चुनाव आयोग ने इस साल के अंत में पूरे देश में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर का फैसला किया है। आयोग ने सभी राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों की बैठक बुलाई थी, जिसमें इस पर विस्तार से चर्चा हुई है। इस बैठक से ठीक पहले चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक बिहार के मुख्य चुनाव अधिकारी को निर्देश दिया कि मतदाताओं के सत्यापन के लिए निर्धारित 11 दस्तावेजों की सूची में 12वें दस्तावेज के तौर पर आधार को शामिल किया जाए। बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया शुरू करने की अधिसूचना 24 जून को जारी हुई थी और एक दिन बाद ही यह प्रक्रिया शुरू हो गई थी। जुलाई के आखिरी चरण में पहला चरण पूरा हुआ यानी मतगणना प्रपत्र भरवाने का काम पूरा हुआ और मसौदा मतदाता सूची जारी हुई। अब दूसरा चरण भी पूरा हो गया है यानी मसौदा मतदाता सूची में जिनके नाम कटे हैं उनकी आपत्ति और दावे लेने का काम पूरा हो गया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इसकी सीमा थोड़ी बढ़ाई गई और आधार को एक दस्तावेज के तौर पर स्वीकार किया गया। अदालत के आदेश पर ही ऑनलाइन आपत्ति और दावे स्वीकार किए गए। दूसरा चरण पूरा होने के बाद आधार को सत्यापन के एक दस्तावेज के तौर पर स्वीकार करने का निर्देश दिया गया है।
चुनाव आयोग ने बिहार में नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए पहले वहां मतदाता सूची का पुनरीक्षण कराया और अब साल के अंत में पूरे देश में यह प्रक्रिया शुरू होगी। ऐसे में सवाल है कि क्या यह मान लिया जाए कि एसआईआर पर विपक्ष की लड़ाई कामयाबी से पूरी हो गई है और अब आगे लड़ने की जरुरत नहीं है? यह सवाल इसलिए है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को कई ऐसे निर्देश दिए हैं, जिसकी मांग विपक्षी पार्टियों ने की थी। विपक्षी पार्टियों और दूसरे याचिकाकर्ताओं की मांग मानते हुए अदालत ने आधार को सत्यापन का दस्तावेज मानने का आदेश दिया है और ऑनलाइन आपत्ति स्वीकार करने को भी कहा है। इस तरह कह सकते हैं कि जमीनी लड़ाई पता नहीं कितनी कामयाब हुई लेकिन कानूनी लड़ाई कामयाब हो गई है और इसलिए अब अगर चुनाव आयोग पूरे देश में एसआईआर की प्रक्रिया शुरू करता है तो विपक्षी पार्टियों को उसका विरोध करने या उसके खिलाफ लड़ने की जरुरत नहीं है। ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों को भी फटकार लगाई और कहा कि उनके हजारों की संख्या में बूथ लेवल एजेंट्स हैं वे मसौदा मतदाता सूची की गलतियां निकाल कर उसके खिलाफ चुनाव आयोग में आपत्ति और दावे क्यों नहीं दर्ज कर रहे हैं? इसके बाद पार्टियों के बूथ लेवल एजेंट्स थोड़े सक्रिय हुए।
अदालत के आदेश के अलावा विपक्ष के इसके खिलाफ नए सिरे से लड़ाई नहीं शुरू करने की एक वजह यह भी हो सकती है कि अब एसआईआर सरप्राइज नहीं है। बिहार में एसआईआर की घोषणा अचानक हुई थी इसलिए सब चौंक गए थे। कोई इसके लिए तैयार नहीं था। लेकिन अब इसमें सरप्राइज नहीं है। चुनाव आयोग ने पहले इसकी घोषणा कर दी है। पार्टियों के पास समय है कि वे बूथ लेवल एजेंट्स को प्रशिक्षण देकर तैयार करें और नागरिकों के पास भी समय है कि वे जरूरी दस्तावेज जुटाएं। चूंकि आधार को स्वीकार करने की मंजूरी मिल गई है इसलिए दस्तावेजों को लेकर भी ज्यादा माथपच्ची करने की जरुरत नहीं होगी। इससे पहले हुए एसआईआर के बाद बनी मतदाता सूची में जिनके नाम हैं या जिनके माता पिता के नाम हैं उनको वैसे भी ज्यादा समस्या नहीं हो रही है इसलिए माना जाना चाहिए कि यह मामला अब सेटल हो गया है। लेकिन ऐसा नहीं है। विपक्षी पार्टियां इसके बावजूद एसआईआर के खिलाफ लड़ेंगी।
