जा रहा है।
अस्मिता की राजनीति और सामाजिक समीकरण बैठाने के अलावा इसका एक स्पष्ट कारण तो यह है कि जो पार्टी सरकार में होती है वह चुनाव से पहले किसी न किसी योजना के तहत लोगों के खाते में नकद पैसे भेज देती है और लोग उसके असर में मतदान करते हैं। लाड़ली बहना योजना ने मध्य प्रदेश में तो माजी लड़की बहिन योजना ने महाराष्ट्र में और मइया सम्मान योजना ने झारखंड में सत्तारूढ़ दल की जीत सुनिश्चित की थी। दिल्ली में घोषणा करके अरविंद केजरीवाल महिलाओं के खाते में पैसे नहीं भेज पाए थे और वे चुनाव हार गए। बिहार में इस प्रयोग की परीक्षा है। अब तक मुफ्त की चीजें बांटने से बचते रहे नीतीश कुमार की सरकार ने इस बार चुनाव से पहले खजाना खोला है। राज्य के हर परिवार की एक महिला के खाते में 10 हजार रुपए डाले जा रहे हैं। सामाजिक सुरक्षा पेंशन बढ़ा दी गई है और सवा सौ यूनिट बिजली फ्री कर दी गई है। यह पहला मौका है, जब बिहार के लोगों को मुफ्त की चीजों का स्वाद मिला है। नीतीश कुमार 20 साल से सरकार चला रहे हैं। हालांकि उनके खिलाफ बहुत गुस्सा नहीं है फिर भी लोग बदलाव की बात कर रहे थे। अब अगर मुफ्त की चीजों के कारण उनके विचार बदलते हैं तो नीतीश की वापसी हो सकती है।
असल में देश की राजनीति अब सिर्फ सत्ता से परिभाषित हो रही है। पहले नेता विचारधारा के आधार पर राजनीति करते थे। हारने के बावजूद उसी विचारधारा को लेकर चलते रहते थे और अगर जीत गए तो सत्ता बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगाने का भाव नहीं रखते थे। अब स्थितियां बदल गई हैं। अब विचारधारा जैसी कोई चीज नहीं है। किसी तरह से सत्ता में रहने का भाव सबसे प्रबल है। और अगर एक बार सत्ता मिल गई तो उसे ऐन केन प्रकारेण बचाने का प्रयोजन सबसे प्रमुख है। सत्तारूढ़ दलों ने पार्टी और सरकार का भेद मिटा दिया है। अब पार्टी ही सरकार है और सरकार ही पार्टी है। पार्टियों के नेता सरकार के मंत्रियों की तरह हो गए हैं और मंत्री हमेशा पार्टी के नेता की तरह काम करते हैं।
सरकारों को चुनाव जीतने के लिए सारे संसाधनों का इस्तेमाल करने में रत्ती भर संकोच नहीं है। सत्ता का इस्तेमाल करके पार्टी के लिए हजारों, लाखों करोड़ रुपए इकट्ठा किए जा रहे हैं, जिनका इस्तेमाल चुनाव के लिए हो रहा है। पुलिस, प्रशासन और जांच एजेंसियों से लेकर संवैधानिक संस्थाओं तक में वैचारिक प्रतिबद्धता या जातीय समीकरण से लोगों की भर्ती की जा रही है और चुनाव जीतने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा रहा है। सत्ता की ताकत का इस्तेमाल करके विपक्षी पार्टियों को कमजोर किया जा रहा है। उनके लोगों को भय या लालच के सहारे तोड़ा जा रहा है। अस्मिता की राजनीति को एड्रेस करने के लिए भी सरकारों के पास सैकड़ों पद हैं, जो अलग अलग सामाजिक समूहों के लोगों को दिए जाते हैं।
इस तरह विपक्ष के लिए कहीं भी बराबरी का मैदान नहीं रह जाता है। अगर चुनाव को एक सौ मीटर की रेस मानें तो चुनाव में सत्तारूढ़ दल विपक्ष से 50 मीटर आगे खड़ा होता है। इसके बावजूद जो सत्तारूढ़ दल चुनाव हार रहे हैं उनमें सिर्फ एक कमी है कि वे चुनाव जीतने के लिए सत्ता का मनमाना इस्तेमाल करने में दक्ष नहीं हुए हैं। चुनाव जीतने को राजनीति का एकमात्र उद्देश्य बनाने और उसके लिए हर उपाय आजमाने की भावना लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को कमजोर कर रही है। लंबे समय में देश को इसका बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।