देश के अलग अलग हिस्सों से मीडिया और सोशल मीडिया में तस्वीरें आ रही हैं कि कैसे बिहार के लोग ट्रेन की बोगियों में घुसने के लिए स्टेशनों पर धक्कामुक्की कर रहे हैं। कैसे गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के स्टेशनों के बाहर लंबी लंबी कतारों में घंटों खड़े रह रहे हैं और उसके बाद भी ट्रेनों में भेड़ बकरियों की तरह ठूंस कर जा रहे हैं। अपने माता पिता के साथ बाथरूम के सामने खड़े होकर यात्रा कर रही एक छोटी सी बच्ची की ऐसी हृदयविदारक तस्वीर गुरुवार को अखबारों में छपी, जिसे देख कर पीड़ा और क्रोध का सहज मनोभाव उमड़ आए। यह सिर्फ इस बार की घटना नहीं है। हर बार होली, दिवाली और छठ पर इस तरह की तस्वीरें आती हैं। कोरोना की महामारी में पूरे देश ने आजादी के बाद पलायन की सबसे बड़ी त्रासदी की तस्वीरें देखीं। तपती धूप में, बच्चों को कंधे पर लिए लोग पैदल चले जा रहे थे। आदमियों की कतारें चींटियों की कतारों से बेहतर नहीं थीं, जो अनायास पैरों तले कुचल जाती हैं।
इन तस्वीरों से दो सवाल उठते हैं। पहला, तात्कालिक और दूसरा दीर्घकालिक है। तात्कालिक सवाल तो यह है कि ऐसा क्या है, जो भारत की सर्व शक्तिशाली सरकार, कुछ लाख लोगों को सुविधा के साथ उनके गंतव्य तक नहीं पहुंचा सकती है? याद करें कैसे कुछ महीने पहले ऐलान किया गया था कि इस बार त्योहारों के समय 12 हजार विशेष ट्रेनें चलेंगी। सोचें, यह कितनी बड़ी संख्या है? अगर यह मान लिया जाए कि ट्रेनें कम होंगी और उनके फेरे 12 हजार होंगे तब भी यह संख्या बहुत बड़ी है। बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रवासियों की संख्या निश्चित रूप से बड़ी है लेकिन अब तो बहुत बड़ी आबादी त्योहार मनाने लौट नहीं रही है। लोग जहां हैं वही त्योहार मना रहे हैं तभी दिल्ली में यमुना के किनारे या देश के दूसरे शहरों में नदियों के किनारे हर साल छठ करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।
फिर भी जितने लोग लौटना चाहते हैं कभी भी सरकारें उनके लिए सुविधाजनक व्यवस्था नहीं कर पाती है। उनको टिकट लेकर यात्रा करनी है। वे पैसे चुकाने को तैयार हैं और दूसरी ओर सरकारें भी सुविधा देने के वादे कर रही हैं फिर भी लोग जानवरों की तरह ट्रेनों, बसों में लद कर जाते हैं! जाहिर है कि सरकार के दावे, तैयारियों और वास्तविकता में मिसमैच है। रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव पिछले 10 दिन में कम से कम दो बार नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सुविधाओं का जायजा लेने पहुंचे। लेकिन क्या सुविधा मुहैया कराई गई? स्टेशन पर आधुनिक होल्डिंग एरिया बना दिया गया है, जहां लोगों को रोक कर रखा जाता है। इसका मकसद यह है कि जैसे कुछ समय पहले स्टेशन पर भगदड़ हुई थी वैसी भगदड़ न हो।
सरकार को सिर्फ भगदड़ की चिंता है क्योंकि उससे इमेज खराब होती है। बाकी लोग भेड़, बकरियों की तरह लद कर जा रहे हैं, स्टेशनों पर रात बिता रहे हैं, स्टेशनों के बाहर लंबी कतारों में खड़े हैं उससे कोई फर्क नहीं पड़ता! अगर सचमुच 12 हजार ट्रेनें चला दी जाएं और एक करोड़ लोग भी दिवाली, छठ के लिए यात्रा करने वाले हों तब भी बड़े आराम से इसे मैनेज किया जा सकता है। हर दिन दो करोड़ से ज्यादा यात्रियों को ढोने वाली भारतीय रेल के जरिए सरकार 10 दिन से ज्यादा की अवधि में करीब एक करोड़ लोगों को सुविधा के साथ उनके गंतव्य तक नहीं पहुंचा पाती है!
