ऐसा कहना थोड़ा जोखिम भरा है कि एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर वामपंथ भारत में समाप्ति की ओर है। लेकिन यह वास्तविकता है। इस निष्कर्ष को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि केरल में वामपंथी पार्टियों के गठबंधन की सरकार है या वामपंथी पार्टियां अब भी कई राज्यों में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा हैं या उनके सांसद और विधायक अब भी जीतते हैं या जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में छात्र संघ के चुनाव में एक बार फिर वामपंथी पार्टियां ही जीती हैं।
इन तर्कों का कोई मतलब नहीं है क्योंकि केरल में जहां देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम के नेतृत्व वाली लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार है वहां भी देश के एक ऐसे कारोबारी के लिए लाल कालीन बिछाया जा रहा है, जिसको विपक्षी पार्टियां क्रोनी कैपिटलिज्म का प्रतीक मानती हैं। वहां की सरकार ने निजी पूंजी को जिस तरह से सामाजिक विकास के लिए जरूरी माना है उसके बाद एक बिल्कुल अलग विचारधारा के तौर पर लेफ्ट की पहचान की कोई गुंजाइश नहीं बचती है।
सो, एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर वामपंथ समापन की ओर है तो साथ ही वामपंथी उग्रवाद की विचारधारा और उसके सशस्त्र संघर्ष का सूरज भी अस्त हो रहा है। ऐसा नहीं है कि भारत सरकार ने और कुछ राज्य सरकारों ने विशेष फोर्स बना कर वामपंथी उग्रवाद, जिसे नक्सलवाद भी कहा जाता है, के खिलाफ अभियान छेड़ा है इसलिए उसका समापन हो रहा है।
सरकार और सुरक्षा बलों की कार्रवाई की निश्चित रूप से उसमें एक भूमिका है। लेकिन मुख्य कारण वामपंथी उग्रवाद की विचारधारा का नेतृत्व कर रहे संगठन और उसके नेता खुद हैं। इन संगठनों का वैचारिक विचलन इतना गहरा और व्यापक है कि उसे किसी तरह से बचाया नहीं जा सकता था। सरकार अगर आगे बढ़ कर स्ट्राइक नहीं करती तो अपनी विचारधारा और कामकाज की वजह से भी इन संगठनों का अंत तय था।
नम्बाला केशव राव उर्फ बसवराज का मारा जाना वामपंथी उग्रवाद के समापन की दिशा में एक निर्णायक कदम है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में या महाऱाष्ट्र और आंध्र प्रदेश से लगती सीमा के इलाके में माओवादियों का असर सिमट रहा है। उसके कमांडर और कॉमरेड मारे जा रहे हैं या शरण के लिए भटक रहे हैं। पिछले साल जनवरी से लेकर इस साल मई तक करीब चार सौ नक्सली मारे गए हैं, जिनमें उनके कई बड़े नेता और कमांडर थे।
बस्तर में बसवराज को सबसे खतरनाक और सबसे सुरक्षित ढंग से काम करने वाला कमांडर माना जाता था। उसने अपने को इतना गोपनीय रखा था कि सुरक्षा बलों के पास उसकी सिर्फ एक तस्वीर थी और वह भी कॉलेज के जमाने की। एक करोड़ से ज्यादा इनाम वाले नक्सली कमांडर के बारे में इससे ज्यादा जानकारी नहीं थी। फिर भी 21 मई की मुठभेड़ में बसवराज मारा गया तो यह मामूली बात नहीं है। ऐसा कैसे हुआ कि बसवराज मारा गया और दूसरा बड़ा कमांडर हिडमा शरण के लिए यहां वहां भाग रहा है?