इतना सब कुछ होने के बावजूद विपक्ष एसआईआर पर क्यों लड़ेगा? इस सवाल का पहला जवाब तो यह है कि एसआईआर विपक्षी गठबंधन को जोड़े रखने वाली गोंद है। एसआईआर के मसले पर समूचा विपक्ष एकजुट है। संसद के मानसून सत्र में यह एकता दिखी तो बिहार में राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा में भी यह एकता दिखी। राहुल और तेजस्वी ने एक साथ यात्रा की, जिसमें बिहार की सभी विपक्षी पार्टियां शामिल हुईं। इसके अलावा बिहार के बाहर की भी लगभग सभी विपक्षी पार्टियों के नेता इसमें शामिल हुए। आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को छोड़ कर सबके नेता इस यात्रा में या यात्रा के समापन पर हुए मार्च में शामिल हुए। इस एकता को बनाए रखने के लिए विपक्ष एसआईआर का मुद्दा जिंदा रखेगा, उसे छोड़ेगा नहीं। दूसरा कारण यह है कि आधार को स्वीकार करने के आदेश के बावजूद विपक्ष को लग रहा है कि चुनाव आयोग गड़बड़ कर सकता है। क्योंकि अगर आधार को संदिग्ध बता दिया गया तो उसे प्रामाणिक साबित करने के लिए मतदाता को दूसरे दस्तावेज दिखाने होंगे, जो उन 11 दस्तावेजों में से होंगे, जिनकी सूची चुनाव आयोग ने पहले जारी की थी। ध्यान रहे मीडिया में महीनों से बताया जा रहा है कि आधार बनवाने में कितना फर्जीवाड़ा हुआ है और कैसे आबादी से ज्यादा आधार बने हैं। सो, आधार को संदिग्ध बता कर अतिरिक्त दस्तावेज की मांग की जा सकती है।
तीसरा कारण यह है कि चुनाव आयोग स्थायी रूप से शिफ्ट कर गए लोगों की श्रेणी में जिनके नाम काट रहा है उसमें गड़बड़ी की आशंका विपक्ष को है। कहा जा रहा है कि चुनाव आयोग का बूथ लेवल एजेंट तीन बार घऱ जाएगा और मतदाता के नहीं मिलने पर नाम काट देगा। विपक्ष को इस पर आपत्ति है। उसका कहना है कि बेशक मतदाता शिफ्ट कर गया हो लेकिन उससे यह पूछा जाना चाहिए कि वह कहां मतदान करना चाहता है और उसके मना करने पर ही नाम काटना चाहिए। चौथा कारण दस्तावेजों की प्रामाणिकता से जुड़ा है। बिहार में चुनाव आयोग ने तीन लाख लोगों को नोटिस जारी करके उनके आवेदन को संदिग्ध बताया, इसमें दो लाख लोग सीमांचल के इलाके के हैं, जहां मुस्लिम आबादी ज्यादा है। हालांकि अभी तक इस बात के सबूत नहीं मिले हैं कि किसी जाति या धर्म के लोगों का नाम आबादी के अनुपात से ज्यादा कटा है। लेकिन संदिग्ध आवेदन की श्रेणी को लेकर विपक्ष चिंतित है। पांचवां कारण यह है कि विपक्ष को चिंता सता रही है कि बिना बताए नाम काटे जा सकते हैं और उसके बाद उसे ठीक कराने का समय नहीं मिलेगा।
एक अन्य महत्वपूर्ण कारण राजनीतिक है। विपक्ष को लग रहा है कि एसआईआर के मसले पर उसने सरकार को घेर लिया है। विपक्ष ने केंद्र की चुनी हुई सरकार के साथ साथ राज्यों में चुनी गई भाजपा सरकारों की वैधता पर सवाल खड़े कर दिए हैं और चुनाव आयोग की साख भी खराब कर दी है। अगर एसआईआर की लड़ाई रूकती है तो इन पर से ध्यान हट जाएगा। विपक्ष चुनावों की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता रहेगा क्योंकि इससे उसे लोगों को आंदोलित करने का मौका मिल रहा है और अपने समर्थकों का मनोबल बनाए रखने का मौका मिल रहा है। इसलिए विपक्ष किसी हाल में एसआईआर का मुद्दा नहीं छोड़ेगा।