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हमेशा व्हिप की तलवार ठीक नहीं है

कांग्रेस के सांसद और सुप्रीम कोर्ट के वकील मनीष तिवारी ने एक प्राइवेट मेंबर बिल संसद के शीतकालीन सत्र में पेश किया है। जैसे बाकी सारे प्राइवेट मेंबर बिल के साथ होता है वैसे ही इस बिल का भविष्य भी पहले से तय है। सदन के पटल पर खारिज हो जाना इसकी नियति है। लेकिन यह एक बेहद जरूरी और लोकतंत्र को मजबूती देने वाला विचार है, जिस पर निश्चित रूप से चर्चा होनी चाहिए। सभी पार्टियों को खुले दिल से इस पर चर्चा करनी चाहिए और सांसदों को दलगत निष्ठा से ऊपर उठ कर इसका समर्थन करना चाहिए।

मनीष तिवारी ने कहा है कि संसद में लाए जाने वाले विधेयकों पर विचार और वोट करने के लिए सांसदों को पार्टी व्हिप से मुक्त किया जाए। इसका अर्थ है कि कोई भी सरकार जब विधेयक ले आए तो सांसद पार्टी की राय और प्रतिबद्धता से अलग हट कर स्वतंत्र रूप से उस विधेयक के गुणदोष पर विचार करें, अपनी ईमानदार राय रखें और उसी हिसाब से वोट करें। यह आदर्श स्थिति होगी कि अगर विधेयक व्यापक रूप से जनता और देश के हित में लगे तो विपक्षी पार्टियों के सांसद भी उसका समर्थन करें और अगर विधेयक में कुछ कमी लगे तो सत्तापक्ष के सांसद भी उसका विरोध करें।

दुनिया के तमाम सभ्य और लोकतांत्रिक देशों में ऐसी ही व्यवस्था है। वहां विधेयकों पर चर्चा करते हुए या सरकार के किसी फैसले पर विचार करते हुए सांसद पार्टी के व्हिप और नेतृत्व के प्रति निष्ठा से नहीं बंधा होता है। वह अपने देश की जनता के हितों से बंधा होता है। उसे यह देखना होता है कि वह विधेयक या सरकार का कोई फैसला जनता के हितों को पूरा करता है या नहीं। भारत के लोग भी इसे बहुत अच्छी प्रैक्टिस मान कर अमेरिकी संसद की तारीफ करते हैं। खुश होते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति की पार्टी भी उनकी सरकार के फैसले को संसद में रोक देती है। लेकिन अपने यहां ऐसी किसी प्रैक्टिस के बारे में सोचते भी नहीं हैं। मनीष तिवारी ने तीसरी बार यह विधेयक पेश किया है। 2010 में पहली बार उन्होंने इसे पेश किया था, जब केंद्र में उन्हीं की पार्टी कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन तब भी इसे विचार के लिए स्वीकार नहीं किया गया था। बाद में उन्होंने 2021 में भी इसे पेश किया और अब फिर इसे पेश किया है।

इस विधेयक में उन्होंने संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसे आमतौर पर दलबदल कानून कहा जाता है उसमें बदलाव का प्रस्ताव किया गया है। इसमें पार्टी के व्हिप का उल्लंघन करने पर सदस्यता समाप्त होने का प्रावधान है। संविधान के 52वें संशोधन के जरिए प्रावधान किया गया है कि अगर कोई सांसद पार्टी की ओर से जारी निर्देश से उलट वोटिंग करता है या सदन से गैरहाजिर रहता है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी। मनीष तिवारी ने अपने विधेयक के जरिए प्रस्तावित किया है कि सरकार के बहुमत परीक्षण को छोड़ कर या ऐसे किसी मौके को छोड़ कर जब सरकार की स्थिरता प्रभावित होती हो, सांसदों के ऊपर पार्टी व्हिप के हिसाब से वोटिंग करने का बंधन नहीं होना चाहिए। हालांकि सिर्फ व्हिप से मुक्त कर देने से भारत के नेता अपनी पार्टी के नेतृत्व की राय से अलग होकर काम नहीं करने लगेंगे, फिर भी अगर ऐसा होता है तो यह एक अच्छी शुरुआत होगी।

भारत में अभी तक यह चलन है कि सरकार की ओर से चाहे जो भी विधेयक पेश किया जाए,  सत्ता पक्ष के सांसद उसका समर्थन करेंगे और विपक्ष उसका विरोध करेगा। एकाध अपवाद हैं जब विपक्ष ने भी सरकार के किसी बिल या प्रस्ताव का समर्थन किया है लेकिन इसकी शायद ही कोई मिसाल होगी कि सत्तापक्ष के सांसदों ने सरकार के बिल का विरोध किया हो। सोचें, ऐसे खराब विधेयक, जिन्हें कानून बन जाने के बाद खुद सरकारों को वापस लेना पड़ा उस पर भी चर्चा के दौरान सत्तापक्ष का कोई सांसद आपत्ति न करे तो क्या इससे लोकतंत्र की अच्छाई और मजबूती दिखती है या कमजोरी जाहिर होती है?

