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17-07-2025 Vol 19

खान-पान पर पहरा क्या धर्म का काम है?

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चैत्र नवरात्रि समाप्त होने के बाद मांस की दुकानें बंद कराने का जो अभियान ठहर गया था वह एक अल्पविराम के बाद फिर शुरू हो गया है। सावन का महीना आते ही जैसे ही कांवड़ यात्रा शुरू हुई उसके रास्ते में खाने पीने की चीजों की दुकान चलाने वालों की पहचान करने का अभियान शुरू हो गया और इसके साथ ही मांस की दुकानें भी बंद कराई जाने लगीं हैं। हालांकि इस बार पिछली बार की तरह कांवड़ यात्रा के रास्ते में दुकानदारों को अपनी जातीय और धार्मिक पहचान दुकान के बाहर टांगने का आदेश नहीं दिया गया है। इस बार उनको क्यूआर कोड लगाने का निर्देश दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि उनका पूरा नाम और पता लिखा होना चाहिए। ऐसा इसलिए किया गया है ताकि कांवड़ियों को दुकान पर लगे बोर्ड से कोई कंफ्यूजन नहीं हो।

वे क्यूआर कोड स्कैन करके दुकानदार का असली नाम और उसके धर्म का पता लगा सकेंगे। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। यह काम उत्तर प्रदेश में हो रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश से आगे यानी दिल्ली और हरियाणा में भी कांवड़ियों के रास्ते में आने वाली मांस की दुकानें बंद कराई जा रही हैं। हालांकि दिल्ली में नगर निगम ने साफ कहा है कि किसी नियम के तहत ऐसा नहीं किया जा सकता है। लेकिन नियम एक तरफ और आस्था के नाम पर दादागिरी एक तरफ! सावन के बाद फिर शारदीय नवरात्र में यही प्रक्रिया चलेगी। फिर दिवाली और छठ के समय भी अलग अलग इलाकों में इसे दोहराया जाएगा। कभी पर्यूषण पर्व के नाम पर तो कभी श्राद्धपक्ष के नाम पर मांस की दुकानें बंद कराई जाती हैं। कई धार्मिक स्थलों पर तो स्थायी रूप से मांस की दुकानें बंद कराई जा चुकी हैं और कई जगहों पर बंद कराने के प्रयास चल रहे हैं।

यह काम धार्मिक भावना आहत होने के नाम पर किया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसा करने वालों को हिंदू धर्म की मान्यताओं और परंपराओं के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वे सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए यह काम करते हैं। उनको लगता है कि सोशल मीडिया में मूर्खतापूर्ण प्रलापों के जरिए कथावाचकों और इंफ्लूएंसर्स ने मांसाहार के खिलाफ जमीन तैयार कर दी है और अब इसका राजनीतिक लाभ लेने का समय आ गया है। उनको यह भी लगता है कि मांस की दुकानें सिर्फ मुस्लिम चलाते हैं इसलिए उनको बंद कराने से मुसलमानों को नुकसान होगा और हिंदुवादी राजनीति चमकाने में सुविधा होगी। कुछ समय पहले तक छुटभैया नेता यह काम करते थे। जिनको पार्षद या विधायक आदि की टिकट चाहिए होती थी और कोई राजनीतिक पहचान नहीं होती तो वे इस तरह के काम करते थे। फिर धीरे धीरे सोशल मीडिया में शाकाहार की महानता बताई जाने लगी और मांसाहार को धर्म विरूद्ध ठहराया जाना लगा। यह एक संस्थागत प्रयास में बदल गया, जिसमें देश की जनता को धार्मिक बना कर अनंतकाल तक उन पर राज करने की मंशा रखने वाले सांस्कृतिक संगठन, उसकी पार्टी और उसके अनुषंगी संगठन शामिल हो गए। उनको इस विषय के मेरिट यानी गुण दोष से कोई लेना देना नहीं है। इसमें उनको राजनीतिक लाभ होता दिख रहा है इसलिए वे यह काम कर रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि मांस की दुकानें बंद कराने वाले केंटकी फ्रायड चिकन यानी केएफसी के आउटलेट नहीं बंद कराते हैं। वे प्रोसेस्ड फूड बेचने वाली दुकानों को बंद नहीं कराते हैं, जहां फ्रोजन आइटम्स बेचे जाते हैं। उनको पता है कि इनमें से ज्यादातर दुकानें गैर मुस्लिमों की हैं और उनमें कुछ ऐसे भी लोग हो सकते हैं, जो शाकाहार की महानता का प्रचार करते हैं। आखिर मांस निर्यात से लेकर चमड़े के कारोबार तक अनेक ऐसे लोग शामिल हैं। सोचों, आस्था कितनी लचीली है! सो, पहला निष्कर्ष तो यह बनता है कि मांस की दुकानें बंद कराने या कांवड़ियों की यात्रा के रास्ता में पड़ने वाली खाने पीने की दुकानों पर क्यूआर कोड लगाने के पीछे प्राथमिक मंशा मुसलमानों को निशाना बनाने की है। उसमें झटका मीट बेचने वाले कुछ हिंदू, सिख भी अगर प्रभावित होते हैं तो उनको कोलेटरल डैमेज माना जा सकता है। ध्यान रहे हिंदुओं के प्रिय नेताओं में से एक गिरिराज सिंह झटका मीट खाने के लिए हिंदू समाज को काफी समय से प्रोत्साहित कर रहे हैं।