दूसरा दीर्घकालिक सवाल यह है बिहार में सरकार इस स्थिति को बदलने के लिए कोई ठोस उपाय क्यों नहीं कर पाती है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि 1990 से 2005 के बीच जिन कारणों से पलायन हुआ वो कारण अब मौजूद नहीं हैं। अब लोग भय से पलायन नहीं कर रहे हैं। क्लासिकल परिभाषा के हिसाब से देखें तो अब पलायन नहीं प्रवासन हो रहा है। प्रवासन सदियों से हो रहा है और दुनिया के हर हिस्से में होता है। इसका मतलब होता बेहतर अवसर की तलाश में दूसरी जगह जाना। लेकिन बिहार में लोग बेहतर अवसर की तलाश में नहीं जाते हैं, बल्कि किसी तरह के अवसर की तलाश में जाते हैं। बिहार में 20 साल से एक ही नेता नीतीश कुमार की सरकार है लेकिन वे रोजी, रोजगार के ऐसे अवसर नहीं पैदा कर सके कि लोगों को साधारण सी नौकरी या साधारण से रोजगार के लिए बिहार छोड़ कर न जाना पड़े। लोग 10 हजार, 12 हजार की नौकरी के लिए बिहार छोड़ कर जाते हैं। तभी बिहार के हर चुनाव में पलायन का मुद्दा बनता है लेकिन हर बार पार्टियां जो समाधान सुझाती हैं वह तात्कालिक चुनावी लाभ हासिल करने वाली ही होती हैं।
इस बार बिहार चुनाव में जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर ने वादा किया कि सरकार बनी तो पलायन रोक देंगे और बिहार में ही लोगों को वैसी नौकरी देंगे, जैसी वे बाहर जाकर करते हैं। लेकिन यह कैसे करेंगे इसका रोडमैप उन्होंने कभी नहीं बताया। इसी तरह नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने एक अविश्वसनीय वादा किया कि सरकार बनी तो हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देंगे। सोचें, पौने तीन करोड़ परिवार के एक एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का मतलब पौने तीन करोड़ नौकरी देना है। बिहार में नौकरी करने योग्य उम्र वाले लोगों की संख्या छह से साढ़े छह करोड़ के आसपास है। क्या तेजस्वी इनमें से लगभग आधे लोगों को सरकारी नौकरी दे देंगे? हकीकत यह है कि बिहार में कुल सरकारी नौकरी अभी 23 लाख के करीब है और इसे बढ़ा कर ज्यादा से ज्यादा 30 लाख किया जा सकता है। लेकिन तेजस्वी इससे 10 गुना ज्यादा सरकारी नौकरी की बात कर रहे हैं। जाहिर है वे सरकारी नौकरी से जुड़ी लोगों की भावनाओं से खेल रहे हैं।
असल में इस सरकारी नौकरी की मृग मरीचिका ने भी बिहार का बड़ा नुकसान किया है। लाखों की संख्या में नौजवान बरसों तक इसके पीछे भागते रहते हैं और अंत में हताश होकर बैठ जाते हैं। बिहार में अवसर की कमी के कारण किशोर उम्र से ही लोगों का पलायन शुरू हो जाता है। यह सरकारी आंकड़ा है कि देश भर के प्रवासियों में सबसे कम पढ़े लिखे प्रवासी बिहार के हैं। बिहार के जो प्रवासी देश के अलग अलग हिस्सों में जाकर काम करते हैं उनमें से लगभग 44 फीसदी ऐसे हैं, जिनकी शिक्षा सिर्फ प्राथमिक स्कूल तक हुई है, इसका राष्ट्रीय औसत 34 फीसदी का है।
इसी तरह देश भर के प्रवासियों में महज 7.8 फीसदी ऐसे होते हैं, जो निरक्षर होते हैं लेकिन उसमें भी बिहार का औसत 17 फीसदी से ज्यादा का है। इसका मतलब है कि दूसरे राज्यों में काम कर रहे करीब 61 फीसदी बिहारी ऐसे हैं, जो या तो निरक्षर हैं या प्राथमिक स्कूल तक पढ़ाई की है। जाहिर है कि अवसर की तलाश में निकले लोगों की शिक्षा दीक्षा इतनी है तो वे न्यूनतम आमदनी से ज्यादा कुछ नहीं कमा पाएंगे।
तभी अगर बिहार की पार्टियां या सरकार गंभीर हो तो एक करोड़ नौकरी या रोजगार देने या हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने या बिहार में ही 10 हजार रुपए की नौकरी देना का वादा करने की बजाय सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था कर दें तो इस अंधाधुंध प्रवासन की समस्या के समाधान की शुरुआत हो जाएगी। पहला कदम शिक्षा को बेहतर बनाने का होना चाहिए। अगर सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था हो जाए तो बिहार में भी रोजगार के अवसर बनेंगे और बाहर जाकर भी बिहार के लोग क्वालिटी रोजगार हासिल कर पाएंगे। लेकिन दुर्भाग्य से मुख्यधारा की पार्टियों के सारे नेता बिना शिक्षा व्यवस्था सुधारे ही रोजगार देने और पलायन रोकने के वादे कर रहे हैं!