याद करें जब केंद्र सरकार ने तीन विवादित कृषि कानूनों को संसद से पास कराया था तब क्या सत्तारूढ़ गठबंधन के किसी सांसद ने इसके विरोध में सदन में कुछ भी कहा या किसी ने इसके विरोध में वोट किया? जब देश के किसान इन विधेयकों के खिलाफ सड़क पर उतरे और बड़ा विरोध हुआ तब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टेलीविजन के जरिए राष्ट्र को संबोधित करते हुए तीनों कानूनों को वापस लिया। लेकिन दोनों सदनों में चर्चा के दौरान सत्तापक्ष के किसी सांसद ने इसका विरोध नहीं किया था, बल्कि सबने अलग अलग तर्क खोज कर इसका समर्थन किया था और इसे किसानों के हित में बताया था।

ऐसा हर विधेयक के साथ होता था। चाहे वह कितना भी खराब विधेयक क्यों न हो सत्तापक्ष के सांसद उसका समर्थन करते हैं। वे न सिर्फ उसके समर्थन में वोट करते हैं, बल्कि उसके पक्ष में बोलते भी हैं। अगर सरकारी विधेयकों और प्रस्तावों पर सांसदों को व्हिप से नहीं बांधा जाए तो हो सकता है कि वे विधेयक के गुणदोष को देखते हुए मतदान करें। हालांकि भारत में नेताओं की किस्मत पार्टी आलाकमान के हाथों में होती है इसलिए कोई भी नेता आलाकमान की राय से बाहर जाने की सोच भी नहीं सकता है।

भारत में नेता पार्टी आलाकमान के खिलाफ तभी सोचते और बोलते हैं, जब उनको पार्टी छोड़नी होती है। क्योंकि उनको पता होता है कि सर्वोच्च नेता की राय के खिलाफ जाने के बाद पार्टी में उनके लिए जगह नहीं बचेगी। कुछ समय पहले तक तो भारत में ऐसे नेता होते थे, जिनकी अपनी स्वतंत्र पहचान होती थी और मजबूत जनाधार होता था लेकिन अब तो सभी पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व सिर्फ निष्ठा के आधार पर कमजोर और बिना जनाधार वाले नेताओं को ही आगे बढ़ाता है।

सवाल है कि जब मजबूत और जनाधार वाले नेताओं ने कभी अपने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ सार्वजनिक राय नहीं जाहिर की, किसी सरकारी बिल पर सत्तारूढ़ दल के सांसद ने सदन में अपनी स्वतंत्र राय नहीं जाहिर की और अपनी सरकार के लाए बिल के खिलाफ वोट नहीं किया तो अब के नेता ऐसा करने ही हिम्मत कैसे कर सकते हैं? निश्चित रूप से नहीं कर सकते हैं। फिर भी एक शुरुआत होनी चाहिए। हो सकता है कि अभी तुरंत इसका लाभ नहीं दिखे लेकिन आने वाले दिनों में इसका असर शुरू हो सकता है। संभव है कि भाजपा जैसी अनुशासित और विचारधारा व नेतृत्व से बंधी पार्टी से शुरू नहीं हो लेकिन कांग्रेस, समाजवादी या दूसरी प्रादेशिक पार्टियों से इसकी शुरुआत हो सकती है।

इक्का दुक्का सांसद भी अगर सदन के अंदर अपनी पार्टी की राय से अलग हट कर बोलें या मतदान करें और उनके खिलाफ दलबदल कानून के तहत कार्रवाई नहीं हो यानी उसकी सदस्यता नहीं समाप्त हो तो धीरे धीरे सांसदों की हिम्मत खुलेगी और वे विधेयकों या सरकारी मोशन्स को पार्टी की राय से हट कर सिर्फ मेरिट के आधार पर देखना शुरू करेंगे। तब जाकर उसके गुणदोषों पर सार्थक चर्चा होगी और उस चर्चा के बाद जो कानून बनेगा वह व्यापक रूप से देश और जनता के हितों को पूरा करने वाला होगा। इसके लिए सभी पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को भी अपनी सोच बदलनी होगी। किसी विधेयक या फैसले पर सांसदों की भिन्न राय को उन्हें अपने नेतृत्व के लिए चुनौती या अनुशासनहीनता के तौर पर देखना बंद करना होगा।

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By अजीत द्विवेदी

संवाददाता/स्तंभकार/ वरिष्ठ संपादक जनसत्ता’ में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू करके अजीत द्विवेदी भास्कर, हिंदी चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में सहायक संपादक और टीवी चैनल को लॉंच करने वाली टीम में अंहम दायित्व संभाले। संपादक हरिशंकर व्यास के संसर्ग में पत्रकारिता में उनके हर प्रयोग में शामिल और साक्षी। हिंदी की पहली कंप्यूटर पत्रिका ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, टीवी के पहले आर्थिक कार्यक्रम ‘कारोबारनामा’, हिंदी के बहुभाषी पोर्टल ‘नेटजाल डॉटकॉम’, ईटीवी के ‘सेंट्रल हॉल’ और फिर लगातार ‘नया इंडिया’ नियमित राजनैतिक कॉलम और रिपोर्टिंग-लेखन व संपादन की बहुआयामी भूमिका।

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