बहरहाल, हिंदू धर्म की मान्यताओं या परंपराओं के प्रति अनजान जो लोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए यह अभियान चला रहे हैं उनके अलावा एक समूह ऐसा भी है, जो सुनियोजित तरीके से शाकाहार और हिंदू धर्म को एकाकार करने में लगा है। उनको हिंदू धर्म की विविधता और उसकी परंपराओं के बारे में पता है लेकिन वे उस विविधता को खत्म करके हिंदुओं की एक विशिष्ठ पहचान बनाना चाहते हैं। वे मानते हैं कि मांसाहार ईसाई और इस्लाम धर्म की पहचान है और इसलिए शाकाहार हिंदू धर्म की पहचान बने। तमाम हिंदुवादी संगठनों और कथावाचकों के जरिए इसका प्रचार किया जा रहा है। गांवों, कस्बों और शहरों में कथावाचकों के धार्मिक आयोजन हो रहे हैं, जिसमें वे शाकाहार का महत्व समझा रहे हैं। उसे श्रेष्ठ बता रहे हैं और मांसाहार त्यागने की अपील कर रहे हैं। उनको लग रहा है कि इस तरह वे हिंदू धर्म को मजबूत कर रहे हैं लेकिन असल में वे हिंदू धर्म की जड़ खोखली कर रहे हैं।

जो लोग नवरात्रों में देवी की पूजा के नाम पर मांस की दुकानें बंद कराते हैं क्या उनको पता नहीं है कि इस देश के अनेक हिस्सों में देवी को प्रसाद के तौर पर मांस चढ़ाया जाता है? क्या वे नहीं जानते हैं कि देश के बड़े हिस्से में देवी की पूजा बिना बलि के पूर्ण नहीं होती है? हो सकता है कि छुटभैया नेता नहीं जानते हों लेकिन जो सांस्थायिक प्रयास कर रहे है वे इससे परिचित होंगे। फिर भी अपनी राजनीति साधने के लिए वे इसे बढ़ावा देते हैं। इतनी मुश्किल से इस देश में शैव व वैष्णव के और वैदिक व तांत्रिकों के विवाद सुलझाए गए हैं लेकिन अब एक बार फिर पूरे देश को वैष्णव बनाने का अभियान छेड़ दिया गया है।

ऐसी आत्मघाती सोच दुनिया के किसी दूसरे धर्म में नहीं दिखती है। इस्लाम में कुर्बानी की प्रथा है तो कहीं भी सुनने को नहीं मिलता है कोई संगठन बकरीद के मौके पर कुर्बानी रूकवाने या मांस की दुकानें बंद करवाने निकल पड़ा है। अमेरिका में थैंक्स गिविंग डे के दिन एक टर्की को राष्ट्रपति आजाद करते हैं और उसके बाद करोड़ों टर्की मार दिए जाते हैं। लेकिन कोई अपनी राजनीति चमकाने के लिए इस परंपरा को बंद कराने नहीं जाता है। बौद्ध धर्म ने ऐसे समय में अहिंसा का पाठ पढाया, जब देश में पशुओं के जरिए ही खेती होती थी, वे अर्थव्यवस्था का सबसे अहम टूल थे और उनकी संख्या कम होती जा रही थी। तब उनको बचाने के लिए अहिंसा का पाठ पढ़ाया गया लेकिन उस समय भी मांसाहार पर रोक नहीं लगाई गई। मरे हुए पशुओं का मांस खाने पर कभी पाबंदी नहीं रही। आज तो तमाम बौद्ध देशों में सहज भाव से मांसाहार प्रचलित है। उन्होंने इसे धर्म का मुद्दा नहीं बनने दिया है। यहूदियों का एकमात्र देश इजराइल प्रति व्यक्ति मांस की खपत में दुनिया में नंबर एक है।

दुनिया भर के देशों में खाने पीने को निजी पसंद माना जाता है और उस आधार पर व्यक्ति की श्रेष्ठता का आकलन नहीं किया जाता है। लेकिन भारत की राजधानी में ‘प्राउड टू बी वेजिटेरियन’ के बड़े बड़े होर्डिंग्स लगे दिखाई देते हैं। सोचें, इसमें क्या प्राउड करने की बात है कि आप शाकाहारी हैं! असल में यह आपका गर्व नहीं है, बल्कि दूसरे लोगों को नीचा दिखाने की भावना है। क्या हो अगर इसके आगे कोई आए और ‘प्राउड डू बी वीगन’ की होर्डिंग लगा दे और उसके आगे कोई इस बात पर गर्व करे की वह सिर्फ फलाहार करता है और उससे भी आगे का कोई आ जाए कि वह तो उपवास कर रहा है इसलिए वह सबसे महान है! इस तरह की बातें और काम करने वाले अपढ़ और कुपढ़ लोग हैं, जिनके पास न तो इतिहास की दृष्टि है और न धर्म की समझ है।

अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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