ऐसा इस वजह से हुआ क्योंकि नक्सली संगठनों ने जनता का समर्थन गंवा दिया। जन समर्थन से आंदोलन चलाने वाले नेताओं की कमी होती गई और धीरे धीरे माओवादी संगठनों पर उन नेताओं का नियंत्रण बनता गया, जो सिर्फ मिलिट्री लाइन को फॉलो करते हैं। वे सुरक्षा बलों के जवानों को मार कर जश्न मनाते हैं।
वामपंथी उग्रवाद का अंत समीप
सुरक्षा बलों की हत्या के बाद उनके छीने गए हथियारों की प्रदर्शनी लगाते हैं और इसे अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। छह अप्रैल 2010 को ताड़मेटला में सीआरपीएफ के 75 जवानों की हत्या या 25 मई 2013 को झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं की हत्या इस मिलिट्री लाइन को फॉलो करने की अनिवार्य परिणति थी। इन दोनों नरसंहारों को माओवादी कमांडरों ने न सिर्फ न्यायसंगत ठहराया, बल्कि इनका जश्न मनाया। यह वैचारिक स्तर पर एक बड़ा विचलन था, जिसने माओवादी कैडर का भी मोहभंग किया।
उसके बाद पिछले एक दशक में माओवादी संगठनों ने जनता का समर्थन लगभग पूरी तरह से गंवा दिया है। अब जंगल में बसे गांवों के लोग नक्सलियों के बारे में पुलिस को सूचना दे रहे हैं। डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड यानी डीआरजी एक प्रभावी पुलिस बल के तौर पर उभरा है, जिसके पास भौगोलिक जानकारी है और सूचना का अपना एक बड़ा नेटवर्क है।
उसने सुरक्षा बलों के अभियान को ज्यादा प्रभावी बना दिया है। साथ ही सरकार ने अपना मानवीय चेहरा भी दिखाया है। आदिवासी बहुल पिछड़े और जंगल के इलाकों में विकास की रोशनी पहुंचाने की गंभीर कवायद हुई है। सड़कों का नेटवर्क बना है, बैंकिंग की सुविधाओं का विकास हुआ है, शिक्षा व स्वास्थ्य की व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए काम हुआ। इससे भी आम लोगों का भरोसा राजनीतिक व्यवस्था में बढ़ा है।
तभी माओवादी संगठनों में घबराहट है। वे लगातार पीछे हट रहे हैं। पहले माना जा रहा था कि 40 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में उनका राज चलता है लेकिन वह सिमट कर आधे से भी कम रह गया है। पूरे देश में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों की संख्या घट कर 35 के करीब आ गई है। तभी घबराहट में माओवादी संगठन लगातार वार्ता और सीजफायर की अपील कर रहे हैं।
ध्यान रहे डेढ़ साल पहले 2023 के अंत में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा सत्ता में लौटी थी तभी उसने नक्सलियों के साथ बिना शर्त वार्ता की पेशकश की थी। हालांकि हर बार की तरह माओवादी संगठनों ने अपनी शर्तों के साथ वार्ता का प्रस्ताव दिया। वे चाहते थे कि सुरक्षा बलों की कार्रवाई रोक दी जाए और खुफिया ऑपरेशन भी रोक दिए जाएं। साठ साल से अधिक के संघर्ष में अब सरकारें भी जान गई हैं कि यह इन संगठनों की तिकड़म है।
वे हमेशा सीजफायर करा कर वार्ता का दिखावा करते हैं और इस दौरान अपनी शक्ति संचय करते हैं। वे सुरक्षा बलों का मोमेंटम तोड़ना चाहते हैं। तभी केंद्र सरकार ने सीजफायर करके वार्ता करने की शर्त को खारिज कर दिया और कार्रवाई तेज करने का फैसला किया।
अब माओवादी संगठनों ने पिछले एक महीने में दो बार वार्ता की पेशकश की है। उन्होंने लंबी लंबी चिट्ठियां लिखी हैं। अपने कॉमरेड्स के मारे जाने का जिक्र किया है। लेकिन केंद्र और छत्तीसगढ़ की सरकार इस बात पर कायम है कि वार्ता होगी भी तो सुरक्षा बलों की कार्रवाई चलती रहेगी। इसका सीधा मतलब है कि नक्सली या तो सरेंडर करें या मारे जाएं। सरकार को सफलता अपनी पहुंच में दिखाई दे रही है तभी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद को पूरी तरह से खत्म करने का ऐलान किया है।
ध्यान रहे दुनिया भर में उग्र वामपंथी आंदोलन अगर जरा भी सफल हुआ है तो वह डायलॉग और मिलिट्री दोनों लाइन को साध कर ही सफल हुआ है। वार्ता और संघर्ष दोनों के जरिए एक हद तक सफलता मिल सकती थी। लेकिन भारत के माओवादियों ने वह मौका गंवा दिया है। उन्होंने अपनी मिलिट्री लाइन की सफलता को ही जीत का मंत्र मान लिया था। इसलिए जब वे अपेक्षाकृत ताकतवर थे तो उन्होंने संवाद का रास्ता नहीं खोला।
उलटे अपनी ताकत के दम पर उन्होंने सुरक्षा बलों और राजनेताओं पर हमले तेज किए और दूसरी ओर आम लोगों को भी परेशान करना शुरू किया। छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड और ओडिशा तक नक्सली संगठन रंगदारी वसूलने वाले संगठन में बदल गए। वे कारोबारियों और उद्यमियों से लेवी वसूलने लगे। एक तरफ मिलिट्री लाइन और दूसरी ओर पैसे की वसूली से उनका समर्थन कम हुआ।
इस वजह से पुलिस और सुरक्षा बलों को आम लोगों का व्यापक समर्थन मिला। अब अगर नक्सली संगठन चाहें भी तो जनता का समर्थन हासिल नहीं कर सकते हैं और न अपनी शर्तों पर वार्ता शुरू करा सकते हैं। इसलिए उनके सामने विकल्प नहीं बचा है। वे या तो सामूहिक रूप से सरेंडर करेंगे या एक दिशाहीन और बेमतलब की लड़ाई लड़ते हुए मारे जाएंगे।
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