यह अनुरोध सिर्फ केंद्र सरकार से नहीं है, बल्कि तमिलनाडु सरकार से भी है। नई शिक्षा नीति और त्रिभाषा फॉर्मूले को लेकर जो विवाद केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच छिड़ा है वह कोई भाषा और संस्कृति का विवाद नहीं है, बल्कि राजनीतिक विवाद है। इसलिए किसी भी भाषा को और खास कर हिंदी को खलनायक बनाने की जरुरत नहीं है। असलियत यह है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले दोनों पक्ष अपने अपने हथियारों को धार दे रहे हैं। यह दुर्भाग्य होगा अगर एक बार फिर भाषा का विवाद छिड़ेगा और राजनीतिक फायदे के लिए पार्टियां इसका इस्तेमाल करेंगी। ऐसा लग रहा है कि चार साल शासन करने के बाद मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को भाषा के विवाद में अवसर दिख रहा है तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को इसी बहाने अपने को हिंदी हितैषी दिखाने का मौका मिला है। हिंदी हितैषी का यह नैरेटिव भाजपा को अगर तमिलनाडु में ज्यादा फायदा नहीं भी पहुंचाता है तब भी देश के 40 फीसदी से ज्यादा हिंदी भाषी इलाके में अच्छी बढ़त दिला सकता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक राजनीतिक मसला है, जिसका भाषा और संस्कृति से ज्यादा सरोकार नहीं है। एमके स्टालिन नई शिक्षा नीति यानी एनईपी के बहाने हिंदी बनाम तमिल का मुद्दा इसलिए बना रहे हैं ताकि वे अपने को द्रविड अस्मिता का चैम्पियन दिखा सकें। वे एक आभासी लड़ाई छेड़ कर उसका राजनीतिक लाभ लेना चाहते हैं। इस तरह के कई काम वे और उनके बेटे उदयनिधि स्टालिन पहले भी कर चुके हैं। उदयनिधि ने इसी तरह के राजनीतिक लाभ के लिए सनातन धर्म के खिलाफ अवांछित टिप्पणी की थी। सनातन बनाम द्रविड संस्कृति का विवाद उन्होंने खड़ा किया था तो तमिल बनाम हिंदी का विवाद एमके स्टालिन बना रहे हैं। पहले तो उनका विरोध इतना था कि वे एनईपी के जरिए त्रिभाषा फॉर्मूला लागू करने और तमिल व अंग्रेजी के साथ तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी पढ़ाए जाने के प्रयास का विरोध कर रहे थे। उनका आरोप था कि केंद्र सरकार हिंदी थोपना चाहती है।
लेकिन बाद में उन्होंने हिंदी का विरोध शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि हिंदी का वर्चस्व स्थापित करने के प्रयासों के चलते उत्तर भारत की 25 बोलियां समाप्त हो गईं। उनका यह निष्कर्ष भी राजनीतिक है और अधूरा है। अव्वल तो उत्तर भारत की बोलियां समाप्त नहीं हुई हैं। आज भी करीब 15 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं और पूर्वांचल के अलावा देश भर में और विदेशों में भी भोजपुरी बोली जाती है। भोजपुरी के अलावा बिहार में मगही, मैथिली, अंगिका, वज्जिका आदि बोलियां भी चलती हैं तो उत्तर प्रदेश में भोजपुरी के साथ साथ अवधि व ब्रज भाषा का भी चलन है। राजस्थान, मध्य प्रदेश में भी कई बोलियां प्रचलित हैं। इन बोलियों को मानक भाषा नहीं माना गया है। मानक भाषा के तौर पर हिंदी को संविधान में स्वीकार किया गया। संविधान बनाने वालों ने 1950 हिंदी को आधिकारिक राजभाषा बनाया और साथ ही कहा कि 15 साल तक अंग्रेजी सहायक राजभाषा बनी रहेगी। हालांकि बाद में तमिलनाडु और दूसरे राज्यों के विरोध की वजह से 15 साल की समय सीमा हटा दी गई। इसलिए हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी भी कामकाज की भाषा बनी हुई है। तभी हिंदी को उसका विकास करने वाली बोलियों के विरोध में खड़ा करने की स्टालिन की राजनीति ठीक नहीं है।
अगर उनके इसी तर्क के हिसाब से देखें तो सवाल उठेगा कि क्या तमिल भाषा ने तमिल बोलियों को समाप्त नहीं किया है? तमिलनाडु के अलग अलग इलाकों में कई बोलियां प्रचलित रही हैं। आज भी अनेक बोलियों का अस्तित्व है लेकिन उनको मानक तमिल भाषा नहीं माना जाता है। कोंगु तमिल, मद्रास बशई, मदुरै तमिल, नेलाई तमिल, कुमारी तमिल आदि बोलियां हैं। इसके अलावा श्रीलंका के जाफना में या मलेशिया में मानक या शास्त्रीय तमिल भाषा नहीं इस्तेमाल होती है। वहां की अलग बोलियां हैं। ऐसा ही कन्नड़, मलयालम, तेलुगू आदि मानक भाषाओं का विकास भी बोलियों से ही हुआ है। जिस तरह से उत्तर भारत की बोलियों ने हिंदी को समृद्ध किया है उसी तरह अन्य मानक भाषाएं भी अपनी बोलियों से ही समृद्ध हुई हैं। इसलिए भाषा और बोली के बीच दशकों पहले सुलझ चुके विवाद को फिर से छेड़ने की जरुरत नहीं है।
दूसरी अहम बात यह है कि अगर अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य संपर्क भाषा की बात होगी तो क्या वह हिंदी नहीं होगी? हिंदी के अलावा किसको पूरे देश की संपर्क भाषा कह सकते हैं? क्या तमिलनाडु के लोग देश के दूसरे हिस्सों में जाते हैं तो वे हिंदी का प्रयोग नहीं करते हैं? क्या वे हिंदी की फिल्में नहीं देखते हैं या हिंदी के गाने नहीं सुनते हैं? देश में उनका काम तमिल और अंग्रेजी के दम पर नहीं चल सकता है। खुद तमिलनाडु का तीर्थाटन और पर्यटन का विशाल कारोबार बड़ी हिंदी आबादी के दम पर ही चल रहा है। हिंदी भाषी पर्यटकों के साथ तमिल लोगों को कामचलाऊ हिंदी से कोई आपत्ति नहीं होती है। परंतु स्टालिन ने अपने राजनीतिक फायदा के लिए इसका विवाद बना दिया है।
इसी तरह भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार ने भी राजनीतिक लाभ के लिए इसे मुद्दा बनाया है। नई शिक्षा की नीति में कई चीजें अच्छी हैं, जिनको लागू कराना चाहिए। लेकिन ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार का सारा जोर हिंदी पढ़वाने पर है। वह अपने को हिंदी हितैषी दिखाने के लिए दूसरी भाषाओं को हिंदी के विरोध में खड़ा करवाने की राजनीति कर रही है। वैसे भी तमिलनाडु में बड़ी संख्या में केंद्रीय विद्यालय हैं, जिनमें हिंदी पढ़ाई जा रही है। इसी तरह ज्यादातर निजी स्कूलों में भी हिंदी की पढ़ाई हो रही है। सीबीएसई, आईसीएसई और आईबी बोर्ड वाले स्कूलों में भी हिंदी की पढ़ाई हो रही है। क्या इतना पर्याप्त नहीं है, दक्षिण में हिंदी के प्रसार के लिए? इसके अलावा भी दक्षिण में हिंदी के प्रसार के लिए संस्थाएं बनी हैं। फिर क्यों केंद्र सरकार तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों में हिंदी अनिवार्य कराने में लगी है? अगर त्रिभाषा फॉर्मूले की ही बात करें तो उत्तर भारत के कितने स्कूलों में इसको लागू किया गया है? ज्यादातर सरकारी स्कूलों में सारी पढ़ाई हिंदी में ही होती है। उत्तर भारत की बड़ी आबादी के लिए अंग्रेजी आज भी एलियन भाषा है। अंग्रेजी पढ़ाने के लिए रखे गए ज्यादातर शिक्षक हिंदी में ही अंग्रेजी पढ़ाते हैं। ज्यादातर जगहों पर तीसरी भाषा के तौर पर संस्कृत को रखा गया है इसके बावजूद अधिकतर छात्रों को सिर्फ परीक्षा पास करने लायक संस्कृत आती है, जिसका इस्तेमाल वे फिर जीवन में कभी नहीं करते हैं। इसलिए भाषा को लेकर इतना आग्रह या विवाद ठीक नहीं है।
उससे बड़ा सवाल यह है कि जिस देश में भाषा को लेकर इतने विवाद हुए, भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ, भाषा के नाम पर पार्टियां बनीं और सफल हुई उस देश में आज तक ज्ञान की माध्यम भाषा अंग्रेजी बनी हुई है। विज्ञान और गणित से लेकर समाजविज्ञान तक की पढ़ाई के लिए हिंदी या दूसरी क्षेत्रीय भाषाएं विकसित नहीं हो पाईं। भाषा और शिक्षा दोनों की गुणवत्ता लगातार खराब होती गई है। सबको मिल कर इस पर विचार करना चाहिए कैसे इसे ठीक करें। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी के समय 42वें संविधान संशोधन के जरिए शिक्षा को राज्य सूची से हटा कर समवर्ती सूची में डाल दिया था। इंदिरा गांधी और इमरजेंसी को पानी पी पीकर कोसने वाली भाजपा को चाहिए कि वह इस संशोधन को रद्द कर दे और शिक्षा को फिर राज्य का विषय बना दे। उससे अपने आप कई विवाद खत्म हो जाएंगे।